बारिश में बेसहारा महिला ने सिर्फ एक रात की पनाह मांगी थी, उस दिन जो हुआ… इंसानियत रो पड़ी
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भूमिका
बारिश में भींगती महिला ने करोड़पति आदमी से सिर्फ एक रात की पनाह मांगी थी। उस रात जो हुआ, इंसानियत रो पड़ी और यह आज की समाज की सच्चाई भी है और आज के समाज के लिए एक आईना भी। पूरी कहानी जानने के लिए ध्यान से पढ़ें, क्योंकि यह एक सच्ची कहानी है उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कस्बे कपिलेश्वर की।
बारिश की रात
काले बादल उमड़ पड़े थे और तेज बारिश ने पूरे इलाके को भिगो दिया था। हर कोई अपने-अपने घरों में दुबका बैठा था। लेकिन उसी बरसाती रात एक महिला अपने छोटे बच्चे के साथ भटक रही थी। महिला का नाम था सुजाता। उसकी उम्र मुश्किल से 25-26 साल होगी। चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी और कपड़े पूरी तरह भीग चुके थे। गोद में उसका बेटा था आरव, बस 4 साल का। मासूम चेहरा, ठंड से कांपते होंठ और आंखों में भूख की झलक।
सुजाता का अतीत
सुजाता की जिंदगी बहुत आसान नहीं थी। उसने अपने पति रजत से प्यार किया और उसी से शादी की थी। लेकिन किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया। शादी के कुछ ही सालों में रजत की बीमारी से मौत हो गई। मायके में उसकी मां पहले ही गुजर चुकी थी और पिता ने उसे बेटी के बजाय बोझ समझा। ससुराल वालों ने तो साफ कह दिया था, “हमारे बेटे को खा गई तू। अब तेरा और तेरे बच्चे का यहां कोई ठिकाना नहीं।”
रोती बिलखती सुजाता अपने छोटे बेटे को लेकर घर से निकाल दी गई। हाथ में बस गले की सोने की चैन थी, जिसे बेचकर उसने कुछ दिन का गुजारा किया। लेकिन पैसे ज्यादा दिन कहां टिकते? धीरे-धीरे सब खत्म हो गया। सुजाता कई जगह काम मांगती। छोटे-मोटे होटलों में बर्तन मांझती। कभी किसी दुकान में सफाई कर देती। लेकिन कहीं स्थाई काम नहीं मिला। दिन भर मेहनत करती और रात को किसी धर्मशाला या मंदिर की सीढ़ियों पर सो जाती।
उस रात की मजबूरी
उस रात भी सुबह से दोनों ने कुछ नहीं खाया था। आरव बार-बार मां से कहता, “मम्मा, मुझे भूख लगी है।” सुजाता उसके सिर पर हाथ फेरते हुए खुद आंसू रोक लेती। बारिश तेज हो गई थी। कपड़े भीग चुके थे। पैर कांप रहे थे। बेटा बुखार की तरह गर्म लग रहा था। वो घबराई। “अगर इसे आज रात आसरा ना मिला तो बच्चा बीमार पड़ जाएगा।”
इसी डर और मजबूरी में उसने एक बड़े से घर के दरवाजे पर दस्तक दी। कांपती आवाज में बोली, “साहब, हमें बस आज रात की पनाह दे दीजिए। मैं भीग लूंगी लेकिन मेरा बच्चा इसे बचा लीजिए।” वो नहीं जानती थी कि उस दरवाजे के पीछे कौन है। लेकिन इतना जरूर जानती थी कि अगर दरवाजा बंद रह गया तो उसका बच्चा आज रात शायद बच ना पाए।
दरवाजे का खुलना
