इंसानियत की छांव: एक मां, एक सफाई कर्मी और एक अफसर की कहानी
लखनऊ शहर के सबसे बड़े प्राइवेट अस्पताल में सुबह का समय था। गलियारों में भीड़ थी, डॉक्टर और नर्सें मरीजों के इलाज में व्यस्त थीं। उसी भीड़ में एक दुबली-पतली, बीमार सी बुजुर्ग महिला लड़खड़ाते कदमों से अस्पताल के अंदर दाखिल हुई। उसके चेहरे पर थकान, शरीर पर गरीबी का बोझ और आंखों में डर व उम्मीद दोनों थी। उसके कपड़े मैले और फटे थे, हाथ कांप रहे थे।
महिला ने डॉक्टर से गुहार लगाई, “बेटा, मुझे बहुत तेज़ बुखार है। सांस भी ठीक से नहीं ली जा रही। जरा देख लो।” डॉक्टर ने बेपरवाही से पूछा, “पैसे हैं इलाज के?” महिला ने कांपती आवाज़ में कहा, “ना बेटा, पैसे तो नहीं हैं, लेकिन भगवान के लिए मेरा इलाज कर दो।” डॉक्टर का चेहरा सख्त हो गया। उसने सिक्योरिटी को बुलाया और कहा, “इन्हें बाहर निकालो। फ्री का इलाज कराने के लिए हर कोई आ जाता है। हमारे पास टाइम नहीं है।”
सिक्योरिटी गार्ड ने झटके से महिला को पकड़कर धक्का दिया। बेचारी महिला फर्श पर गिर पड़ी। आसपास खड़े लोग तमाशा देखते रहे, कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। महिला दर्द से कराहते हुए अस्पताल के बरामदे में बैठ गई। आंखों से आंसू बह रहे थे, दिल में एक ही सवाल था – क्या मेरी जिंदगी की कीमत सिर्फ पैसे हैं? क्या एक मां इतनी बेसहारा हो सकती है?
इसी बीच वहां से गुजर रहा एक गरीब सफाई कर्मी उसकी हालत देखकर ठिठक गया। उसके हाथ में झाड़ू और कपड़े थे, लेकिन आंखों में इंसानियत थी। वह दौड़कर महिला के पास आया, पानी पिलाया और अपने छोटे से झोपड़े में ले गया। झोपड़ी साधारण थी, टीन की छत, टूटी चारपाई और मिट्टी का फर्श। लेकिन दिल बड़ा था। उसने अम्मा को चारपाई पर बैठाया, उनकी नब्ज देखी और अपनी जेब से दवा खरीद कर लाया।
महिला ने कांपते होठों से कहा, “बेटा, तू गरीब है फिर भी मेरे लिए दवा ले आया। भगवान तुझे सुखी रखे।” सफाई कर्मी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “अम्मा, गरीब हूं तो क्या हुआ? इंसान हूं। इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। आज से आप हमारे घर में रहेंगी।”
धीरे-धीरे महिला की तबीयत सुधरने लगी। लेकिन उसके दिल में गहरा जख्म था। रातों को जागकर रोती और बुदबुदाती, “काश मेरा बेटा मुझे ऐसे बेसहारा ना छोड़ता।” सफाई कर्मी उसकी बातें सुनता था, लेकिन कभी सवाल नहीं करता। उसने अम्मा की सेवा ऐसे की जैसे अपनी मां की करता हो – सुबह उठकर खिचड़ी खिलाता, दवा देता, शाम को हाल पूछता। अम्मा का चेहरा थोड़ा खिलने लगा, लेकिन आंखों में छिपा दर्द अब भी था।
एक दिन सफाई कर्मी ने हिम्मत जुटाकर पूछा, “अम्मा, आप अकेली क्यों हैं? कोई अपना नहीं आपका?” महिला ने कुछ पल खामोशी साधी, फिर आंखों से आंसू ढलक पड़े। कांपती आवाज़ में बोली, “बेटा, मेरे अपने ही मेरे लिए पराए हो गए। सबसे बड़ा दुख यही है।” उसने अपने अतीत के पन्ने खोले – “मेरा एक ही बेटा है। उसके लिए मैंने अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी। पति जल्दी गुजर गए थे। मैं अकेली ही उसे पाल-पोसकर बड़ा करती रही। मजदूरी करके लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा लगाया, उसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया। उसकी पढ़ाई के लिए अपनी नींद, भूख-प्यास सब कुर्बान कर दी। मेरी मेहनत रंग लाई, वह आईपीएस ऑफिसर बन गया।”
