रेस्टोरेंट में बुज़ुर्ग को गरीब समझकर अमीर लड़के ने अपमानित किया, फिर जो हुआ, इंसानियत हिल गई
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दिल्ली के एक बड़े रेस्टोरेंट में एक दिन की कहानी है। सुबह के 11 बजे थे, और रेस्टोरेंट की हर कोने से खुशबू, चमक और शोर एक साथ मिलकर एक ऐसा माहौल बना रहे थे, जहां सिर्फ अमीरों की दुनिया सांस लेती थी। रेस्टोरेंट के बीचोंबीच सबसे बड़ी टेबल पर बैठा था विवेक कपूर। उसकी उम्र लगभग 26 साल थी। महंगी सफेद शर्ट, सुनहरी घड़ी और चेहरे पर बेशर्मी भरी आत्मविश्वास भरी मुस्कान थी। वह अपने चार दोस्तों के साथ था, जो उसकी हर बात पर हंस रहे थे, जैसे राजा के दरबार में जोकरों की टोली हो।
विवेक ने कॉफी का कप टेबल पर जोर से रखते हुए कहा, “देखो यार, अब वक्त बदल गया है। मैं कोई छोटा-मोटा बिजनेसमैन नहीं हूं। अगले महीने हमारा ऐप केन कनेक्ट करोड़ों की फंडिंग लेने वाला है। बड़े-बड़े इन्वेस्टर लाइन में खड़े हैं। अब तो बस गे मेरा है।” उसकी आवाज इतनी ऊंची थी कि पास बैठा हर वेटर तक उसे सुन सकता था। उसकी बातों में एक ऐसा घमंड था जैसे उसने दुनिया जीत ली हो।
उसके दोस्तों में से एक ने कहा, “भाई, अब तो दिल्ली की हर सड़क पर तुम्हारा नाम गूंजेगा।” विवेक ने मुस्कुराते हुए कहा, “नाम नहीं यार। ब्रांड अब लोग मुझे विवेक कपूर नहीं, ब्रांड कपूर कहेंगे।” उसी समय रेस्टोरेंट का शीशे वाला दरवाजा धीरे से खुला। अंदर एक बुजुर्ग व्यक्ति दाखिल हुए। उनका नाम हरि नारायण मेहता था। साधारण खादी का कुर्ता-पायजामा, पैरों में पुराने जूते और हाथ में एक पुराना झोला। चेहरे पर थकान थी, लेकिन आंखों में एक अजीब सी शांति थी।
वह धीरे-धीरे काउंटर की ओर बढ़े और बोले, “बेटा, एक ब्लैक कॉफी मिलेगी क्या?” काउंटर के पीछे खड़ा नौजवान बरिस्ता बिना ऊपर देखे बोला, “अंकल, आर्डर ऑनलाइन देना होता है। यह लाइन वीआईपी रिजर्व है। थोड़ा साइड में खड़े रहिए।” हरि नारायण ने कुछ नहीं कहा। बस किनारे जाकर खड़े हो गए। वह बड़े ध्यान से लोगों को देख रहे थे। किसी के हाथ में लैपटॉप, किसी के मोबाइल में महंगी मीटिंग, किसी की नजर इंसान पर नहीं।
10 मिनट, 20 मिनट। काउंटर से किसी ने उनकी तरफ देखा तक नहीं। तभी विवेक की नजर उस बुजुर्ग पर पड़ी। वह अपने दोस्तों से हंसते हुए बोला, “अरे देखो, लगता है कोई सरकारी बाबू गलती से यहां आ गया है। काका जी, यहां ₹10 वाली चाय नहीं मिलती। यह जगह थोड़ी महंगी है। चाहो तो मैं चाय पत्ती गिफ्ट कर दूं।” उसके शब्दों पर टेबल के सहारे दोस्त ठहाके लगाकर हंसने लगे। पूरा रेस्टोरेंट पल भर को उस शोर में गूंज उठा।
