कहानी: शैला – सड़क से सितारे तक

जिंदगी में सबसे बड़ी ताकत पैसा नहीं होती, बल्कि वह दिमाग और दिल होता है जो आपको कभी हारने ना दे। नमस्ते और स्वागत है आप सबका इस कहानी में, जो है शैला की – एक 12 साल की बच्ची, जिसकी जिंदगी सड़क पर शुरू हुई, और जिसने इतनी मुश्किलें देखीं जितना शायद हम में से कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

शैला की मां, अमृता, मानसिक रूप से बीमार थीं। उसके पास न कोई पिता था, न घर, न भविष्य की कोई उम्मीद। स्कूल की पढ़ाई भी बस दो साल ही देख पाई थी, जब एक महिला ने उसकी फीस भरी थी। लेकिन वह महिला अचानक चली गई, और शैला की पढ़ाई छूट गई। अब वह अकेली थी, निराश थी, लेकिन उसके पास एक तेज दिमाग था जिसका कोई मोल नहीं था।

सड़क के किनारे बैठी शैला रोज लोगों की गालियां सुनती थी। बाजार की महिलाएं उसके नंगे पैरों के पास थूक देतीं, चिल्लाकर कहतीं – “इन्हें यहां से हटाओ!” शैला चुप रहती थी। बेइज्जती उसकी आदत बन चुकी थी। वह अपनी मां को और जोर से पकड़ लेती। अमृता अक्सर गटर के किनारे बैठी, खुद से बड़बड़ाती रहतीं, कांपते हाथों से मिट्टी में पैटर्न्स बनातीं। उनकी साड़ी आधी गिर चुकी थी, लेकिन उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता था। लोग आते-जाते, घूरते, लेकिन कोई मदद नहीं करता।

बारह साल की शैला की रूह सड़क ने बूढ़ी कर दी थी। लोग उसे “पागल की बेटी”, “गटर वाली लड़की”, “श्रापित बच्ची” कहते थे, लेकिन वह रोती नहीं थी। उसे सबसे ज्यादा दुख इस बात का होता कि लोग सिर्फ तरस खाते, सर हिलाते, लेकिन मदद का हाथ आगे नहीं बढ़ाते। उसने अपनी मां से कभी पापा के बारे में पूछा था, लेकिन अमृता ने खाली नजर से देखा और बात वहीं खत्म हो गई थी।

वे दोनों एक टूटी दुकान के नीचे सोती थीं। उनका मैट्रेस दबा हुआ कार्टन था, कंबल सिर्फ खामोशी। सपने भी भूल चुकी थी शैला। उसकी जिंदगी का मतलब सिर्फ जीवित रहने की लड़ाई थी। हर सुबह अमृता चिल्लाकर उठतीं, हवा में पंजे मारतीं। शैला उन्हें पकड़ लेती – “मैं हूं मां, मैं हूं।” फिर पुराना कपड़ा और गटर का पानी लेकर मां को साफ करती, उन्हें भीख मांगने की जगह पर ले जाती। अमृता भीख मांगतीं, शैला देखती। कभी-कभी लोग कुछ रुपए फेंक देते, लेकिन ज्यादातर गालियां ही मिलती थीं।

एक दिन, बाजार के पास बैठी शैला के पेट में भूख से दर्द था। तभी उसने देखा – एक महिला फूड स्टैंड के पीछे से उसे घूर रही थी। सिंपल साड़ी में, आंखों में सिर्फ तरस नहीं, कुछ और था। कुछ देर बाद वह महिला सड़क पार करके आई – “तुम्हारा नाम क्या है?” शैला ने फुसफुसाया – “शैला।” महिला ने उसकी मां को देखा – “वो बीमार हैं?” शैला ने सिर हिलाया। महिला ने एक ढका हुआ प्लेट आगे बढ़ा दिया – “यह लो, खा लो।” शैला हिचकिचाई, लेकिन महिला ने मुस्कुरा कर कहा – “फिक्र मत करो, मैं दूसरों जैसी नहीं हूं।”