महिला का चेहरा गर्व से चमका, लेकिन अगले ही पल मुरझा गया। “बेटा बड़ा अफसर बना। गाड़ी में बैठने लगा, लोग सलाम करने लगे। लेकिन शादी के बाद बहू आई तो सब बदल गया। बहू को मेरा घर में रहना अच्छा नहीं लगता था। उसे लगता था कि मैं बोझ हूं। वह बेटे से कहती, ‘तुम्हारी मां अब बूढ़ी हो गई है, हमेशा बीमार रहती है। मैं उसके साथ नहीं रह सकती।’ शुरू में बेटा मेरा पक्ष लेता था, लेकिन धीरे-धीरे वह भी बहू की बातों में आ गया। एक दिन उसने मुझे वृद्धाश्रम छोड़ आने की बात कही। मैंने रोते हुए कहा, ‘बेटा, मैंने तुम्हारे लिए सब कुछ कुर्बान किया। क्या आज तुम मुझे अपने ही घर से निकाल रहे हो?’ लेकिन उसने मेरी एक ना सुनी। अगले दिन मुझे वृद्धाश्रम छोड़ आया।”
महिला फूट-फूटकर रोने लगी। सफाई कर्मी के दिल पर चोट लगी। उसने अम्मा के कांपते हाथ थामे और बोला, “अम्मा, यह कैसी नाइंसाफी है? जिस मां ने बेटे को अपनी पूरी जिंदगी देकर बड़ा किया, वही बेटा आज आपको वृद्धाश्रम छोड़ आया?” अम्मा ने आंसुओं से भीगी आंखें पोंछते हुए कहा, “हां बेटा, यही सच है। मैंने सोचा था कि मेरी बुढ़ापे की लाठी मेरा बेटा बनेगा, लेकिन उसने मुझे ही बोझ समझ लिया। वृद्धाश्रम में दिल घुटता था। बीमार पड़ी तो सोचा अस्पताल में इलाज हो जाएगा, पर वहां से भी धक्के मारकर निकाल दिया गया।”
सफाई कर्मी की आंखें लाल हो गईं। उसने मन ही मन ठान लिया, “अब यह अम्मा अकेली नहीं रहेगी। जब तक मेरी सांस चलेगी, मैं आपका सहारा बनूंगा।” अम्मा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, तूने मुझे अपनाकर वह दिया है जो मेरे अपने ने छीन लिया। भगवान तुझे खुश रखे।”
वक्त का पहिया बड़ा मोड़ लेने वाला था। एक दिन लखनऊ में स्वच्छता अभियान का बड़ा कार्यक्रम था। मंच पर मुख्य अतिथि के रूप में आईपीएस अधिकारी आदित्य वर्मा को बुलाया गया। आदित्य गर्व से भाषण देने लगा – “हमें गरीबों और बेसहारा लोगों की मदद करनी चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है।” भीड़ तालियों से गूंज उठी। लेकिन उसी वक्त सामने बैठी भीड़ में एक बुजुर्ग महिला की आंखों से आंसू छलक पड़े। यह वही अम्मा थी, जिन्हें कुछ दिनों पहले अस्पताल से धक्का मारकर निकाला गया था और जिन्हें अब सफाई कर्मी सहारा दे रहा था।
अम्मा ने कांपते होठों से कहा, “यह तो मेरा बेटा है।” सफाई कर्मी चौंककर उनकी ओर देखने लगा, “क्या यह अफसर आपका बेटा है?” अम्मा की आंखों में आंसू थे, “हां बेटा, यही मेरा खून है, जिसके लिए मैंने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। लेकिन आज यह मुझे पहचानने से भी कतराता है।”
