सौतेले बेटे को साइकिल से भेजा स्कूल सगे को कार में..लेकिन सालों बाद मंच पर जो हुआ सबकी आँखें भर आईं”
.
.
हर सुबह उस पुराने गांव वाले मकान में दो तस्वीरें उभरती थीं — एक जैसे समय में, पर बिल्कुल अलग रंगों की।
आंगन में राहुल तैयार खड़ा होता — चमचमाती यूनिफॉर्म, नया स्कूल बैग, पापा की नीली स्कॉर्पियो आने ही वाली होती। मां रेखा कभी उसके कॉलर ठीक करती, कभी हाथ में जूस का गिलास पकड़ा देती, फिर माथे पर प्यार से चूमकर कहती, “जा बेटा, अच्छे से पढ़ाई करना।”
उसी वक्त, घर के पिछवाड़े वाले दरवाज़े से अंकित निकला करता — हाथ में मुड़ी-तुड़ी कॉपी, पैरों में घिसी हुई चप्पलें, और एक पुरानी साइकिल जिसे चलाने से ज़्यादा, धक्का देने में ताक़त लगती थी। मां तो बरसों पहले चली गई थी, और पिता? वो तो घर में होते हुए भी जैसे सिर्फ राहुल के ही थे।
कोई पूछे तो कहेंगे, दोनों भाई हैं — लेकिन हालात बताएं तो जैसे एक बेटा है, दूसरा सिर्फ किरायेदार। अंकित के हिस्से में न मां का दुलार था, न बाप की परवाह। वो बस उसी छत के नीचे जी रहा था — जैसे किसी और की कहानी का भूला-पिसरा किरदार।
“तेरा ध्यान पढ़ाई पर नहीं है अंकित। राहुल को देख कितना होशियार है। तुझसे तो कुछ नहीं बनेगा।” सुरेश अक्सर कहता।
अंकित बस चुपचाप सुन लेता, ना उत्तर देता, ना आंख उठाता। वह जानता था – यह घर उसका नहीं है, लेकिन सपने उसके अपने थे।
राहुल स्कूल के बाद ट्यूशन जाता, उसके लिए घर पर कोचिंग टीचर आते। वहीं अंकित पास के चाय के ठेले पर कप धोता, कुछ रुपए इकट्ठे करता ताकि किताबें खरीद सके। रात को जब सब सो जाते, तब वह पुरानी किताबें, टूटा पेन और जलती माचिस की तीली जितनी उम्मीद के साथ पढ़ाई करता।
एक दिन कड़ाके की सर्दी में राहुल गर्म जैकेट पहनकर कार में बैठा। उसने अंकित को देखा, जो साइकिल के पैडल पर पैर जमाने की कोशिश कर रहा था – नंगे पैर, लाल पड़े हुए।
रेखा हंसते हुए बोली, “भगवान ने इस घर में मुफ्त का बोझ भेजा है।”
सुरेश ने हंसकर कहा, “चलो, कम से कम झाड़ू-पोछा कर लेता है।”
अंकित ने कुछ नहीं कहा, बस अपनी साइकिल उठाई और ठंडी हवा में स्कूल की ओर निकल गया।
साल बीतते गए। राहुल कॉलेज में था, पढ़ाई में ढीला, पैसे खर्च करने में आगे।
अंकित ने स्कॉलरशिप के दम पर आगे की पढ़ाई की। वह संघर्ष करता रहा, बिना शिकायत के। कभी किताबें उधार लेकर पढ़ता, कभी स्टेशन पर बैठकर नोट्स बनाता।
गांव वालों को अब भी लगता – सौतेला है, कहां जाएगा? राहुल ही आगे बढ़ेगा।
कोई नहीं जानता था कि अंकित हर ताने को ईंधन बना रहा था।
अब कहानी उस मोड़ पर आ गई, जहां किस्मत भी चुप हो गई।
एक बड़ा सरकारी आयोजन – “यूथ आइकॉन ऑफ इंडिया” पुरस्कार समारोह।
देशभर से चुने गए युवाओं को सम्मानित किया जाना था।
गांव के ही किसी लड़के का नाम लिस्ट में आया। मीडिया में चर्चा थी – कौन है ये?