वह पहली बार मौसी लीना से मिली थी। खाना गर्म था, चावल मीठा। उसी शाम मौसी लीना पानी और साबुन लेकर वापस आई, शैला के हाथ धोने में मदद की। शैला ने सब कुछ बता दिया – मां की बीमारी, सड़क की जिंदगी, स्कूल की चाह। मौसी लीना ने उसके हाथ पोंछे – “कल मेरी शॉप पर आना, सफाई में मदद करना, बदले में खाना दूंगी। डील?” शैला ने जोर से सिर हिलाया।

अगली सुबह से शैला ने काम शुरू कर दिया – प्लेट्स धोती, कस्टमर्स को सर्व करती, मौसी लीना को ध्यान से देखती। एक दिन वह काउंटर के नीचे लकड़ी से मिट्टी में नंबर्स लिख रही थी। मौसी लीना ने पूछा – “यह कहां से सीखा?” शैला बोली – “स्कूल को देखकर, टीचर जो कहती थीं, याद कर लिया।” मौसी लीना हैरान थीं – “तुम कभी स्कूल नहीं गई?” “तीन हफ्ते गई थी, आंटी ने फीस दी थी, फिर चली गई।”

तीन हफ्ते बाद मौसी लीना एक गिफ्ट लेकर आई – एक्सरसाइज बुक, पेंसिल्स। कुछ समय बाद, शैला सरकारी स्कूल के क्लासरूम में खड़ी थी। सेकंड हैंड यूनिफार्म पहना था, थोड़ा बड़ा था, लेकिन उसे लगा जैसे क्राउन पहना हो। पहला दिन अजीब था, बच्चे घूर रहे थे, लेकिन जैसे ही टीचर ने सवाल पूछा, शैला ने हाथ उठाकर जवाब दे दिया। सब बदल गया। वह बहुत स्मार्ट थी, हेडमिस्ट्रेस ने पूछा – “इस बच्ची को किसने ट्रेन किया?” शैला हमेशा कहती – “मौसी लीना।”

हर शाम क्लास के बाद वह फिर फूड स्टैंड पर काम करने आती थी, असली इनाम था – मौसी लीना का “गुड गर्ल” कहना। पहली बार शैला को लगा – उसे देखा और प्यार किया गया। लेकिन अचानक सब बदल गया। एक रात मौसी लीना यूके जाने के पेपर्स लेकर आईं – “7 साल के इंतजार के बाद मेरी बहन ने बुला लिया है।” शैला मुस्कुराई – “तो हम सफर कर रहे हैं?” मौसी लीना ने दुखी होकर कहा – “नहीं, सिर्फ मैं। तुम्हारी स्कूल फीस इस साल तक भर दी है, शायद भगवान कोई और मदद भेज देंगे।”

तीन हफ्ते बाद मौसी लीना चली गईं। अगले साल की फीस देने कोई नहीं आया, हेडमिस्ट्रेस ने बुलाकर कहा – “बिना फीस के स्कूल में नहीं रह सकती।” शैला स्कूल गेट के बाहर घंटों खड़ी रही, इंतजार करती रही कि मौसी लीना लौट आएंगी, लेकिन वह कभी नहीं आईं। यूनिफार्म पर धूल थी, बुक बैग कंधे से लगा हुआ, मक्खियां कान के पास गुनगुना रही थीं, लेकिन वह हिली नहीं। आंखें सड़क के उस मोड़ पर टिकी थीं जो खाली ही रहा।

घर भी नहीं था – जहां दुकान थी, वहां अब एक नशे में धुत आदमी था। मां भीख मांगती थी, लेकिन अब वहां दो लड़के थे जो नशा करते थे। सड़कें बदल चुकी थीं, लेकिन मां नहीं बदली थीं। अमृता अब भी पागल थीं – नंगे पैर, हवा में भूत-राक्षस से बात करतीं। शैला ने मां को ढूंढा – अमृता एक मरे हुए कबूतर को गीला सत्तू खिलाने की कोशिश कर रही थीं। “मुझे सुरक्षित जगह ले चलो,” शैला ने कहा, लेकिन मां ने सिर्फ हिस किया और थप्पड़ मार दिया। शैला ने होठ से खून पोंछा, फिर भी उनके बगल में बैठ गई। रात फुटपाथ पर गुजारी।