दरवाजे पर दस्तक सुनकर अंदर से धीरे-धीरे कदमों की आहट आई। कुछ ही पल में दरवाजा खुला और सामने खड़ा था एक लंबा चौड़ा इंसान। चेहरा गंभीर, आंखों में गहरी थकान। लेकिन स्वभाव में कठोरता नहीं थी। सुजाता ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “साहब, हमें बस एक रात के लिए अपने घर में ठहरने दीजिए। मेरा बेटा छोटा है। बारिश में भीग गया है। अब और भीगा तो बीमार पड़ जाएगा।”
वो आदमी कुछ पल तक चुप रहा। उसकी नजरें बच्चे पर ठहर गईं। छोटा आरव मां की गोद में सिर टिकाए कांप रहा था। चेहरे पर मासूमियत थी और पेट भूख से गुड़गुड़ा रहा था। आदमी के चेहरे पर एक हल्की सी नमी आ गई। उसने दरवाजा पूरा खोलते हुए कहा, “अंदर आ जाओ। भीग गए हो, ठंड लग जाएगी।”
घर का माहौल
सुजाता हिचकिचाई लेकिन मजबूरी बड़ी थी। वह धीरे-धीरे बच्चे को लेकर अंदर आ गई। घर बहुत बड़ा था। पर हर ओर वीरानी पसरी हुई थी। जैसे लंबे समय से उसमें कोई खुशियों की आहट ना हुई हो। आदमी बोला, “तुम लोग बैठो। मैं कुछ लेकर आता हूं।” वो रसोई की ओर चला गया। थोड़ी देर बाद लौटा तो उसके हाथ में एक थाली थी। दो रोटियां और साथ में अचार। उसने थाली बच्चे के सामने रखते हुए कहा, “खाना खा लो बेटा।”
आरव पहले तो झिचका। फिर भूख से हार गया। उसने रोटी उठाई और जल्दी-जल्दी खाने लगा। सुजाता की आंखें भर आईं। उसने धीमी आवाज में कहा, “साहब, कल से इसने कुछ नहीं खाया था। आपने हमारे बच्चे की जान बचा ली।” वो आदमी बस खामोशी से खड़ा रहा। उसकी आंखों में जैसे अपने बीते हुए कल की परछाइयां तैर रही हो।
रात का ठिकाना
उसने कहा, “तुम लोग निश्चिंत होकर इस कमरे में सो जाओ। दरवाजा अंदर से बंद कर लेना। किसी को डरने की जरूरत नहीं।” सुजाता ने सिर झुकाकर आभार जताया। वो अपने बच्चे के साथ कमरे में चली गई और अंदर से कुंडी लगा दी। उस रात हवेली की दीवारों में बहुत दिनों बाद एक नई हलचल हुई थी। बाहर बारिश अब भी बरस रही थी। लेकिन अंदर किसी के आंसू और किसी की करुणा मिलकर इंसानियत की एक नई कहानी लिख रहे थे।
सुबह का उजाला
अगली सुबह जब सूरज की पहली किरण खिड़कियों से छनकर कमरे में दाखिल हुई, बारिश थम चुकी थी। पर भीगी जमीन की खुशबू अब भी पूरे आंगन में फैली थी। हवेली का सन्नाटा जैसे किसी ने हिला दिया हो। अविनाश रोज की तरह उठकर बाहर आया। लेकिन सामने का नजारा देखकर उसकी आंखें चौंधिया गईं। वो हवेली जो महीनों से वीरान और धूल से भरी पड़ी थी, अचानक बदली-बदली लग रही थी।
आंगन में फैली पत्तियां समेटी जा चुकी थी। दरवाजे और खिड़कियों पर जमीन धूल पोंछी जा चुकी थी। बरामदे में रखा टूटा-फूटा सामान एक और सलीके से रखा था। वह हैरानी से इधर-उधर देखने लगा। तभी उसकी नजर रसोई की ओर पड़ी। वहां सुजाता झुकी हुई थी और उसके हाथ बर्तन साफ करने में लगे थे। छोटा आरव पास ही बैठा लकड़ी की छोटी गाड़ी से खेल रहा था।
अविनाश का सवाल