लेकिन हरि नारायण की आंखों में कोई गुस्सा नहीं था। बस एक हल्की मुस्कान थी, जैसे वह दुनिया को बहुत पहले समझ चुके हों। उधर काउंटर के पास खड़ी एक युवती यह सब देख रही थी। उसका नाम कविता शर्मा था। उम्र मुश्किल से 23 साल। वह पिछले 6 महीनों से यहां वेट्रेस का काम कर रही थी। पढ़ाई के साथ घर चलाना आसान नहीं था, लेकिन कविता ने कभी किसी से शिकायत नहीं की।
उसने धीरे से काउंटर की ओर जाकर कहा, “मैं सर्व कर दूं सर।” बरिस्ता ने नकारात्मक ढंग से सिर हिलाया। वह बुजुर्ग के पास गई और मुस्कुराकर बोली, “सर, क्या मैं आपकी मदद कर सकती हूं?” हरि नारायण ने कहा, “बेटी, अगर एक ब्लैक कॉफी मिल जाए तो अच्छा लगेगा।” कविता ने सिर हिलाया, “जरूर सर, अभी लाती हूं।”
वह मुड़ी ही थी कि विवेक ने फिर ऊंची आवाज में कहा, “कविता, पहले मेरा कोल्ड कॉफी लाओ। इन फ्री वालों को बाद में देना। यहां कोई धर्मशाला नहीं है।” कविता का चेहरा लाल हो गया। पर उसने कुछ नहीं कहा। उसने पहले बुजुर्ग की कॉफी बनाई और उनके पास ले जाकर रख दी। “सर, आपकी कॉफी,” हरि नारायण ने मुस्कुरा कर पूछा। “बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?” कविता ने कहा, “कविता शर्मा सर।”

हरि नारायण ने कहा, “बहुत अच्छा नाम है। कविता सिर्फ किताबों में नहीं, जिंदगी में भी मिलती है, और आज मुझे वही दिखी है।” कविता हल्का सा मुस्कुरा दी। उसकी आंखों में अपने दादाजी की याद तैर गई। विवेक उधर फोन पर ऊंची आवाज में किसी से बात कर रहा था। “हां मिस्टर अग्रवाल, मैं यही एंपायर ब्लेंड्स में हूं। आप और मिस्टर सूद पहुंचो। आज फंडिंग फाइनल करनी है। मेरी कंपनी अब नेक्स्ट यूनिकॉर्न बनने वाली है।” वह शेखी बघा रहा था।
लेकिन किस्मत उसके लिए कुछ और लिख चुकी थी। ठीक 12:00 बजे रेस्टोरेंट का दरवाजा दोबारा खुला। अंदर दो आदमी दाखिल हुए। सूट-बूट में मगर चेहरों पर गजब का असर। वह थे मिस्टर अग्रवाल और मिस्टर सूद, शहर के दो सबसे बड़े इन्वेस्टर्स। विवेक उन्हें देखकर उछल पड़ा। “लो दोस्तों, अब देखना असली खेल।” वो झटके से खड़ा हुआ, बाल ठीक किए और हाथ बढ़ाने के लिए आगे बढ़ा।
लेकिन वे दोनों सीधे विवेक की तरफ नहीं गए। उनकी निगाहें उस कोने पर टिकी, जहां हरिनारायण मेहता शांतिपूर्वक कॉफी पी रहे थे। विवेक हैरान रह गया। उन दोनों ने बिना एक शब्द बोले सीधे जाकर उस बुजुर्ग के सामने झुक कर कहा, “सर, अगर आप इजाजत दें तो हम बैठ जाएं।” रेस्टोरेंट का शोर अचानक थम गया। हर कोई पल भर को जड़ हो गया।
जहां अभी तक विवेक कपूर की आवाज गूंज रही थी, अब वहां सिर्फ एक चुप्पी थी। ऐसी चुप्पी जिसमें झेप, हैरानी और अविश्वास एक साथ मिल गए थे। मिस्टर अग्रवाल और मिस्टर सूद दोनों देश के जानेमाने इन्वेस्टर थे, जिनसे मिलने के लिए बड़े-बड़े उद्योगपति महीनों अपॉइंटमेंट का इंतजार करते थे। वह आज एक साधारण से खादी कुर्ता पहने बुजुर्ग के सामने बैठने की अनुमति मांग रहे थे।