अगली सुबह फिर से यूनिफार्म पहना, बुक्स को नायलॉन बैग में बांधा, स्कूल वापस चली गई। गेट के बाहर वेट करने लगी – शायद स्कूल वाले अपना मन बदल दें। लेकिन हेडमिस्ट्रेस ने गुस्से से कहा – “फीस नहीं, तो स्कूल नहीं है।” शैला ने मिन्नतें की – “बस पीछे बैठने दो।” महिला ने सर हिलाया – “यह कोई चैरिटी नहीं है, चली जाओ।” शैला दीवार के पास बैठ गई, अपने बुक में इतना रोई कि कागज धुंधले हो गए।

दिन हफ्तों में बदल गए। आखिरी सैंडल्स ₹300 में बेच दी, ब्रेड और सत्तू खरीदा। यूनिफार्म हल्की होकर ग्रे हो गई, एक्सरसाइज बुक बारिश में बर्बाद हो चुका था। लोग अब उसे “स्मार्ट गर्ल” कहना बंद कर चुके थे। अब वह बस एक और सड़क की लड़की थी। लेकिन उसके पास अभी भी एक खजाना था – उसका दिमाग।

शैला खुद को रोक नहीं पाती थी। चाहे लोगों ने उसे कितनी बार भगाया हो, वह हमेशा वापस जाती रही। हर सुबह स्कूल की पीछे की घेरा तक पहुंच जाती थी। एक प्राइवेट स्कूल – उसकी दुनिया से किसी महल जैसा। दीवारों पर गोल्डन पेंट, स्टूडेंट्स ने चमकदार शूज पहने थे। वहां एक खिड़की हल्की सी खुली रहती थी। आम के पेड़ के पीछे छिपकर वह चौक बोर्ड, मैथ प्रॉब्लम्स, टीचर को देखती थी। जवाब मुंह में दोहराती थी। गार्बेज बिन से छोटे पेपर स्क्रब्स जमा करती थी।

एक मंडे टीचर ने देख लिया – फटी हुई लड़की, चमकदार आंखें। “हे, वो कौन है?” महिला चिल्लाई। क्लास में हंसी फूट पड़ी। टीचर दौड़ कर आई – “तुम क्या चाहती हो?” “पढ़ना चाहती हूं, बाहर से सुनने दो।” महिला ने सर हिलाया – “यह कोई चैरिटी नहीं है, चली जाओ।” उसने हार नहीं मानी। अगले दिन एक और स्कूल ढूंढा, फेंस के टूटे हिस्से के बाहर झुक कर सुनने लगी। एक लड़के ने पत्थर फेंका – “चुड़ैल, चली जाओ!” शैला नहीं हिली। फिर भी अगले दिन आई। लेकिन एक दोपहर सिक्योरिटी गार्ड ने घसीटा, धमकाया – “अगर अगली बार देखा, तो मारूंगा।”

शैला लंगड़ती हुई चली गई। पेड़ के नीचे बैठ गई, लकड़ी से मिट्टी में मैथ टेबल्स लिखने लगी। रात को तारों को देखा – “भगवान, आपने मुझे इतना स्मार्ट क्यों बनाया और फिर स्कूल के दरवाजे बंद कर दिए? क्या यह दिमाग सिर्फ कष्ट झेलने के लिए दिया?” कोई जवाब नहीं था।

एक दिन उसने इंटरनेशनल स्कूल के पास जाने का फैसला लिया। साइड फैंस के चारों तरफ रेंगती आई, फूलों के बगीचे के पास से गुजरी, आम के पेड़ के पीछे शांत जगह ढूंढ ली। वहां से खिड़की के जरिए क्लासरूम को देख सकती थी। पेंसिल निकाली, शब्द नायलॉन कबर्ड पर कॉपी करने लगी। तभी पीछे से आवाज आई – “तुम वही लड़की हो जिसे सब भगाते हैं?” शैला का दिल रुक गया। उसकी उम्र की लड़की थी – जिया अग्निहोत्री।

