माँ के सम्मान की कहानी – सावित्री देवी और उनका परिवार
कहते हैं जिस घर में माँ की इज्जत नहीं होती, वहाँ खुशियाँ टिकती नहीं। लेकिन शहर की एक ऊँची बिल्डिंग के फ्लैट में रहने वाली सावित्री देवी, उम्र लगभग 70 साल, इस कड़वी सच्चाई को रोज़ जी रही थीं।
सावित्री देवी के बेटे आनंद की शादी को पाँच साल हो चुके थे। शादी के शुरुआती दिनों में सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे बहू कविता का असली रंग सामने आने लगा। कविता पढ़ी-लिखी, स्मार्ट थी लेकिन दिल से घमंडी और ताने कसने वाली। सुबह-सुबह जैसे ही सावित्री देवी रसोई में जातीं, कविता तेज़ आवाज़ में आदेश देती — “अरे अम्मा, जल्दी कीजिए! चाय भी बनाइए, नाश्ता भी तैयार कीजिए। यहाँ होटल थोड़े ही खुला है कि जब मन आए खाना मिलेगा।”
उनकी कमजोर कलाइयों से बर्तन गिर जाते तो बहू मेहमानों के बीच कह देती — “देखिए ना, इनसे काम होता नहीं, फिर भी जिद करती हैं कि घर में रहना है।” सबके सामने यह अपमान सुनकर सावित्री देवी की आँखें भर आतीं, लेकिन वह चुप रह जातीं। बेटे आनंद की तरफ देखतीं, उम्मीद करतीं कि वह कुछ कहेगा, पर आनंद हमेशा पत्नी का साथ देता। कभी-कभी तो कह भी देता — “अम्मा, अगर घर में रहना है तो काम करना पड़ेगा, वरना आप बोझ बन जाएँगी।” यह शब्द सावित्री देवी के दिल को चीर देते, लेकिन उन्होंने कभी आवाज़ ऊँची नहीं की।
शाम को जब पड़ोसी या रिश्तेदार आते, तो कविता मीठे लहजे में मुस्कुराते हुए बातें करती। बाहर की दुनिया के लिए वह परफेक्ट बहू थी, लेकिन दरवाजा बंद होते ही वही कविता बन जाती, जो ताने, अपमान और जहर से भरे शब्द बोलती थी।
एक बार तो हद ही हो गई। घर में रिश्तेदारों की दावत थी। सब लोग खाने की मेज़ पर बैठे थे। सावित्री देवी थकान से पसीने-पसीने होकर परोस रही थीं। तभी कविता ज़ोर से हँसते हुए बोली — “अरे, इन्हें बैठने मत दीजिए। यह तो हमारे घर की नौकरानी जैसी हैं। सबके लिए काम करना ही इनका काम है।” मेहमान कुछ कह न सके, लेकिन माहौल अचानक बोझिल हो गया। सावित्री देवी के हाथ काँपने लगे, उनकी आँखों से आँसू टपकने लगे, पर उन्होंने अपना चेहरा नीचे कर लिया ताकि कोई देख न पाए। बेटा आनंद भी चुप रहा, मानो माँ की इज्जत उसकी नज़र में कोई मायने ही न रखती हो।
उस रात सावित्री देवी देर तक अपने कमरे में अकेली बैठी रहीं। घुटनों पर सिर टिकाए उन्होंने सोचा — क्या माँ होना सच में बोझ है? क्या मेरी सारी ज़िंदगी की कुर्बानियाँ सिर्फ अपमान में बदलनी थीं? लेकिन उनकी आँखों में आँसू के साथ एक चमक भी थी — आत्मसम्मान की। उन्होंने ठान लिया था, कल की सुबह एक नया सच लेकर आएगी।
अगले दिन रविवार था। आनंद और कविता ने तय किया कि परिवार और कुछ दोस्तों के साथ शहर के सबसे बड़े और नामी रेस्टोरेंट में लंच किया जाए। दोस्तों के सामने अपनी हैसियत दिखाना कविता को बहुत पसंद था। सुबह से ही वह तैयारियों में लगी रही — सबसे महंगी साड़ी पहनी, गहने सजाए और दोस्तों को फोन करके याद दिलाया कि आज हम सबको सिटी का बेस्ट रेस्टोरेंट दिखाएँगे।

सावित्री देवी ने चुपचाप हल्की सी सूती साड़ी पहनी और पुराने चप्पल डाल लिए। बहू ने उन्हें देखकर ताना मारा — “अम्मा, आप ऐसे ही जाएँगी? ज़रा तो देख लीजिए, यह कोई सब्ज़ी मंडी थोड़े ही है!”