विवेक के दोस्तों के चेहरे पीले पड़ गए। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा है। विवेक ने अपनी मुस्कान को जबरन बरकरार रखते हुए आगे कदम बढ़ाया। “सर, गुड टू सी यू। मैं विवेक कपूर के कनेक्ट का फाउंडर।” आज की हमारी मीटिंग… मिस्टर अग्रवाल ने उसकी बात बीच में काट दी। उनकी नजर हरिनारायण पर थी। “आपने तो कहा था कि आज आराम करेंगे।”
हरिनारायण मेहता ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां बेटा, आराम ही तो कर रहा हूं। कॉफी के साथ।” उनकी आवाज में सादगी थी, पर उस सादगी में एक अद्भुत ठहराव भी था। मिस्टर सूद ने कुर्सी खींची और उनके सामने बैठ गए। “सर, आपने जिस कम्युनिटी होटल प्रोजेक्ट का आईडिया दिया था, वो अब अगले हफ्ते लॉन्च हो रहा है। आपकी सलाह के बिना हम शायद यह कर ही नहीं पाते।”
विवेक की सांस जैसे थम गई। वो धीरे से बोला, “सर, आप इन्हें जानते हैं?” मिस्टर अग्रवाल ने ठंडी मुस्कान के साथ कहा, “जानते बेटा, हम तो इनकी सलाह से ही कारोबार चलाते हैं। तुम्हारे जैसे 20 फाउंडर आते हैं रोज। लेकिन हरिनारायण मेहता जैसे लोग सदी में एक बार मिलते हैं।” विवेक के हाथ कांप गए। उसका सारा आत्मविश्वास उसी पल जैसे पिघल गया।
जिसे उसने कुछ देर पहले काका कहकर सबके सामने हंसी का पात्र बनाया था, वो असल में देश के सबसे सम्मानित बिजनेस मेंटर निकले। वह शख्स जिनकी राय पर करोड़ों के निवेश तय होते थे। हरिनारायण ने धीरे से कॉफी का कप नीचे रखा। “बेटा, तुम्हारे पिता रमेश कपूर को मैं बहुत अच्छे से जानता हूं। ईमानदार इंसान हैं। उन्होंने अपनी मेहनत से नाम कमाया और आज उनका बेटा बस नाम बेच रहा है।”
विवेक के चेहरे का रंग उड़ गया। वो झूठी हंसी हंसते हुए बोला, “सर, आपने शायद गलत समझा। मैं तो बस मजाक कर रहा था।” हरिनारायण ने मुस्कुरा कर कहा, “मजाक बेटा, जब मजाक किसी की गरिमा पर हो तो वह मजाक नहीं, चरित्र की पहचान बन जाता है।” पूरा रेस्टोरेंट अब उनकी हर बात सुन रहा था। वेटर्स तक रुक गए थे। कविता शर्मा जो यह सब पास से देख रही थी, उसकी आंखों में चमक थी।
कभी किसी बुजुर्ग के लिए इंसाफ इतनी खामोशी से नहीं हुआ था। हरिनारायण आगे बोले, “तुम्हें लगता है कि सफलता का मतलब महंगे कपड़े और शोरूम जैसा ऑफिस है? नहीं बेटा, सफलता वहां होती है जहां मेहनत और इंसानियत साथ चले। तुमने उस लड़की का अपमान किया जो ईमानदारी से काम कर रही थी। जिस इंसान को अपने कर्मचारियों का सम्मान नहीं, वह ग्राहकों का क्या करेगा?”