अविनाश ने पास जाकर पूछा, “तुम यह सब क्यों कर रही हो?” सुजाता ने हाथ पोंछते हुए सिर झुकाकर जवाब दिया, “साहब, बुरा मत मानिए। आपने हमें कल रात आसरा दिया। इसलिए सोचा कि बदले में मैं घर थोड़ा व्यवस्थित कर दूं। गंदगी कहीं भी अच्छी नहीं लगती।” उसके इन शब्दों ने अविनाश के दिल में एक चोट कर दी। वही शब्द कभी उसकी पत्नी भी कहा करती थी।
“गंदगी कहीं भी अच्छी नहीं लगती।” अचानक बीती हुई यादें उसकी आंखों के सामने तैर गईं। वह कुछ पल तक चुप रहा। फिर धीमे स्वर में बोला, “लेकिन तुम्हें इसकी जरूरत नहीं थी।” सुजाता हल्की मुस्कान के साथ बोली, “जरूरत नहीं थी। पर दिल ने चाहा कि कुछ कर दूं। कल रात आपने मेरे बच्चे को खाना खिलाकर भूख से बचाया। उसके बदले में मैं यही कर सकती थी।”
सच्चाई का सामना
उसकी सादगी और विनम्रता ने अविनाश को भीतर तक छू लिया। वह सोच में पड़ गया कि आखिर यह महिला कौन है? किस हाल में यहां तक आ पहुंची है? थोड़ी देर बाद सुजाता ने बर्तन सलीके से रख दिए और बच्चे को पास बुलाकर उसकी गोदी में बैठा लिया। फिर वह धीरे-धीरे बोली, “साहब, अब हम आपको और परेशान नहीं करेंगे। आपने जितनी मदद करनी थी, कर दी। अब हमें आगे बढ़ना होगा।”
अविनाश के भीतर अचानक बेचैनी उठी। उसने सोचा, “अगर यह लोग चले गए तो फिर से वही वीरानी लौट आएगी।” उसके मन में कई सवाल उठे। उसने हिम्मत जुटाकर कहा, “जाने से पहले अगर बुरा ना मानो तो एक बात पूछ सकता हूं। तुम कौन हो? और इस हालत में यहां तक कैसे पहुंची?”
सुजाता की कहानी
यह सुनते ही सुजाता के चेहरे की मुस्कान गायब हो गई। उसकी आंखों में नमी भर आई। होठ कांपने लगे। कुछ पल तक वह चुप रही। फिर बच्चे को सीने से लगाकर फूट-फूट कर रो पड़ी। अविनाश घबराया। “देखो, अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो जवाब मत दो। कोई बात नहीं। मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं।”
लेकिन सुजाता ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, “नहीं साहब। आपने हमारा इतना भला किया है। आप सच जानने के हकदार हैं।” फिर उसने धीरे-धीरे अपनी कहानी सुनानी शुरू की। “मेरा नाम सुजाता है। कुछ साल पहले मैंने रजत नाम के लड़के से शादी की थी। हम दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे। लेकिन शादी के दो ही साल बाद बीमारी ने रजत को मुझसे छीन लिया। उस दिन के बाद से मेरी जिंदगी जैसे खत्म हो गई।”
पिता का बोझ
“मायका पहले ही टूट चुका था। मां नहीं रही। पिता ने मुझे बोझ समझकर दरवाजा बंद कर दिया और ससुराल वालों ने साफ कह दिया, ‘हमारे बेटे के मरने की वजह तू ही है।’” सुजाता की आवाज भर आ गई। आंखों से आंसू टपकते रहे। “मुझे और मेरे बेटे को घर से निकाल दिया। मैंने हाथ जोड़े गिड़गिड़ाई। कहा, ‘बच्चा तो तुम्हारे बेटे का है। उसे मत निकालो।’ लेकिन उन्होंने एक ना सुनी। उस दिन से मैं और मेरा बेटा सड़कों पर भटक रहे हैं। छोटे-छोटे काम करके गुजारा करती हूं। लेकिन ठिकाना कहीं नहीं मिलता। कल पूरे दिन हमने कुछ नहीं खाया था। इसी वजह से हिम्मत जुटाकर आपके दरवाजे पर आ गई।”