“मैं बस सुन रही थी,” शैला हकलाती हुई बोली। “क्यों?” “पढ़ना चाहती हूं।” जिया और करीब आई – “तुम स्कूल नहीं जाती?” शैला ने कहा – मां बीमार हैं, सड़क पर रहते हैं। जिया ने धीरे से कहा – “लोग मुझ पर भी हंसते हैं, कहते हैं कि मैं डंब हूं, मेरे डैड ने स्कूल को पे किया है…” शैला ने आश्चर्य से देखा – “तुम?” जिया ने सर हिलाया – “क्लास में पढ़ाते हैं, कुछ समझ नहीं आता।”

फिर जिया मुस्कुराई – “क्या तुम बैठना चाहोगी?” शैला घास पर बैठ गई। जिया ने टेक्स्ट बुक निकाली – “मुझे यह पढ़ा सकती हो?” शैला ने fractions समझाए, कुछ ही मिनट्स में जिया सवाल सॉल्व कर रही थी। “आखिरकार समझ आ गया!” जिया हंसी – “तुम सिर्फ स्मार्ट नहीं, amazing हो।”

जब बेल बजी, जिया ने पूछा – “कल आओगी?” शैला हिचकिचाई – “मुझे भगा देंगे।” “यहां इंतजार करो,” जिया ने सिक्योरिटी मैन को बुलाया – “यह मेरी फ्रेंड है, इसका नाम शैला है, कल लंच के टाइम यहां रहेगी, अंदर आने देना। मेरा पापा इस स्कूल के ओनर हैं।”

उस दिन शैला को भरोसा हुआ – ना डर, ना शर्म। हर दिन आम के पेड़ के नीचे मिलते थे – शैला नंगे पैर, फटी गाउन में, जिया प्रेस की यूनिफार्म में। उनकी दोस्ती ठंड में आग की तरह बढ़ी। जिया अब ज्यादा हंसती थी। शैला उसे पढ़ाती थी, जिया ताली बजाती थी – “कोई कभी ताली नहीं बजाता।”

एक दोपहर जिया ने पूछा – “अगर मेरे पापा को पता चला तो?” शैला रुक गई – “तो तुम मुझे भूल जाओगी।” “नहीं, मैं नहीं भूलूंगी।” “अमीर लोग मेरी जैसी लड़कियों के साथ नहीं चाहते।” “तुम शापित नहीं हो, तुम मैजिक हो।”

एक दिन शैला नहीं आई। जिया वेट करती रही। जब आई, तो बोली – “मां ज्यादा बीमार थी, सड़क पर दौड़ने लगी थी, मुझे खींचना पड़ा।” जिया दौड़कर गले लग गई। उस रात शैला ने नोटपैड निकाला – दो स्टिक गर्ल्स, हाथ पकड़े, एक यूनिफार्म में, एक फटे कपड़ों में, दोनों हंस रही थीं।

अगली सुबह जिया लंच बेल पर आम के पेड़ के नीचे वेट कर रही थी। तभी काली SUV आई, जिया का पेट गिर गया – “पापा, वो यहां क्यों हैं?” शैला आई, लेकिन जिया की नजर SUV से निकलते शख्स पर – सेठ अग्निहोत्री, उसके पापा। “यह कौन है?” “यह शैला है, मेरी फ्रेंड, मुझे पढ़ाती है।” “तुम्हारे पेरेंट्स कौन हैं?” “पापा नहीं जानती, मां बीमार हैं, सड़क पर भीख मांगती हैं।” “तुम स्कूल नहीं जाती?” “कोई फीस देने वाला नहीं।”

सेठ अग्निहोत्री पहली बार नरम पड़े – “तुम हर दिन यहां आती रही हो, छिपकर पढ़ाती रही हो?” जिया ने सर हिलाया – “मैं आपको बताना चाहती थी, लेकिन डर गई थी।” “मैं तुम्हें चोट नहीं पहुंचाऊंगा। मुझे तुम्हारी मां के पास ले चलो।”

कार धूल भरी सड़क पर रुकी, कचरे की बदबू। अमृता फुटपाथ पर बैठी थी। सेठ अग्निहोत्री ने धीरे से कहा – “मैडम…” अमृता ने देखा – “तुम यह आदमी लाए हो?” “मैं इनकी मदद करूंगा,” सेठ बोले – “उसे ट्रीटमेंट की जरूरत है।”