कार्यक्रम खत्म होने के बाद आदित्य मंच से नीचे उतरा। भीड़ के बीच उसकी नजर अपनी मां पर पड़ी। पल भर के लिए उसका दिल धक से रह गया। चेहरा पीला पड़ गया। मां ने थरथराती आवाज़ में कहा, “बेटा, क्या आज भी तू मुझे देखकर अनजान बनेगा?” भीड़ का शोर सन्नाटे में बदल गया। पत्रकार कैमरे लिए भागे, आदित्य के चेहरे पर शर्म की लालिमा दौड़ गई। उसके कानों में मां की आवाज गूंज रही थी – “बेटा, मैं तेरी मां हूं, जिसने तुझे पाल-पोसकर बड़ा किया, भूख-प्यास भूलकर पढ़ाया और तुझे आज इस वर्दी तक पहुंचाया। लेकिन तूने मुझे ही वृद्धाश्रम में छोड़ दिया।”
भीड़ फुसफुसा रही थी – “क्या यह सच है? एक आईपीएस अफसर ने अपनी मां को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया?” सफाई कर्मी आगे बढ़ा और बोला, “हां, यही सच है। जिस मां ने अपना सब कुछ कुर्बान करके इस बेटे को बनाया, उसी मां को इसने बहू के कहने पर वृद्धाश्रम में छोड़ दिया। अगर मैंने उस दिन अम्मा को अस्पताल से उठाकर अपने झोपड़े में ना ले जाता तो आज शायद यह जिंदा भी ना होती।”
आदित्य के कदम लड़खड़ाने लगे। वह अपनी मां की ओर दौड़ा और उनके पैरों में गिर गया। आंसुओं से उसकी वर्दी भीग गई। “मां, मुझे माफ कर दो। मैं बहुत बड़ा गुनहगार हूं। मैंने पत्नी की बातों में आकर सबसे बड़ा पाप किया। मुझे उस दिन आपको वृद्धाश्रम नहीं छोड़ना चाहिए था।” अम्मा ने कांपते हाथों से बेटे के सिर को उठाया, “बेटा, तुझे माफ कर दूंगी, लेकिन याद रखना – मां-बाप को ठुकराने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता। मेरी पीड़ा तुझे जिंदगी भर याद रहेगी।”
भीड़ की आंखें नम हो गईं। सफाई कर्मी के चेहरे पर भी आंसू थे। लेकिन उसके दिल में संतोष था कि सच्चाई आखिर सामने आ गई। आदित्य ने अपनी मां को उठाया, “मां, आज से आप कहीं और नहीं जाएंगी। मैं आपको अपने घर ले जाऊंगा। इंसानियत की सेवा करके अपनी गलती सुधारूंगा।”
उसकी पत्नी भी चुपचाप खड़ी थी। जब सबकी नजरें उस पर पड़ीं, तो वह रोते हुए बोली, “मां जी, मुझे माफ कर दीजिए। मेरी जिद और गलत सोच की वजह से ही यह सब हुआ। मैंने आपको बोझ समझा जबकि आप तो घर की बरकत थीं।” मां ने भारी मन से कहा, “बहू, अब यह गलती दोबारा मत करना। मां-बाप कभी बोझ नहीं होते।”
अगले दिन आदित्य ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। पत्रकारों ने कैमरे लगाए। आदित्य मंच पर आया, “आज मैं एक आईपीएस अधिकारी नहीं बल्कि एक गुनहगार बेटा बनकर आपके सामने खड़ा हूं। मैंने अपनी मां को पत्नी के दबाव में आकर वृद्धाश्रम छोड़ा। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। मां ने मुझे जन्म दिया, पाला, पढ़ाया और आईपीएस बनाया। लेकिन मैंने ही उन्हें बेसहारा छोड़ दिया। इसके लिए मैं अपनी मां से, समाज से और भगवान से माफी मांगता हूं।”
पूरा हॉल खामोश था। फिर आदित्य ने ऐलान किया, “आज से मैं अपनी मां को घर ले जा रहा हूं। साथ ही एक एनजीओ शुरू करूंगा – ‘मां की छांव’, जिसमें हर बेसहारा मां-बाप, हर भूखा गरीब और हर बेघर इंसान को सहारा मिलेगा। कोई भी मां-बाप सड़कों पर धक्के खाते नजर नहीं आएंगे।”