विवेक कुछ कहना चाहता था, पर उसके शब्द गले में अटक गए। उसका सिर झुका हुआ था और दिल में पहली बार एक अजीब सी शर्म थी। मिस्टर अग्रवाल ने कहा, “विवेक, हमें खेद है लेकिन तुम्हारे स्टार्टअप में निवेश का कोई मतलब नहीं रह गया। हम अब उस आदमी की टीम के साथ काम करना चाहते हैं जो जमीन से जुड़ा है, अहंकार से नहीं।”
हरिनारायण ने धीमे स्वर में कहा, “बेटा, यह मत सोचो कि मैं तुम्हें गिराना चाहता हूं। मैं तो बस चाहता हूं कि अगली बार जब तुम किसी से बात करो तो सामने वाले को इंसान समझकर करो।” वह उठे, अपना झोला उठाया और दरवाजे की तरफ बढ़ने लगे। कविता उनके पीछे भागी और बोली, “सर, आपकी कॉफी के पैसे दो।”
हरि नारायण ने जेब से 500 का नोट निकाला और मुस्कुरा कर बोले, “कॉफी 100 की थी, बाकी तुम्हारे हौसले के लिए। कल सुबह मेरे ऑफिस आना बेटी, मुझे तुम्हारे काम का तरीका पसंद आया है।” कविता की आंखें भर आईं। वह कुछ बोल न पाई, बस सिर झुका लिया। हरिनारायण ने जाते-जाते आखिरी बार विवेक की ओर देखा और कहा, “बेटा, शिखर पर पहुंचना आसान है, पर वहां टिके रहना सिर्फ किरदार से संभव है, अहंकार से नहीं।”
वह बाहर चले गए। रेस्टोरेंट की रोशनी अब भी उतनी ही चमकीली थी, पर विवेक की दुनिया अंधेरे में डूब चुकी थी। उसके दोस्त एक-एक कर बहाने बनाकर निकल गए। कोई फोन पर बात करने लगा, कोई अचानक अर्जेंट कॉल का नाटक करने लगा। विवेक की मेज पर अब सिर्फ ठंडी पड़ी कॉफी रह गई थी और एक टूटा हुआ घमंड।
अगली सुबह दिल्ली की हवा में हल्की ठंड थी। सड़कें धीरे-धीरे जाग रही थीं, पर कविता शर्मा के भीतर रात से ही बेचैनी थी। वह बार-बार अपनी घड़ी देख रही थी। हरिनारायण मेहता ने कहा था, “कल सुबह मेरे ऑफिस आना।” लेकिन जब उसने Google पर उनका नाम सर्च किया, तो जो सामने आया उसने उसके कदमों तले जमीन खिसका दी। हरिनारायण मेहता, इंडिया के किंग मेकर, बिजनेस थिंकर ऑफ द ईयर और सेज इन्वेस्ट ग्रुप के फाउंडर।
कविता ने स्क्रीन पर उस बुजुर्ग की मुस्कुराती तस्वीर देखी। वही सादगी, वही झोला, वही विनम्र चेहरा। बस पीछे लिखा था, “टर्निंग ह्यूमैनिटी इनू बिजनेस एथिक्स।” उसने धीरे से कहा, “हे भगवान, यह वही हैं जिन्हें कल सबने अपमानित किया था।” वह कुछ देर तक खिड़की के पास खड़ी रही। फिर गहरी सांस लेकर तैयार हुई। हल्की गुलाबी सलवार सूट पहनकर वह ऑटो में बैठी और मालवीय नगर की तरफ निकल पड़ी, जहां मेहता हाउस लिखा एक बड़ा पर शांत बंगला था।
बाहर एक पीतल की नेमप्लेट थी। “शांति निवास, हरिनारायण मेहता।” ना कोई सिक्योरिटी गार्ड, ना कोई गाड़ियों की कतार। बस साधारण घर जैसे कोई बुजुर्ग अपनी सादगी में जी रहा हो। कविता ने इंटरकॉम पर बटन दबाया। भीतर से मधुर आवाज आई, “जी, कौन?” “सर ने मुझे बुलाया था। मेरा नाम कविता शर्मा है।” “जी, आइए बेटी, अंदर आइए।”