टीवी स्क्रीन पर तस्वीर आई – रेखा और सुरेश की आंखें फटी की फटी रह गईं।
स्टेज पर खड़ा था – अंकित।
समारोह राजधानी दिल्ली में भव्य हॉल, चमचमाती लाइट्स, कैमरे की फ्लैश।
मंच पर एक के बाद एक नामों की घोषणा हो रही थी।
फिर एंकर की आवाज गूंजी – “इस साल का सबसे प्रतिष्ठित सम्मान यूथ आइकॉन ऑफ इंडिया दिया जा रहा है उस युवा को जिसने संघर्ष को साधना बना लिया, जिसने गरीबी, भेदभाव और अपमान के बीच भी हार नहीं मानी – प्लीज वेलकम आईएएस अधिकारी श्री अंकित वर्मा।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
काले सूट में आत्मविश्वास से भरे चेहरे के साथ अंकित मंच पर चढ़ा।
वही अंकित, जिसे पिता ने कहा था – तुझसे कुछ नहीं होगा।
जिसने बचपन में दूसरों के फेंके पुराने जूते पहने थे, अब खुद मंच पर चमचमाते जूतों में खड़ा था।
राहुल, रेखा और सुरेश टीवी स्क्रीन के सामने चुप खड़े थे।
रेखा के चेहरे पर अविश्वास, सुरेश की आंखें झुकी हुई, राहुल का मुंह खुला रह गया।
कभी जिसे उन्होंने बोझ समझा था, वही अब देश के सबसे बड़े मंच पर था।
मंत्री, उद्योगपति, सब अंकित के संघर्ष की सराहना कर रहे थे।
एक इंटरव्यू में पत्रकार ने पूछा – “इतनी विपरीत परिस्थितियों में इतना कुछ कैसे हासिल किया?”
अंकित मुस्कुराया – “मैंने कभी किसी से सवाल नहीं किया, बस अपने आप से वादा किया था – खामोशी से चलूंगा, लेकिन जब चलूंगा तो दुनिया सुनेगी।”
कार्यक्रम के बाद सुरेश, रेखा और राहुल धीरे-धीरे अंदर आए।
सुरेश की चाल धीमी, चेहरा शर्म से झुका हुआ।
रेखा की आंखों में पछतावा, अब कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी।
राहुल, जो कभी ब्रांडेड कपड़ों और कारों का राजा था, अब अपने सौतेले भाई को सूट-बूट में देखकर छोटा महसूस कर रहा था।
अंकित ने दूर से ही उन्हें देख लिया।
कुछ पल को उसकी सांस थमी।
बचपन की सारी यादें किसी फिल्म की तरह आंखों के सामने दौड़ने लगीं – टूटी साइकिल, तानों से भरी चाय की दुकानें, नंगे पैर की ठंड, चुपचाप रोती रातें।
लेकिन उसके चेहरे पर नफरत नहीं, बल्कि एक शांत मजबूत मुस्कान थी।
वो मंच से नीचे उतरा।
लोगों ने सोचा – शायद अब वह उन्हें नजरअंदाज कर देगा।
लेकिन नहीं, अंकित धीरे-धीरे चला और जाकर अपने पिता सुरेश के सामने रुक गया।
कुछ नहीं कहा, बस झुका और उनके पैर छुए।
सुरेश कांप उठा – “माफ कर दे बेटा, मैंने तुझे कभी अपना नहीं माना। लेकिन आज तूने मुझे शर्मिंदा कर दिया।”
रेखा की आंखों से आंसू बहने लगे – “हमने तुझे वो नहीं दिया जो तुझे मिलना चाहिए था, फिर भी तूने हमें सब कुछ दे दिया।”
अंकित ने सिर उठाकर कहा – “आपने जो नहीं दिया वही मेरी ताकत बना। मैं टूट सकता था, लेकिन मैंने खुद को जोड़ना चुना। आपने मुझे भुलाया, लेकिन मैं आपको माफ नहीं करूंगा क्योंकि मैंने कभी गुस्सा पाला ही नहीं।”
पूरा हॉल चुप था।
सिर्फ आंखों से बहते आंसुओं की नमी थी।
आयोजकों ने कहा – “अगर अंकित जी चाहें तो देश के युवाओं के लिए एक आखिरी संबोधन दें।”
अंकित थोड़ी देर चुप रहा, फिर माइक की ओर बढ़ा।
मंच पर खड़े उस युवक के चेहरे पर ना घमंड था, ना बदला।
बस एक शांति थी, जो लंबी लड़ाई जीतने के बाद मिलती है।
उसने माइक पकड़ा –
“मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि आज मुझे इतना सम्मान मिला। लेकिन यह जीत सिर्फ मेरी नहीं है, यह हर उस बच्चे की है जिसे कभी उसके घर में ही पराया बना दिया गया।
