एमबीबीएस डॉक्टर ने ऑफर को घोटाला समझ कर ठुकरा दिया – सच्चाई जानकर चौंक जाएंगे आप

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एमबीबीएस डॉक्टर ने ऑफर को घोटाला समझ कर ठुकरा दिया

दिल्ली के एक बड़े सरकारी अस्पताल के बाहर शाम का वक्त था। आसमान पर हल्की सी जर्दी छाई हुई थी और मरीजों की आमद और रफ्त का सिलसिला जारी था। एंबुलेंस की तेज आवाजें, दौड़ते हुए नर्सें, परेशान चेहरे, और डॉक्टरों की सफेद कोटें, हर चीज अपने निजाम में मशरूफ थी। उसी माहौल में, अस्पताल के न्यूरोलॉजी डिपार्टमेंट से डॉक्टर आरोही वर्मा निकल रही थी। वह एक खुशमिजाज, पुर-एतमाद और मेहनती महिला थी जो अपनी काबिलियत की बुनियाद पर अस्पताल की आला डॉक्टरों में शुमार होती थी।

एक अनजाना चेहरा

आज का दिन भी मशरूफ गुजरा था। आरोही ने एक आखिरी मरीज को चेक किया और नर्स से जरूरी हिदायत देकर बाहर की राह ली। उसके चेहरे पर थकान तो थी, लेकिन साथ ही वह इत्मीनान भी था जो सिर्फ फर्ज की अदा करने के बाद मिलता है। जैसे ही वह अस्पताल के दरवाजे के करीब पहुंची, उसके कदम रुक गए। सामने अस्पताल के दाखिली गेट के पास खड़ा एक शख्स उसका इंतजार कर रहा था।

वह शख्स बोसीदा कपड़ों में मलबूस था। कमीज के कॉलर फटे हुए थे, पतलून पर धूल जमी हुई थी, और पांव में पुराने जूते जिनकी एड़ियां लगभग खत्म हो चुकी थीं। उसके हाथ में एक सादा सा गुलदस्ता था। ना महंगे फूल, ना रिबन। बस सफेद गुलाबों की कुछ कलियां एक अखबारी कागज में लिपटी हुई। उसकी निगाहें सीधी आरोही की तरफ थीं, जैसे बरसों से उसी लम्हे का इंतजार कर रहा हो।

आरोही ने उसे देखा, लेकिन पहचानने में कुछ वक्त लगा। फिर वह चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा, लेकिन उसने फौरन नजरें चुरा लीं। तभी वह शख्स बोला, “आवाज मध्यम थी लेकिन दिल से निकली हुई। आरोही, मैं राजू हूं। क्या तुम मुझे पहचानती हो?”

आरोही के चेहरे पर लम्हे भर के लिए हैरानी आई। जैसे ज़हन में किसी धुंधली याद की खिड़की खुली हो। लेकिन उसने फौरन चेहरा मोड़ा और साथ खड़े अपने डॉक्टर साथियों की तरफ मुतवज्जे हो गई। डॉक्टर विजय और डॉक्टर अनूप जो उसी के साथ घर जाने वाले थे, उसके कंधे पर झुक कर बोले, “कौन है यह?”

आरोही ने हंसते हुए कहा, “कोई पुराना जानने वाला लगता है, लेकिन अब शायद भिखारी बन चुका है।” राजू के होंठ कांपे, मगर वह आगे बढ़ा। उसने हाथ में मौजूद गुलदस्ता बुलंद किया और गहरी सांस लेकर बोला, “मैं तुमसे शादी का रिश्ता मांगने आया हूं, आरोही।”

अपमान का पल

उसकी आवाज में कपकपाहट थी, लेकिन अल्फाज़ मजबूत थे। जैसे बरसों का हौसला जमा किया हो। अस्पताल के दाखिली दरवाजे पर कुछ लोगों ने सुना और रुक गए। नर्सें, वार्ड बॉयज, यहां तक कि कुछ मरीजों के रिश्तेदार भी मुतवज्जे हो गए। माहौल में एकदम संजीदगी आ गई। आरोही का चेहरा सुर्ख हो गया। गुस्से से नहीं, ना शर्मिंदगी से, बल्कि हकारत से।