दरवाजा खुला तो वही बुजुर्ग सामने थे। चेहरे पर वही सुकून भरी मुस्कान, आंखों में अपनापन। “आ गई बेटी,” उन्होंने कहा। कविता ने झिझकते हुए नमस्ते किया। “जी सर, आपने बुलाया था, पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि आप वही हैं।” हरिनारायण ने हंसते हुए कहा, “वही, जो कल कॉफी पीने आया था और वही, जो आज तुम्हारी कॉफी जैसी सच्चाई देखना चाहता है।”
वो उसे अंदर ले गए। कमरा किताबों से भरा था। दीवारों पर पुराने फोटो, कभी किसी पुरस्कार समारोह का, कभी किसी स्कूल में बच्चों के बीच मुस्कुराते हुए हरि नारायण का। “बैठो बेटी, घबराओ मत। कल रेस्टोरेंट में जो देखा, उसने मुझे तुम्हारी ईमानदारी याद दिला दी। तुम जैसे लोग ही इस देश की रीढ़ हैं, जो बिना दिखावे के काम करते हैं।”
कविता के गले में शब्द अटक गए। “सर, मैंने तो बस अपना काम किया था।” हरिनारायण ने मुस्कुरा कर कहा, “बेटी, आजकल काम करने वाले बहुत हैं, लेकिन काम में इंसानियत रखने वाले बहुत कम हैं।” तभी अंदर उनकी सेक्रेटरी आई। “सर, आज 11:00 बजे मिस्टर अग्रवाल और मिस्टर सूद मीटिंग के लिए आ रहे हैं।” “ठीक है, लेकिन पहले बेटी कविता से बात पूरी कर लें।”
उन्होंने मेज पर से एक फाइल उठाई। “तुम कल कह रही थी कि अपना छोटा होटल खोलना चाहती हो, पर पैसों की दिक्कत है।” कविता ने धीरे से सिर हिलाया। “जी सर, मां के गुजर जाने के बाद से बस यही सपना है कि मां की रसोई नाम से कुछ शुरू करूं, जहां खाना सिर्फ बिके नहीं, बांटा भी जाए।”
हरिनारायण ने उसकी आंखों में झांका। “तो फिर उसे हकीकत क्यों ना बनाया जाए?” कविता ने चौंक कर कहा, “क्या मतलब सर?” उन्होंने इंटरकॉम पर कहा, “रीना, प्रोजेक्ट मां की रसोई का डॉक्यूमेंट लेकर आओ।” रीना ने फाइल सामने रखी। हरिनारायण ने कहा, “बेटी, मैंने रात को ही तुम्हारे लिए एक बेसिक बिजनेस प्लान तैयार करवाया है। शहर के तीन मार्केट में हमने जगह देखी है। अगर तुम तैयार हो, तो हम शुरू करें।”
कविता की आंखों में आंसू आ गए। “सर, मैं क्या करूंगी? मुझे तो बिजनेस की समझ भी नहीं।” हरिनारायण ने हंसते हुए कहा, “समझ तो तुम कल ही दे चुकी हो बेटी, जब तुमने बिना किसी लालच के एक बुजुर्ग को सम्मान दिया। बिजनेस वही है, सम्मान से शुरू होकर विश्वास पर टिकना।” उनकी आवाज में वह अनुभव था जो किसी किताब में नहीं, जीवन के संघर्षों से पैदा होता है।
धीरे-धीरे कमरा भरने लगा। मिस्टर अग्रवाल और मिस्टर सूद भी आ गए। कविता थोड़ी घबराई, पर हरिनारायण बोले, “यह हमारी नई पार्टनर है। कविता शर्मा, हम मां की रसोई नाम से एक सोशल कैफे चैन शुरू कर रहे हैं। यह इसकी हेड होंगी।” दोनों इन्वेस्टर्स मुस्कुराए।
अग्रवाल बोले, “सर, आपने तो हमेशा वही चुना है जो दिल से काम करता है। कविता जी, बधाई हो।” कविता ने कांपते हाथों से फाइल ली। उसके लिए यह किसी सपने जैसा था। वह लड़की जो कल तक दूसरों की कॉफी सर्व कर रही थी, आज एक नए सफर की डायरेक्टर बनने जा रही थी। मीटिंग खत्म होने के बाद हरिनारायण खिड़की के पास जाकर बोले, “देखो बेटी, पैसे से बड़ा कोई निवेश नहीं। सिर्फ भरोसा, और आज मैंने वही किया है।”