अविनाश की प्रतिक्रिया
यह कहते-कहते वह फिर रो पड़ी। अविनाश चुपचाप खड़ा रहा। उसके मन में तूफान उठ रहा था। उसे लग रहा था मानो उसकी अपनी ही कहानी किसी और के चेहरे से सामने आ गई हो। दोनों की पीड़ा अलग-अलग रास्तों से गुजर कर एक ही मंजिल पर आ मिली थी। अकेलापन और दर्द।
सुजाता की आंखों से बहते आंसू देखकर अविनाश चुप हो गया। उसने पहली बार इतने करीब से उसकी मजबूरी और दर्द महसूस किया। छोटा आरव मां की गोद में सिसक रहा था। मानो उसे भी डर था कि कहीं फिर से वे सड़क पर ना आ जाए।
एक प्रस्ताव
अविनाश ने गहरी सांस ली और धीरे से कहा, “अगर मैं तुम्हें एक बात कहूं तो क्या तुम मानोगी?” सुजाता ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में सवाल थे। अविनाश बोला, “तुम और तुम्हारा बेटा इस घर में रह सकते हो। मैं पैसे नहीं दे पाऊंगा। लेकिन अगर तुम चाहो तो घर के कामकाज संभाल सकती हो। बदले में तुम्हें और तुम्हारे बच्चे को छत और भोजन मिलेगा।”
सुजाता कुछ पल के लिए चुप रही। उसके चेहरे पर संकोच और हिचक दोनों साफ दिखाई दे रहे थे। उसने धीमे स्वर में कहा, “साहब, क्या यह सही होगा? गांव वाले क्या कहेंगे? लोग बातें बनाएंगे।” अविनाश ने दृढ़ आवाज में कहा, “लोग तो हर हाल में बातें बनाते हैं। लेकिन सच यह है कि अगर मैं तुम्हें इस हालत में छोड़ दूं तो इंसानियत मर जाएगी। तुम्हें और तुम्हारे बेटे को पनाह चाहिए। और इस खाली घर को भी जीवन की जरूरत है। अगर तुम्हें ठीक लगे तो यहीं रहो।”
सुजाता का निर्णय
सुजाता की आंखों से आंसू फिर छलक पड़े। उसने हाथ जोड़कर कहा, “आपने हमें जिंदा रहने का सहारा दिया है। मेरे लिए इससे बड़ी नेमत कुछ नहीं। मैं हर काम करूंगी। बस मेरे बच्चे को आसरा मिल जाए।”
उस दिन से सुजाता वहीं रुक गई। वो सुबह-सुबह घर की सफाई करती, रसोई संभालती और छोटे-छोटे काम पूरे सलीके से करने लगी। आरव भी धीरे-धीरे अविनाश से घुल मिल गया। अविनाश जो लंबे समय से अकेलेपन में डूबा था, अब घर लौटते ही उसे छोटे-छोटे कदम दौड़ते हुए मिलते। बरामदे में बैठकर सुजाता की हंसी गूंजती। घर की वीरानी अब टूट चुकी थी।
समाज की बातें
लेकिन गांव का माहौल धीरे-धीरे बदलने लगा। लोग ताना फूंसी करने लगे। “अरे सुना है अविनाश ने एक जवान औरत को घर में रख लिया है। हां। और उसके साथ एक बच्चा भी है। क्या जरूरत थी? इतना बड़ा घर, अकेला आदमी। अब तो लोग कुछ ना कुछ कहेंगे ही।” गांव की चौपाल में भी बातें फैलने लगीं। कोई कहता अविनाश ने अपनी इज्जत मिट्टी में मिला दी तो कोई ताना मारता, “इतनी दौलत है पर अब जवान औरत की जरूरत पड़ गई।”
सुजाता का डर