डॉक्टर आयशा को फोन, साइकेट्रिक यूनिट, कोई देरी नहीं। फिर शैला की तरफ मुड़े – “आज से तुम सड़क की लड़की नहीं हो।” घुटनों पर बैठकर कहा – “तुम्हारा एक पिता है अब।”

शैला को विश्वास नहीं हुआ। मां को अच्छे हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। शाम तक शैला ने सालों बाद पहली बार ठीक से नहा लिया था। जिया ने नए पजामा दिए। सेठ अग्निहोत्री ने हाउस स्टाफ को बुलाया – “यह शैला है, अब से हमारे साथ रहेगी, वही रिस्पेक्ट देना जो मेरी बेटी को देते हो।”

अगली सुबह शैला जिया के रूम में मिरर के सामने खड़ी थी – क्वीन स्कूल यूनिफार्म, नई, क्रिस्प। “तुम बिल्कुल मेरी तरह लग रही हो,” जिया ने ताली बजाई। “मुझे लगता है जैसे सपना देख रही हूं।” “नहीं, तुम अब मेरे पापा की बेटी हो।”

शैला ने सूरज की रोशनी में देखा – “मुझे समझ नहीं आ रहा कि शुक्रिया कैसे कहूं।” “तो उन्हें चमक कर दिखाओ कि तुम क्या कर सकती हो।” दोनों लड़कियां स्कूल गईं – मैचिंग यूनिफॉर्म्स, मुस्कान। टीचर्स उलझन में – “क्या वो वही सड़क की लड़की नहीं थी?” लेकिन आज वह स्कूल के फाउंडर की बेटी के साथ थी।

क्लास में शैला ने हाथ उठाया – वह सिर्फ अच्छी नहीं, ब्रिलियंट थी। टीचर्स ने प्रिंसिपल से कहा – “यह लड़की असाधारण है।” “सड़क से, लेकिन अब फैमिली है।”

इधर मिस्टर अग्निहोत्री ने अपना वादा निभाया – अमृता को प्राइवेट साइकेट्रिक केयर में रखा गया। डॉक्टर आयशा ने भरोसा दिया – “अमृता की कंडीशन ठीक हो सकती है।” शैला हफ्ते में एक बार मां से मिलने जाती थी। पांचवी विजिट पर अमृता रुकी – “तुम आसमान जैसी लगती हो।”

हफ्ते गुजर गए। शैला एडजस्ट हो गई, क्लास में बोलती थी, नए फ्रेंड्स बनाए, जिया के ग्रेड्स आसमान छू रहे थे। वे बहनें थीं – खून से नहीं, बॉन्ड से।

एक दिन मिस्टर अग्निहोत्री ने शैला को स्टडी रूम में बुलाया – “तुमने मेरी बेटी की जिंदगी बदल दी, मेरी भी।” नया टेबलेट दिया – “थैंक यू सर, थैंक यू मुझे देखने के लिए।” “तुम कभी इनविज़िबल नहीं थी, तुम्हें बस किसी की जरूरत थी जो करीब से देखे।”

रात को शैला गार्डन में आम के पेड़ के नीचे बैठी – “मेरा नाम शैला है, जिया की फ्रेंड, स्कूल की स्टूडेंट, और अब मेरा एक पापा है।” उसने आंखें बंद की – “भगवान, मां को ठीक करो, मुझे स्कूल भेजो, एक फ्रेंड दे दो। आपने सब दिया। मैं वादा करती हूं – यह मौका वेस्ट नहीं करूंगी।”

और इस तरह वह लड़की, जिसे दुनिया “पागल महिला की बेटी” कहती थी, भरोसे का प्रतीक बन गई। उसका भविष्य खुल चुका था।

क्या लगता है दोस्तों? हर जिंदगी में संभावना होती है। दया, मौका और शिक्षा से सबसे भूला हुआ इंसान भी आगे बढ़ सकता है। शैला की कहानी हमें याद दिलाती है कि एक छोटा सा दया का काम गरीबी और रिजेक्शन के साइकिल को तोड़ सकता है। सच्ची महानता इसमें है कि आप क्या करते हैं, जब कोई आपको देखता है।

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