कविता की आंखों से आंसू बह निकले। उसने उनके पैर छुए। “सर, आपने मेरी जिंदगी बदल दी।” हरिनारायण ने उसके सिर पर हाथ रखा। “नहीं बेटी, मैंने सिर्फ दरवाजा खोला है। चलना तुम्हें।” बाहर सूरज की रोशनी खिड़कियों से छनकर कमरे में फैल रही थी। वो रोशनी कविता के चेहरे पर ऐसे पड़ रही थी, जैसे भगवान खुद कह रहे हों, “अच्छाई देर से सही, पर लौट कर आती जरूर है।”
छह महीने बाद दिल्ली के लाजपत नगर की एक शांत सड़क पर एक प्यारा सा नया बोर्ड लगा। “मां की रसोई, प्यार से परोसा हर निवाला।” सामने रंग-बिरंगे फूल, चारों तरफ हल्की खुशबू और दरवाजे के बाहर छोटे बच्चों की हंसी। कविता शर्मा का सपना अब साकार हो चुका था। उसने अपने हाथों से ओपनिंग का दिया जलाया और आसमान की ओर देखते हुए फुसफुसाई, “मां, अब तुम्हारा नाम हर थाली में रहेगा।”
भीतर हर टेबल पर मुस्कुराते लोग, वेटर्स के चेहरे पर सम्मान और रसोई से आती ताजा पूरियों की महक, हर चीज में अपनापन घुला हुआ था। हरिनारायण मेहता अपने पुराने झोले के साथ धीरे-धीरे अंदर आए। कविता भागी और उनके पैर छुए। “सर, सब आपकी वजह से हुआ।” हरिनारायण मुस्कुराए। “बेटी, मैंने सिर्फ दरवाजा दिखाया था। खोला तुमने अपनी मेहनत से।”
उन्होंने चारों तरफ देखा। हर कर्मचारी वही था, जो पहले कहीं ना कहीं ठुकराया गया था। किसी ने होटल में नौकरी खोई थी, किसी ने परिवार खो दिया था। कविता ने सबको एक नई पहचान दी थी। वह बोली, “सर, यहां एक नियम है। हर रात बचा हुआ खाना अनाथालय जाता है, और हर रविवार हम उन बुजुर्गों को मुफ्त खाना खिलाते हैं, जिनके बच्चे अब उन्हें देखने भी नहीं आते।”
हरिनारायण ने आंखें बंद कर गहरी सांस ली। “यही तो है असली बिजनेस बेटी, जहां इंसानियत घाटे में नहीं जाती।” तभी बाहर से एक काली कार आकर रुकी। दरवाजा खुला और नीचे उतरा विवेक कपूर। चेहरा थका हुआ, बाल बिखरे, आंखों के नीचे नींद की कमी। वो अब वैसा नहीं था। ना चमकती शर्ट, ना घमंड वाली मुस्कान। सिर्फ एक टूटी हुई आवाज और झुकी निगाहें।
कविता ने उसे देखते ही पहचाना, पर कुछ नहीं बोली। वो अंदर आया और धीमी आवाज में बोला, “कविता जी, एक कॉफी मिलेगी।” कविता ने मुस्कुराते हुए कहा, “जरूर सर, यहां हर कॉफी सम्मान के साथ मिलती है।” वो चुपचाप बैठ गया। हरिनारायण ने उसे देखा और धीमे कदमों से उसके पास आकर बोले, “कैसे हो बेटा?” विवेक ने सिर झुकाया, “ठीक नहीं सर, सब खो दिया। इन्वेस्टर्स ने हाथ खींच लिया। कंपनी बंद हो गई। शायद मैं अपनी अकड़ में बहुत आगे निकल गया था।”
हरिनारायण ने कुर्सी खींचकर उसके सामने बैठते हुए कहा, “बेटा, कोई भी इंसान असफल तब नहीं होता जब वह गिरता है, बल्कि तब होता है जब वह सीखना छोड़ देता है। तुम गिरे हो, लेकिन अगर सच्चे मन से पछता रहे हो तो यह तुम्हारी नई शुरुआत है।” विवेक की आंखों में आंसू थे। “सर, क्या मुझे फिर से मौका मिल सकता है?”