सुजाता यह सब सुनती तो उसकी आंखें नम हो जातीं। उसे लगता कि शायद उसकी मौजूदगी अविनाश के लिए मुसीबत बन जाएगी। एक दिन उसने हिम्मत जुटाकर कहा, “साहब, गांव वाले सही कह रहे हैं। मेरी वजह से आपकी बदनामी हो रही है। मुझे और आरव को अब यहां से जाना चाहिए।”
अविनाश गुस्से में बोला, “चुप रहो। तुम्हारी कोई गलती नहीं है। यह लोग अपनी सोच से मजबूर हैं। मैं जानता हूं तुम सिर्फ इस घर को संभाल रही हो। और मैं तुम्हें यही देखना चाहता हूं। अगर किसी को दिक्कत है तो वो मुझे कहे, तुम्हें नहीं।”
एक नई शुरुआत
सुजाता पहली बार उसकी आंखों में गहरी सच्चाई देख रही थी। उसके मन का डर थोड़ा कम हुआ। पर फिर भी गांव की बातें उसे भीतर से काट रही थीं। दिन बीतते गए। तीन महीने कब गुजर गए पता ही नहीं चला। अब अविनाश और सुजाता दोनों एक दूसरे के दुख सुख बांटने लगे थे। आरव धीरे-धीरे अविनाश को अंकल कहने के बजाय बाबा कहने लगा।
लेकिन समाज की जुबान कब थमती है? एक सुबह गांव के कुछ बुजुर्ग और जिम्मेदार लोग अविनाश के दरवाजे पर आ धमके। उनकी आवाज सख्त थी। “अविनाश, यह सब ठीक नहीं है। जवान औरत को घर में रखना। यह हमारे गांव की मर्यादा के खिलाफ है। या तो इसे बाहर करो वरना तुम्हें गांव से निकाल दिया जाएगा।”
अविनाश की प्रतिक्रिया
सुजाता यह सब सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी कांप रही थी। उसकी आंखों में डर और आंसू दोनों थे। आरव उसकी गोद में चिपक गया। अविनाश कुछ पल चुप रहा। फिर अचानक वह अंदर गया और पूजा घर से सिंदूर की डिब्बी उठा लाया। सबके सामने आकर उसने सुजाता की मांग में सिंदूर भर दिया।
पूरे गांव पर जैसे सन्नाटा छा गया। “अब यह मेरी पत्नी है,” अविनाश ने ऊंची आवाज में कहा। “किसी को अगर ऐतराज है तो सामने आकर कहे।” गांव वाले हक्का-बक्का रह गए। कोई जवाब ना दे सका। सब दबे पांव लौट गए।
सुजाता की भावनाएं
सुजाता स्तब्ध खड़ी थी। उसके आंसू बह रहे थे। इस बार दुख के नहीं बल्कि हैरानी और कृतज्ञता के। अब उसके माथे पर सिंदूर की लाल रेखा भी चमक रही थी। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि अविनाश ऐसा कदम उठाएगा। गांव वाले जाते-जाते बुदबुदा रहे थे। लेकिन कोई भी सामने आकर कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
अविनाश का साहस
बरामदे में खड़े अविनाश ने गहरी सांस ली और सुजाता की ओर देखा। उसकी आंखों में दृढ़ता थी। पर चेहरे पर हल्की थकान झलक रही थी। “देखो सुजाता, अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो माफ करना। लेकिन इन लोगों की बातें मुझे सहन नहीं हुईं। अब कोई कुछ नहीं कह पाएगा।”
सुजाता की आंखें आंसुओं से भर आईं। “साहब, आपने यह सब क्यों किया? मैं तो बस आपके घर का काम करती थी। आपके सहारे मुझे और मेरे बेटे को आसरा मिला था। लेकिन अब आपने मुझे पत्नी का दर्जा दे दिया। क्या यह सही है?”