वह तेज आवाज में हंसी और बोली, “शादी का रिश्ता तुम एक मैट्रिक फेल लड़के से एक न्यूरोलॉजिस्ट से शादी करेगा? ख्वाब में भी मत सोचना।” यह जुमला जैसे हवा में तीर बनकर राजू के सीने में धंस गया। लोगों की निगाहें बदल गईं। कुछ ने हंसी दबाई, कुछ ने सर हिलाया, और कुछ ने मोबाइल निकालकर वीडियो बनाना शुरू कर दिया।

राजू की आंखों में दुख साफ झलक रहा था। लेकिन उसने सर झुका लिया। उसके चेहरे पर कोई तासुर ना रहा। ना शिकायत, ना गिला, सिर्फ खामोशी। उस खामोशी ने सबको और भी गैर मुतमिन कर दिया। कुछ लम्हों के लिए माहौल मुंजमिद हो गया। सिर्फ हवा की हल्की सी सरसराहट और राजू की सांसों की गूंज बाकी थी।

आरोही तेज कदमों से आगे बढ़ी और अपनी कार में जा बैठी। गाड़ी स्टार्ट की और बिना एक बार पीछे देखे रवाना हो गई। राजू वहीं खड़ा रहा। हाथ में गुलदस्ता, गर्द आलूद चेहरा, आंखों में दर्द और दिल में वह सवाल जो शायद अब कभी ना पूछा जा सके।

एक नई सुबह

अस्पताल के दरवाजे पर जैसे वक्त थम गया हो। राजू अब भी वही खड़ा था। हाथ में वही सादा सा गुलदस्ता। चेहरे पर खामोशी और आंखों में एक ऐसी उम्मीद जो लम्हा बलम्हा दम तोड़ रही थी। आसपास खड़े लोग सरगोशियां कर रहे थे। कुछ के चेहरों पर हंसी थी। कुछ के तासुरात तंजिया थे और कुछ के दिलों में सिर्फ तजसुस। सबकी निगाहें उस शख्स पर थीं जिसने हिम्मत करके एक मशहूर न्यूरोलॉजिस्ट को सादा लिबास में शादी का पैगाम दिया था।

आरोही के कदम तेज हो चुके थे। लेकिन अचानक वह मुड़ी जैसे कुछ कहना बाकी हो। उसने अपने डॉक्टर दोस्तों की तरफ देखा जो मुस्कुराहट दबा नहीं पा रहे थे। फिर एक कदम आगे बढ़कर राजू के करीब आकर रुक गई। उसने एक लम्हे के लिए उसे सरतापा देखा। फटे जूते, मैले कपड़े, धुंधली आंखें। फिर उसने बुलंद आवाज में कहा ताकि सब सुने, “यही था मेरा बचपन का दोस्त जिसके साथ मैं आम के दरख्त के नीचे खेलती थी, जो मेरे घर से पानी पीने आया करता था और आज यह फकीर बनकर अस्पताल के दरवाजे पर मुझे प्रपोज करने आ गया। वाह राजू, तुम में हिम्मत तो बहुत है, मगर तुम्हें शर्म जरा भी नहीं।”

राजू की खामोशी

लोगों में दबी-दबी हंसी सुनाई दी। नर्सें एक-दूसरे को कोहनियां मारने लगीं। कुछ नौजवानों ने राजू की वीडियो बनाना शुरू कर दी। राजू के होंठ कपकपाए, मगर उसने कुछ नहीं कहा। उसने वह गुलदस्ता थामा हुआ था जैसे वही उसका आखिरी सहारा हो। तभी आरोही ने एक कदम और आगे बढ़ाया और एक झटके से राजू के कंधे पर हाथ मारा।

“हट जाओ रास्ते से। तुम जैसे लोग ख्वाब देखना छोड़ दें तो बेहतर है।” वह गरज गई। यह धक्का सिर्फ जिस्म पर नहीं, राजू की रूह पर लगा। उसका वजूद डगमगाया। कदम पीछे लड़खड़ाए और वह अस्पताल के दाखिली रास्ते के फर्श पर गिर पड़ा।

गुलदस्ता उसके हाथ से छूट कर जमीन पर बिखर गया। सफेद गुलाबों की पंखुड़ियां फुटपाथ पर बिखरती चली गईं, और कुछ पंखुड़ियां राजू के चेहरे से आकर चिपक गईं। जैसे उसकी खामोशी पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही हो। लोगों ने या तो हंसी उड़ाई या नजरें फेर लीं। कोई आगे नहीं आया। राजू खुद संभलने की कोशिश करता रहा।