सावित्री देवी ने धीमे स्वर में कहा — “बेटी, मेरे लिए यही काफी है। मैं तुम्हारे साथ ही जा रही हूँ, यही मेरी खुशी है।”
कविता ने आँखें घुमाई और दोस्तों के सामने मुस्कुरा कर कहा — “क्या करें, अम्मा का स्टाइल ही अलग है।”
दोनों परिवार और दोस्त कार से निकल पड़े। रास्ते भर कविता दोस्तों से अपने पति के प्रमोशन और घर के आलीशान इंटीरियर की बातें करती रही।
सावित्री देवी खिड़की से बाहर देखती रहीं, मानो मन ही मन कुछ सोच रही हों।
जब गाड़ियाँ शहर के सबसे बड़े रेस्टोरेंट के सामने रुकीं तो सबकी आँखें चमक उठीं। ऊँची-ऊँची काँच की दीवारें, चमचमाते झूमर और दरवाजे पर खड़े यूनिफार्म में सुरक्षा गार्ड।
जैसे ही आनंद और कविता अंदर दाखिल हुए, वेटरों ने विनम्रता से स्वागत किया। सब दोस्त और परिवार आराम से बैठ गए। हॉल में हर टेबल पर रौनक थी — अमीर परिवार, बिजनेसमैन, बड़े अफसर सब मौजूद थे।
लेकिन तभी कुछ अजीब हुआ। अचानक हॉल का माहौल बदल गया। वेटर जो मेज़ पर पानी परोस रहे थे, अचानक सीधा खड़े हो गए। स्टाफ की आँखों में हैरानी और सम्मान था।
मैनेजर तुरंत दौड़ता हुआ दरवाजे की ओर गया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कविता ने भौंहें चढ़ाकर कहा — “अरे, यह सब क्यों हो रहा है? कोई बड़ा वीआईपी आया लगता है।”
आनंद ने भी गर्दन घुमाकर दरवाजे की ओर देखा। दोस्तों ने कानाफूसी शुरू कर दी।
दरवाजे से एक महिला अंदर दाखिल हुई। वह साधारण सी साड़ी में थी, चेहरे पर शांति और आँखों में अजीब सी चमक।
पूरा स्टाफ झुककर उन्हें सलाम कर रहा था। आनंद और कविता की आँखें चौंधिया गईं।
वह महिला कोई और नहीं, उनकी माँ सावित्री देवी थीं।
रेस्टोरेंट का मैनेजर हाथ जोड़कर बोला — “मालकिन जी, आपका स्वागत है। हमने सोचा भी नहीं था कि आप अचानक आ जाएँगी।”
सारी भीड़ जो अभी तक हँस-हँस कर बातें कर रही थी, अचानक चुप हो गई। सबकी नजरें उस महिला पर थीं जिसे परिवार नौकरानी समझ कर लाया था।
कविता का चेहरा सफेद पड़ गया। दोस्तों ने एक-दूसरे को देखकर फुसफुसाना शुरू कर दिया — “मालकिन मतलब यह वही हैं? ओ, तो यह पूरे रेस्टोरेंट की ओनर हैं!”