अविनाश की सच्चाई
अविनाश ने उसकी ओर देखकर शांत स्वर में कहा, “सुजाता, यह घर कई सालों से सुना था। तुम्हारे और आरव के आने से इसने फिर से जीना सीखा है। सच कहूं तो तुम्हारी सादगी, तुम्हारी मेहनत और तुम्हारे बेटे की मासूम हंसी ने मुझे जिंदगी से जोड़े रखा। शायद यही किस्मत थी कि हम एक दूसरे के दर्द में सहारा बने। और मैं चाहता हूं कि तुम सिर्फ घर की देखभाल करने वाली नहीं बल्कि मेरी जीवन संगिनी बनो।”
एक नई शुरुआत
सुजाता ने सिर झुका लिया। उसके होठ कांप रहे थे। लेकिन दिल की गहराई में उसे महसूस हुआ कि अविनाश के शब्द सिर्फ दिखावा नहीं बल्कि सच्चाई है। धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। अब गांव वाले भी चुप हो गए। जब उन्होंने देखा कि अविनाश और सुजाता एक दूसरे का सम्मान कर रहे हैं और घर में किसी तरह की गलत बात नहीं है तो उनकी जुबान खुद-ब-खुद थम गई।
लोग कहने लगे, “शायद यही अच्छा हुआ वरना वह महिला और उसका बच्चा बर्बाद हो जाते।” आरव भी अब अविनाश को पिता मानने लगा था। वो खेतों पर उसके साथ जाता, उसके कंधों पर बैठकर हंसता और जब कभी अविनाश थक कर लौटता तो उसके गले लगकर कहता, “बाबा, आप सबसे अच्छे हो।”
खुशियों का आगमन
सुजाता यह सब देखकर भीतर से भर उठती। उसे लगता शायद यही वह परिवार है जिसकी तलाश मुझे बरसों से थी। एक दिन शाम को आंगन में बैठते हुए सुजाता ने धीमे स्वर में कहा, “अविनाश जी, पता नहीं कैसे मुझे आपसे लगाव हो गया है। आपके बिना अब जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकती।”
अविनाश मुस्कुरा पड़ा। उसने उसकी ओर देखकर कहा, “मैं भी यही महसूस करता हूं। जब तुम्हें पहली बार दरवाजे पर भीगा हुआ खड़ा देखा था तब सोचा भी नहीं था कि यह रिश्ता इतना गहरा हो जाएगा। लेकिन अब लगता है कि ऊपर वाले ने तुम्हें और आरव को मेरी अधूरी जिंदगी पूरी करने के लिए भेजा है।”
विवाह का निर्णय
इसके बाद दोनों ने मंदिर जाकर विधिवत विवाह कर लिया। गांव के लोग भी उस दिन शादी में शामिल हुए। हर किसी की आंखों में एक सवाल था। “क्या वाकई इंसानियत रिश्तों से बड़ी हो सकती है?” लेकिन जब उन्होंने सुजाता के चेहरे पर संतोष और आरव के चेहरे पर पिता का साया देखा तो सब ने स्वीकार कर लिया कि यही सही था।
समापन
समय बीतता गया। आरव बड़ा होकर कॉलेज जाने लगा। घर में अब रौनक थी। हवेली जो कभी वीरान थी, अब हंसी और खुशियों से हरदम गूंजती थी। दोस्तों, जिंदगी में दौलत, शान-शौकत सब बेकार है अगर उसमें इंसानियत ना हो। समाज की बातें कभी खत्म नहीं होतीं लेकिन अगर दिल साफ हो और नियत सच्ची हो तो वही रिश्ते सबसे गहरे और सबसे खूबसूरत बन जाते हैं।
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