मैं एक ऐसा बच्चा था जिसे उसके अपने घर में दूसरे दर्जे का दर्जा दिया गया। मेरे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ, सिर्फ मुझे अनदेखा किया गया।
पर कभी-कभी सबसे बड़ी तकलीफ वही होती है जब आपको देखकर भी लोग अनदेखा कर दें।
मेरे पास नई किताबें नहीं थी, लेकिन सीखने की आग थी।
मेरे पास गर्म कपड़े नहीं थे, लेकिन हिम्मत थी।
मैंने हर ताना, हर चुप्पी, हर बेइज्जती को अपने सपनों की सीढ़ी बना लिया।”
अब उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन वह मुस्कुरा रहा था।
“आज जो लोग मेरे पास आकर माफी मांग रहे हैं, मैं उन्हें दोष नहीं देता।
वह खुद टूटी सोच के शिकार थे।
मैं यहां खड़ा हूं यह साबित करने के लिए कि किसी बच्चे की काबिलियत उसके खून से नहीं, उसकी सोच और संघर्ष से तय होती है।”
तालियां गूंजने लगीं।
लेकिन इस बार वह तालियां सिर्फ शोर नहीं थी, वह हर उस बच्चे की आवाज थी जिसे कभी कमजोर समझा गया था।
वहीं एक कोने में सुरेश के आंसू रुक नहीं रहे थे।
रेखा बुरी तरह रो रही थी।
राहुल पहली बार उठा और अंकित के पास गया – “भाई, तू सच में बड़ा हो गया है और हम बहुत छोटे रह गए।”
अंकित ने उसके कंधे पर हाथ रखा – “तू तब छोटा नहीं था, बस समझ से दूर था। आज अगर तू समझ गया है तो तू भी बड़ा हो गया।”
कार्यक्रम के बाद एक छोटा बच्चा मंच के पास आया – “सर, क्या आप सच में कभी साइकिल पर स्कूल जाते थे?”
अंकित मुस्कुराया – “हां बेटा, कभी साइकिल भी नहीं थी, कभी नंगे पैर भी गया हूं।”
बच्चा बोला – “तो फिर आप इतने बड़े कैसे बन गए?”
अंकित ने झुक कर कहा – “मैं कभी दूसरों से आगे नहीं भागा बेटा, मैंने बस खुद से आगे बढ़ना सीखा।”
अगले दिन की अखबारों में सिर्फ एक ही नाम था –
आईएएस अंकित वर्मा, एक सौतेले बेटे की खामोश जीत।
उसने बदले में बदला नहीं, इज्जत लौटाई।
टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर हर जगह अंकित की कहानी वायरल थी।
बच्चे-बच्चे की जुबान पर एक ही बात – “यह वही लड़का है जो नंगे पैर स्कूल जाता था।”
कुछ दिन बाद अंकित अवकाश पर गांव लौटा।
वह किसी कार में नहीं, बल्कि साइकिल पर बैठकर उसी पुराने रास्ते से गुजरा।
वो टूटी सड़क, चाय की दुकान, पेड़ जिसके नीचे वह पढ़ाई करता था।
गांव में हलचल मच गई।
लोग दरवाजे से झांकते, बच्चे पीछे दौड़ते – “मम्मी, वह अंकित भैया हैं, आईएएस अंकित।”
वह उसी घर के सामने रुका, जहां कभी उसके लिए एक गिलास पानी भी झर के बराबर था।
दरवाजा खोला तो सामने रेखा खड़ी थी।
अब उसके चेहरे पर ताने नहीं, सिर्फ शर्म, मौन और आंसू थे।
“अंदर आओ बेटा।”
अंकित ने सिर झुकाया – “अब मैं बेटा हूं, तब तो मेहमान भी नहीं था।”
रेखा की आंखें बहने लगीं – “हमसे बहुत बड़ी गलती हुई, लेकिन तूने हमें माफ करके जो ऊंचाई पाई है वही हमारी असली सजा है।”
तभी सुरेश सामने आया — वही पिता, जिसने कभी उसे उसके नाम से नहीं पुकारा था, बस मौजूद रहा, जैसे किसी दूर के रिश्ते की तरह।
धीरे से कहा, “बेटा… शायद मैं वो पिता नहीं बन पाया, जो तुझे मिलना चाहिए था। तेरे जैसे बेटे के सामने मुझे बाप कहलाने का हक नहीं। मगर क्या आज… तू एक बार फिर, वैसी ही चाय बना सकता है? जैसी तू बचपन में मुझे पकड़ा देता था?”