आनंद के पैरों तले जमीन खिसक गई। माँ जिन्हें वह बोझ समझता था, इस शहर के सबसे बड़े रेस्टोरेंट की मालिक निकलीं।
सावित्री देवी धीरे-धीरे परिवार की टेबल की ओर बढ़ीं। उनकी चाल में ना तो गुस्सा था, ना बदला। बस एक गरिमा थी, एक सन्नाटा जो पूरे हॉल को झकझोर रहा था।
कविता कुर्सी से उठ भी ना सकी, उसके हाथ काँप रहे थे। आनंद ने नजरें झुका ली।
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। हर कोई खड़ा हो गया सम्मान में।
लेकिन सावित्री देवी की आँखें सीधी अपने बेटे और बहू पर टिकी थीं।
रेस्टोरेंट के हॉल में जैसे तूफान थम गया हो।
हर किसी की नजर अब सिर्फ सावित्री देवी पर थी।
उनका बेटा आनंद कुर्सी से खड़ा तो हुआ, लेकिन शब्द गले में अटक गए।
कविता ने चेहरा छुपाने की कोशिश की, लेकिन अब सबकी आँखें उसी पर टिकी थीं।
मैनेजर ने आदरपूर्वक कहा — “मालकिन जी, आपके लिए वीआईपी टेबल तैयार है।”
लेकिन सावित्री देवी ने हाथ उठाकर रोका और शांत स्वर में बोलीं — “नहीं, मैं आज अपने परिवार के साथ ही बैठूँगी।”
उनके इस एक वाक्य ने सबको झकझोर दिया। वही परिवार जिसने उन्हें घर में नौकरानी की तरह इस्तेमाल किया था, आज उसी के साथ बैठने का ऐलान उन्होंने पूरे शहर के सामने कर दिया।
कविता का चेहरा लाल पड़ गया। उसके दोस्त आपस में खुसरपुसर करने लगे — “तो यह उनकी सास हैं! हम सोच भी नहीं सकते थे। वाह, और यह इन्हें घर में नौकर समझती थी।”
आनंद का गला सूख गया। माँ की नजरों में उसे अपना ही अक्स दिखाई दे रहा था — एक बेटा जिसने माँ का सहारा बनने की बजाय उसे बोझ समझ लिया था।
धीरे-धीरे सावित्री देवी ने बोलना शुरू किया। उनकी आवाज़ भले ही धीमी थी, लेकिन हॉल के हर कोने तक गूंज रही थी —
“कभी सोचा नहीं था कि मेरे ही घर में मेरी ही परवरिश का नतीजा यह दिन देखना पड़ेगा। माँ को मानकर उसे नौकर समझ लिया जाएगा। बेटे, यह घर मैंने प्यार से बनाया था। लेकिन तुमने उसे अहंकार और अपमान का अड्डा बना दिया।”
आनंद के आँसू छलक पड़े। वह माँ के पैरों में झुकना चाहता था, लेकिन सावित्री देवी ने हाथ के इशारे से रोका — “रुको। माफी मांगना आसान है, लेकिन सम्मान देना कठिन। मैं यह सजा तुम्हें और तुम्हारी पत्नी दोनों को देना चाहती हूँ ताकि तुम्हें समझ आए कि माँ-बाप का अपमान करने वाले का सिर कभी ऊँचा नहीं होता।”
कविता काँपते हुए बोली — “माँ जी, मुझे माफ कर दीजिए। मुझसे गलती हो गई।”
लेकिन सावित्री देवी की नजरों में आँसू थे, पर शब्दों में सख्ती —
“गलती तब होती है जब इंसान अनजाने में कुछ कर दे। लेकिन तुमने जो किया वह सोच-समझकर किया। रोज़-रोज़ के अपमान, ताने और जिल्लत — यह सब गलती नहीं, तुम्हारे स्वभाव का हिस्सा थे।”
भीड़ अब पूरी तरह चुप थी। कोई आवाज़ नहीं, सिर्फ सावित्री देवी की सच्चाई गूंज रही थी।
वहाँ खड़े बच्चे जो अपने दादा-दादी के साथ आए थे, अपनी माँओं से पूछ रहे थे — “माँ, दादी को क्यों इतना परेशान किया?”
माएँ चुप थीं, आँखें नीची।
तभी सावित्री देवी ने उस छोटे वेटर को बुलाया जिसने कल ही उन्हें चुपके से पानी दिया था जब कविता ने सबके सामने अपमानित किया था।
वह लड़का काँपते हुए सामने आया।
सावित्री देवी ने कहा — “बेटा, तुमने मुझे कल इंसान समझा और वही इंसानियत है जो इस होटल को आगे बढ़ाती है। याद रखना, दूसरों का अपमान करके कभी कोई बड़ा नहीं बनता।”
लड़के की आँखें नम हो गईं। हॉल में तालियाँ गूंज पड़ीं।
आनंद अब माँ के सामने घुटनों के बल बैठ गया — “माँ, मैंने बहुत गलत किया। मुझे माफ कर दो। मैं आपकी मेहनत और आपकी पहचान कभी समझ ही नहीं पाया।”
कविता भी उसके पीछे-पीछे घुटनों के बल बैठ गई — “माँ जी, मुझे शर्म आ रही है। मैंने आपको हमेशा बोझ समझा, लेकिन आज पता चला कि आप हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं।”
सावित्री देवी की आँखों से आँसू बह निकले। उन्होंने दोनों की ओर देखा और कहा —
“माँ कभी दुश्मन नहीं होती बेटा। लेकिन जब माँ को तिरस्कार मिलता है तो उसका दिल पत्थर बन जाता है। याद रखना, घर प्यार से चलता है, तानों से नहीं। आज तुम लोगों ने जो किया वह सिर्फ मेरा नहीं, इंसानियत का अपमान है।”
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