अपनी एड़ियां जमाता, कपड़ों से गर्द झाड़ता लेकिन उसके हाथ कांप रहे थे। जिस्म तो संभल गया, मगर दिल वह तो पूरी तरह टूट चुका था। चेहरा मिट्टी से अटा हुआ था। लेकिन उसकी आंखों में आंसू नहीं थे। सिर्फ एक अजीब सी चमक जैसे किसी ने अंदर कुछ जला दिया हो।

एक नया मोड़

आरोही ने आखिरी बार तंजिया निगाह डाली और आगे बढ़ गई। डॉक्टर विजय ने भी पीछे मुड़कर राजू को देखा। मगर एक लम्हे के लिए भी रुका नहीं। उनके लिए वह सिर्फ एक नाकाम आशिक था जो एक बुलंद मकाम पर फज लड़की के सामने ख्वाब देखने की गलती कर बैठा था।

गाड़ी का दरवाजा बंद हुआ। इंजन की आवाज गूंजी और आरोही की कार अस्पताल से बाहर निकल गई। राजू वहीं खड़ा रहा। आसपास के शोर में गुम लेकिन उसके अंदर खामोशी की गूंज थी। रफ्ता-रफ्ता लोग भी वहां से हट गए। वीडियो बनाने वाले अपनी पोस्ट अपलोड करके आगे बढ़ गए। लेकिन राजू वहीं बैठा रहा। उसकी निगाहें अब भी अस्पताल की उस शीशे की दीवार पर जमी हुई थीं जहां से कुछ लम्हे पहले आरोही बाहर निकली थी।

आखिरकार उसने आहिस्ता से सर उठाया। जमीन पर बिखरे गुलाबों को देखा। उन्हें हाथ में लिया। धीरे से सीने से लगाया और एक सर्द आह भरकर वहां से चल पड़ा। ना कोई शिकायत, ना बद्दुआ। सिर्फ खामोशी। और उस खामोशी में एक नई शुरुआत का बीज बो दिया गया।

एक नई शुरुआत

इतवार की सुबह का वक्त था। धूप अभी पूरी तरह फैली नहीं थी। लेकिन दिल्ली के मगरबी इलाके की सब्जी मंडी में काफी चहल-पहल हो चुकी थी। आरोही वर्मा जो आम दिनों में अपने अस्पताल की मशरूफियत में घिरी रहती थी, आज छुट्टी का फायदा उठाते हुए खुद सब्जी लेने निकली थी। उसने सफेद रंग की सादा साड़ी पहनी थी।

मंडी की गलियों में हर तरफ सब्जी फरोशों की आवाजें गूंज रही थीं। आरोही बाजार की रौनक में खोई हुई थी। मगर उसके दिलो-दिमाग में कल का वाकया बार-बार उभर रहा था। राजू का चेहरा, उसकी खामोश निगाहें, और जमीन पर बिखरा गुलदस्ता हर मंजर जैसे बार-बार जहन में रीप्ले हो रहा हो।

राजू का अतीत

एक मामूस आवाज ने उसे चौंका दिया। “अरे आरोही बेटा, आज खुद सब्जी खरीदने आई हो?” सामने सरोज चाची थीं। वही जिनका घर आरोही के बचपन के घर से दो मकान छोड़कर था। सरोज चाची ने सब्जियों पर एक नजर डाली और हंसते हुए बोलीं, “बेटा, भिंडी बहुत महंगी हो गई है। लेकिन आजकल शहर में सब कुछ ही अजीब हो रहा है। मसलन कल अस्पताल के बाहर क्या हुआ था? सुना है ना?”

आरोही का दिल धड़कने लगा। उसने संभलकर कहा, “क्या हुआ था?” चाची ने भौहे चढ़ाते हुए कहा, “अरे वही जो सब वीडियो में देखा। एक बोसीदा कपड़ों वाला लड़का हाथ में गुलदस्ता लिए तुम्हें प्रपोज कर रहा था।”

आरोही ने बेनियाजी से हंसते हुए कहा, “हां चाची, बस कोई बेकार सा लड़का था। मैट्रिक पास भी नहीं लगता था। मैंने इंकार कर दिया।”

एक पुरानी याद

सरोज चाची का चेहरा एक लम्हे के लिए संजीदा हो गया। उन्होंने आरोही के कंधे पर हाथ रखा और आहिस्ता से कहा, “बेटा, वह कोई आम लड़का नहीं था। वह राजू था। तुम्हारा बचपन का पड़ोसी।”