अंकित की आंखें भीग गईं, पर होंठों पर हल्की मुस्कान उभर आई — “जरूर पापा। पर अब चाय अकेले आपके लिए नहीं होगी… सब साथ बैठेंगे, साथ पीएंगे।”
कुछ ही समय बाद, अंकित ने गांव के सरकारी स्कूल को गोद लिया। वहां की दीवारें रंगीं, फर्नीचर बदला, और बच्चों की आंखों में पहली बार आत्मविश्वास की चमक दिखी।
किसी सभा में उसने कहा —
“अब इस गांव में कोई बच्चा साइकिल के बिना स्कूल नहीं छोड़ेगा। और अब किसी को ‘कमतर’ नहीं समझा जाएगा — ना गरीबी की वजह से, ना रिश्तों के नाम पर।”
आज स्कूल के गेट पर एक नया बोर्ड लगा है —
“यह स्कूल उस बच्चे की सोच से बदला है, जिसे कभी अपने नाम से भी नहीं पुकारा गया था।”
यहां बच्चों को उनके खून से नहीं, उनके जुनून से पहचाना जाता है।
News
MİLYONER eve erken döndü, ÜVEY ANNENİN KIZINI TEKMELEDİĞİNİ gördü — yaptığı şey herkesi ŞOK ETTİ.
MİLYONER eve erken döndü, ÜVEY ANNENİN KIZINI TEKMELEDİĞİNİ gördü — yaptığı şey herkesi ŞOK ETTİ. . . Kayıp ve Yeniden…
Üvey Baba HASTANEDE küçük KIZI Ziyaret Etti — HEMŞİRE bir GARİPLİK fark ETTİ ve hemen 113’ü ARADI
Üvey Baba HASTANEDE küçük KIZI Ziyaret Etti — HEMŞİRE bir GARİPLİK fark ETTİ ve hemen 113’ü ARADI . . Yeniden…
Küçük kız ÇIĞLIK ATTI ve YALVARDI: “Artık DAYANAMIYORUM!” Ta ki MİLYONER eve gelip BAĞIRANA kadar…
Küçük kız ÇIĞLIK ATTI ve YALVARDI: “Artık DAYANAMIYORUM!” Ta ki MİLYONER eve gelip BAĞIRANA kadar… . . Neva’nın Hikayesi Bölüm…
वेटर ने बिना पैसे लिए बुजुर्ग को खाना खिलाया, होटल से धक्के खाए, मगर अगले दिन जो हुआ, वो रोंगटे
वेटर ने बिना पैसे लिए बुजुर्ग को खाना खिलाया, होटल से धक्के खाए, मगर अगले दिन जो हुआ, वो रोंगटे…
जब दरोगा ने डीएम मैडम को मारा जोरदार थपड़ फिर जो हुआ।
जब दरोगा ने डीएम मैडम को मारा जोरदार थपड़ फिर जो हुआ। . . कविता का संघर्ष भाग 1: एक…
जिसे इंटरव्यू से जलील कर निकाला गया… 7 दिन बाद उसने पूरी कंपनी खरीद ली
जिसे इंटरव्यू से जलील कर निकाला गया… 7 दिन बाद उसने पूरी कंपनी खरीद ली . . अनन्या की उड़ान…
End of content
No more pages to load