लोगों ने तालियां बजाई। पत्रकारों ने उसकी बातों को सुर्खियां बना दीं। आदित्य ने सफाई कर्मी की ओर इशारा किया, “इस एनजीओ का नेतृत्व मैं नहीं करूंगा, बल्कि वह इंसान करेगा जिसने मेरी मां को तब सहारा दिया जब मैंने उन्हें ठुकरा दिया था।” सफाई कर्मी भाई को एनजीओ का हेड घोषित किया गया। भीड़ तालियों से गूंज उठी। सफाई कर्मी की आंखों से आंसू बह निकले, “साहब, मैं तो एक छोटा सा आदमी हूं। लेकिन इंसानियत की सेवा का मौका मिलेगा, तो यह मेरे लिए भगवान का आदेश होगा।”
कुछ ही दिनों में ‘मां की छांव’ की चर्चा पूरे लखनऊ में फैल गई। शहर के बड़े लोग, दुकानदार, कॉलेज के छात्र, रिक्शा वाले भी मदद के लिए आगे आए। एनजीओ का पहला केंद्र खुला – साफ-सुथरे कमरे, दवाइयों का इंतजाम, रोजाना भरपेट भोजन। सबसे खास बात – कमान उस सफाई कर्मी के हाथ में थी जिसने इंसानियत का असली फर्ज निभाया था। उसे अब सब लोग भाई साहब कहकर सम्मान देने लगे।
अम्मा अब खुश थी। उनकी आंखों में संतोष था कि बेटा अपनी गलती सुधार चुका है और सफाई कर्मी जैसा नेकदिल इंसान अब सैकड़ों मां-बाप का सहारा बन रहा है। एक दिन अम्मा ने बेटे से कहा, “आदित्य, तूने अपनी गलती मान ली, यही तेरी सबसे बड़ी जीत है। भगवान तुझे आशीर्वाद देंगे।” आदित्य ने मां के पैर छुए, “मां, अगर मैं आपको खो देता तो शायद जिंदगी भर चैन से जी नहीं पाता। अब मेरी पूरी कमाई, पद और ताकत गरीबों और बेसहारों की सेवा में लगेगी।”
धीरे-धीरे एनजीओ का दायरा बढ़ता गया। दूर-दराज से बेसहारा मां-बाप वहां आने लगे। जिनके पास रहने का ठिकाना नहीं था, उन्हें छत मिली। जिनके पास खाना नहीं था, उन्हें भरपेट भोजन मिला। जो अकेलेपन से टूट चुके थे, उन्हें नया परिवार मिल गया। लोग कहते – यह जगह किसी आश्रम से ज्यादा एक सच्चे घर जैसी है।
आदित्य वर्मा अक्सर वहां आकर बुजुर्गों से मिलते, उनका हाल पूछते और सफाई कर्मी को गले लगाकर कहते, “अगर उस दिन तुमने मेरी मां को सहारा ना दिया होता तो मैं इंसानियत का असली रूप कभी ना देख पाता।” सफाई कर्मी विनम्रता से मुस्कुराता, “साहब, मैंने कुछ नहीं किया, यह तो मेरा फर्ज था।”
समाज के लिए यह एनजीओ एक मिसाल बन गया। वहां से हर दिन दुआएं निकलतीं, बुजुर्गों के चेहरों पर मुस्कान लौट आई। अम्मा का चेहरा चमकने लगा, क्योंकि उन्हें अपना बेटा वापस मिल गया था और साथ सैकड़ों नए बेटे-बेटियां भी। एक दिन एनजीओ के कार्यक्रम में आदित्य ने जनता से कहा, “मां-बाप को बोझ समझना सबसे बड़ा पाप है। मैंने अपनी गलती से सीखा है कि मां-बाप को ठुकराने वाला हमेशा अंदर से खाली रह जाता है। लेकिन उनकी सेवा करने वाला इंसानियत का असली सपूत कहलाता है।”
अम्मा ने बेटे और सफाई कर्मी दोनों का हाथ पकड़कर कहा, “याद रखना, इंसान की असली इज्जत पैसे या पद से नहीं होती, बल्कि दूसरों की सेवा और नेकी से होती है।”
भीड़ तालियों से गूंज उठी। हर किसी की आंखें नम थीं, लेकिन दिल में इंसानियत की लौ जल चुकी थी।
इस कहानी से हमें यही संदेश मिलता है – मां-बाप को कभी बोझ मत समझो। उनकी सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। इंसानियत का असली रूप तब सामने आता है जब हम दूसरों की पीड़ा को अपना मानते हैं।
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जय हिंद।
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