आरोही की हंसी एकदम रुक गई। आंखें फैल गईं। “कौन राजू?” चाची ने कहा, “अरे वही राजू जिसके साथ तुम आम के पेड़ के नीचे खेलती थी। वही जिसका पिता राशन डिपो में काम करता था।”

पहचानने का एहसास

आरोही के लबों पर बेयकीनी छा गई। “नहीं चाची, वह तो स्कूल भी छोड़ गया था ना।” चाची ने पुरोखार लहजे में कहा, “नहीं बेटा, जब उसके वालिद का इंतकाल हुआ तो वह अपने मामू के साथ देहरादून चला गया था। वहीं एक आर्मी स्कूल में दाखिला लिया। फिर एनडीए, फिर आईएमए। आज वह भारतीय फौज का ब्रिगेडियर है। कल जो तुमने देखा, वह उसकी वर्दी नहीं, उसकी आजमाइश थी।”

आरोही के हाथ में पकड़ा थैला लरजने लगा। वह चुप हो गई। इर्दगिर्द की आवाजें जैसे मध्यम पड़ने लगीं। सिर्फ सरोज चाची की आवाज गूंज रही थी। “वह भष बदलकर आया था। शायद यह जानना चाहता था कि तुम आज भी उसे दिल से पहचानती हो या सिर्फ कपड़ों से।”

राजू का सामना

आरोही ने उनकी बात सुनी मगर जैसे हर आवाज उसके वजूद से टकरा कर वापस जा रही हो। उसने खामोशी से सर हिलाया और घर की तरफ चल पड़ी। दरवाजा बंद करते ही वह सीधा अपने कमरे में गई, दरवाजा बंद किया और आहिस्ता-आहिस्ता फर्श पर बैठ गई।

दीवार के साथ टेक लगाकर वह बेहरकत हो गई और जैसे बरसों का बोझ उसकी छाती पर गिर गया हो वह बेआज रोई। आंखों से आंसू टपक रहे थे। लेकिन लबों से कोई सदा नहीं निकल रही थी। यह वह आंसू थे जो सिर्फ नाह जमीर से पैदा होते हैं।

राजू का नया सफर

कुछ घंटे यूं ही गुजर गए। सूरज गुरूब हो चुका था। गांव की मस्जिद से अजान की आवाज आई और मंदिर की घंटियां भी सुनाई दी। माहौल पर रूहानी सुकूत छा गया था। मगर आरोही के दिल में सिर्फ एक ही सदा गूंज रही थी। “दोस्ती वहां निभती है जहां दिल पहचाने जाते हैं। शक्लें नहीं।”

अगली सुबह आरोही ने एक फैसला किया। वह राजू से दोबारा मिलेगी और यह मुलाकात महज शर्मिंदगी की नहीं, सच्चाई और खलूस की होगी। वह उसके दरवाजे पर जाएगी, अपनी अना का खोल उतार कर। वह कोई जवाब मांगने नहीं, सिर्फ माफी मांगने जाएगी।

लेकिन दिल के किसी कोने में एक डर भी था। क्या राजू दोबारा उसके अल्फाज पर यकीन करेगा? क्या एक माफी बरसों की तौहीन का मरहम बन सकती है? क्या वह दरवाजा जो शायद अब रस्मी तौर पर तो खुला है, मगर अंदर से बंद हो चुका है, क्या वह दोबारा खुलेगा?

राजू से माफी

आरोही के कदम धीरे-धीरे राजू के घर की तरफ बढ़ रहे थे। मगर दिल की धड़कन तेज से तेजतर होती जा रही थी। जैसे हर कदम पर जमीर की दस्तक सुनाई दे रही हो। जैसे जमीन के नीचे दबी हुई वह आवाजें जो बरसों से खामोश थीं, आज चीखने लगी हों।

आरोही गेट के सामने रुकी। दरवाजा आज भी खुला था। मगर अंदर खामोशी थी। गहरी, गूंगी और तकलीफदेह। उसने हल्के कदमों से सहन पार किया। दरवाजे पर दस्तक देने का इरादा किया। लेकिन हाथ हवा में ही रुक गया।