हरिनारायण मुस्कुराए। “हर सुबह नया सूरज लेकर आती है बेटा। सवाल है, क्या तुम उसे पहचान पाते हो?” कविता वहां आई और कॉफी रखी। “सर, यह ब्लैक कॉफी।” वो रुकी। “ठीक वैसे ही जैसी आपने 6 महीने पहले मांगी थी।” हरिनारायण ने कप उसकी तरफ बढ़ाया। “लो विवेक, यह कॉफी तुम्हारे लिए है। याद रखना, वही कप कभी अपमान का था। आज वही अवसर का बन सकता है।”
विवेक ने कांपते हाथों से कप लिया और धीरे से कहा, “सर, मैं कविता जी से माफी मांगना चाहता हूं। जिस दिन मैंने आपको अपमानित किया था, उस दिन मैंने खुद को भी छोटा कर लिया था।” कविता ने मुस्कुरा कर कहा, “सर, माफी मांगना भी बहादुरी है। जिंदगी हमेशा दूसरा मौका देती है। बस अहंकार नहीं देता।”
हरिनारायण उठे और बोले, “विवेक, अगर सच में बदलना चाहते हो तो मां की रसोई में एक काम करो। यहां हर कोई अपनी हार से शुरुआत करता है।” विवेक ने हैरानी से कहा, “मैं यहां काम करूं?” “हां बेटा, अपने पिता की मेहनत की तरह ईमानदारी से। फिर देखना, सफलता खुद लौट कर आएगी।”
विवेक की आंखों में अब आंसू नहीं, बल्कि एक नया संकल्प था। उसने धीरे से कहा, “जी सर, मैं तैयार हूं।” हरिनारायण ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब मुझे विश्वास है, तुम्हारे पिता को फिर से तुम पर गर्व होगा।” सूरज की किरणें खिड़की से होकर कमरे में फैली और उनके चेहरों पर पड़ने लगी। वो रोशनी सिर्फ कमरे को नहीं, बल्कि तीन जिंदगियों को नया अर्थ दे रही थी।
हरिनारायण धीरे-धीरे बाहर निकले। झोला कंधे पर डाला और कहा, “कभी किसी की सादगी को कमजोरी मत समझना। वह वही ताकत होती है जो वक्त आने पर दुनिया बदल देती है।” कविता ने उन्हें जाते हुए देखा। “सर, आज भी आप उसी सादगी में इतने बड़े लगते हैं।” हरिनारायण ने हंसकर कहा, “बेटी, जो सादगी छोड़ दे, वो इंसान नहीं, तमाशा बन जाता है।”
और वह चलते गए। पीछे मां की रसोई के बोर्ड पर लिखा था, “जहां दिल से परोसा जाता है हर निवाला।” कविता और विवेक दोनों ने साथ मिलकर काम शुरू किया। हर दिन वहां कोई ना कोई नया चेहरा आता। कोई जिसे समाज ने ठुकराया था, और यहां उसे फिर से इज्जत मिलती थी। हरिनारायण का सपना अब सच हो चुका था। एक ऐसी जगह जहां पैसा नहीं, इंसानियत चलती थी।
दोस्तों, जिंदगी में किसी की औकात उसके कपड़ों से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से मापो। कभी किसी को छोटा मत समझो, क्योंकि वक्त अक्सर सबसे बड़े सबक सबसे साधारण लोगों के रूप में देता है। अब बताइए, अगर आपके सामने भी कोई ऐसा बुजुर्ग खड़ा हो जो गरीब लगता है, क्या आप उसे ठुकराएंगे या सामान देंगे? कमेंट में जरूर लिखिए।
में। तब तक खुश रहिए। बड़े बुजुर्गों की कद्र कीजिए और इंसानियत कभी मत भूलिए। जय हिंद, जय भारत!
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