उसने गहरी सांस ली। हिम्मत जमा की और आखिरकार दस्तक दी। कुछ लम्हे गुजरे मगर कोई जवाब ना आया। उसने दोबारा दस्तक दी। इस बार आहट सुनाई दी। दरवाजे के पीछे कुछ हरकत हुई और फिर वह खुला।

राजू का जवाब

सामने राजू खड़ा था। मगर यह वह राजू ना था जो अस्पताल के सामने बोसीदा कपड़ों में खड़ा था। यह वर्दी में मलबूस, बावखार और अंदर से सख्त हो चुका राजू था। उसकी आंखों में वही गहराई थी। लेकिन अब उनमें शिकस्त खुर्दगी की बजाय फतेह की चमक थी।

राजू ने दरवाजे के एक तरफ होकर आरोही को आने का इशारा नहीं दिया। नहीं मुस्कुराया। बस एक सीधी नजरें जैसे वह पूछ रहा हो। अब क्या लेने आई हो? आरोही ने नजरें झुकाते हुए आहिस्ता से कहा, “राजू, मैं माफी मांगने आई हूं।”

राजू ने लम्हा भर को आंखें बंद की। जैसे वह यह जुमला पहले ही अपने दिल में सुन चुका था। फिर उसने आहिस्ता से कहा, “माफी।” आरोही ने हां में सर हिलाया। आंखों से आंसू बहते जा रहे थे। “मैंने उस दिन तुम्हारे साथ जो सलूक किया, वह नाकाबिले माफी है। मैंने गरुर में अंधी हो गई थी। मैंने तुम्हें तुम्हारी वर्दी के बिना पहचानने से इंकार किया। तुम्हारी नजरों में वह सच था जो मैं देख नहीं पाई।”

राजू की समझदारी

राजू ने नजरें मोड़कर आसमान की तरफ देखा। शाम का सूरज धीरे-धीरे झुक रहा था। “तुम जानती हो आरोही। उस दिन जब तुमने मुझे धक्का दिया था तो दर्द मेरे जिस्म को नहीं हुआ। दर्द उस वक्त हुआ जब तुमने मेरी पहचान से इंकार किया।”

आरोही ने कपकपाती आवाज में कहा, “जानती हूं और शायद यही मेरी सजा है। मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूं। एक गुनहगार की तरह बस माफी की तलबगार।”

राजू ने गहरी सांस ली। “माफ कर देना मेरे लिए मुश्किल नहीं आरोही। मैं तुम्हें दिल से माफ कर चुका हूं। लेकिन याद रखो, कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो भर तो जाते हैं मगर निशान छोड़ जाते हैं।”

एक नई शुरुआत

आरोही का दिल जैसे जमीन में धंस गया। “क्या हम फिर कभी दोस्त भी नहीं बन सकते?” राजू ने थोड़ी देर सोचा। फिर धीमे लहजे में बोला, “दोस्ती वहां निभती है जहां दिल पहचाने जाते हैं। शक्लें नहीं।”

यह कहते हुए उसने दरवाजा आहिस्ता से बंद करना शुरू किया। आरोही ने बेसाख्ता बढ़कर दरवाजा थामने की कोशिश की। लेकिन राजू ने नरमी से उसका हाथ पीछे कर दिया। “अलविदा, आरोही। और शुक्रिया कि तुमने सच को तस्लीम किया।”

अंत में

दरवाजा बंद हो गया। आरोही दरवाजे के सामने कुछ लम्हे साकेत खड़ी रही। ना रोई, ना बोली। सिर्फ खामोशी थी। एक ऐसा खामोश तूफान जो अंदर सब कुछ बहा ले गया। राजू के अल्फाज आरोही के दिल में तीर की तरह पवस्त हो चुके थे। “शर्मिंदगी का बोझ तुम्हारे दिल पर रहेगा आरोही। लेकिन मेरा दिल अब वही नहीं रहा।”

गांव की खामोश गलियां एक बार फिर अपने मामूल की तरफ लौट चुकी थीं। लेकिन आरोही के अंदर एक तूफान अभी भी थमाना था। राजू के बंद दरवाजे ने उसके अंदर एक ऐसा दरवाजा खोल दिया था जो बरसों से उसके गरूर, लापरवाही और जाहिरी चमक के पीछे छुपा हुआ था।

उसने खुद से वादा किया कि वह अपनी पहचान को फिर से बनाएगी। यही उसकी सच्चाई थी, यही उसका सफर था।

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