“शबरी की कुटिया : 6000 वर्षों के रहस्य का उद्घाटन”

कल्पना कीजिए एक ऐसी छोटी-सी कुटिया, जो पिछले 6000 वर्षों से अज्ञात जंगल में बंद थी। उसके द्वार न किसी ने खोले, न ही उसके भीतर कोई आवाज सुनी गई। बस, उसका उल्लेख रामायण, पुराण और कुछ ऋषियों की वाणी में ही मिलता था। ये कोई साधारण कुटिया नहीं, बल्कि ऐसी जगह थी, जहां काल और विज्ञान की सीमाएं खत्म हो जाती थीं।

अरावली की दूर प्राचीन पहाड़ियों से परे, पूर्वांचल के एक छोटे-से गांव धवलपुर में एक लड़का था—वीरेंद्र राठौड़। उसका बचपन आम बच्चों से अलग था। जहां और लड़के तालाब किनारे खेलते, वहीं वीरेंद्र अपनी दादी से शबरी, रामायण और पुराणों की कथाएँ सुनता, मंदिरों में घंटियां बजाकर ध्यान में खो जाता। पिता किसान, मां देवी-भक्त; पर वीरेंद्र के मन में बचपन से एक ही स्वप्न पल रहा था—“मैं भारत के भूले-बिसरे अध्यात्म का रहस्य फिर से जगाऊँगा।”

पढ़ाई में अव्वल रहा, स्कॉलरशिप से दिल्ली गया, फिर आईआईटी तक पहुँचा। जब सब आधुनिक फिजिक्स और केमिस्ट्री के पेच में उलझे थे, वीरेंद्र प्राचीन वेद, उपनिषद और पुराणों में छिपी वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि को तलाशता। रिसर्च ऐसी कि उसकी चर्चा नासा तक पहुँची। नासा ने भी आमंत्रण भेजा, आलीशान पैकेज दिया, पर वीरेंद्र ने विनम्रता से ठुकरा दिया—“मैं उस भूमि का हूं, जहाँ वाल्मीकि ने रामायण लिखी। मैं धरती मां को नहीं छोड़ सकता।”

अब वह शोधकर्ता से सनातन वैज्ञानिक और साधक बन गया। एक पुराना कैमरा, थोड़े वैज्ञानिक उपकरण, और मां से मिली रामायण की पोथी के साथ, वह देश के प्राचीनतम और रहस्यमयी स्थलों की खोज में निकल पड़ा। कभी केदारनाथ की गुफाओं में दिखता, कभी गिरनार जंगल में, तो कभी किसी गांव के फटे रास्ते पर अकेला भटकता।

एक दिन एक पुराने आलेख में उसे छत्तीसगढ़ के शिव नारायण क्षेत्र की जानकारी मिली—जंगल के भीतर कहीं शबरी की गुमनाम कुटिया। बिना देरी किए वह निकल पड़ा—बिना टीम, बस दो जोड़ी कपड़े, कैमरा, और अपने मन में संकल्प लिए हुए। हफ्तों पैदल चलकर, झाड़-झांखड़ पारकर, छालों से जर्जर पैरों के साथ, एक दिन उसे वह जगह मिल गई। चट्टानों के बीच छिपी, सूखी बेलों से ढकी एक बहुत पुरानी संरचना… यही थीं शबरी की कुटिया! हवा में एक अजीब कंपन था, जैसे वक़्त रुक गया हो।

वीरेंद्र वहीं डेरा जमा लिया। खुदाई नहीं की, बिना तोड़फोड़ बस जांचता, छूताजांच करता, मिट्टी और पत्थर की ऊर्जा पढ़ता, ध्यान में बैठ जाता। उसकी आकुलता, साधना, सब नासा के वैज्ञानिक उपकरणों से कहीं आगे थी।

इसी बीच उसकी पोस्ट एक वायरल संदेश बन गई—‘मैं यहां हूँ, भारत का हृदय जहां अब भी धड़क रहा है’। नासा ने संपर्क किया, भारत सरकार से लिखित अनुमति मांगी गई, दुनिया भर के तीन नामचीन वैज्ञानिकों की टीम आई—डॉ. एम्मा, डॉ. डॉली, डॉ. शाओ। वे अपने बेहिसाब उपकरण लाए—रेडार, थर्मल इमेजर, ईएमएफ, मैग्नेटोमीटर—पर वीरेंद्र ने शर्त रख दी, “कुटिया को तोड़ना-छेड़ना नहीं, बस देख सकते हो। यह भूमि सिर्फ समझने के लिए है, भोग के लिए नहीं।”

जमीनी विज्ञान ने सबको चौंका दिया—भूमि में असामान्य विद्युतीय, चुंबकीय तरंगें, अद्वितीय ऊर्जा। जितनी गहराई में वे उपकरण लगाते, उतना रहस्य बढ़ता जाता। किसी पूर्वज सभ्यता, गुप्त शक्ति केंद्र, या प्राचीन जीवन-ऊर्जा का संकेत!

एक रात ध्यान में, वीरेंद्र ने एक स्वप्न देखा—एक वृद्धा प्रकट हुई (शबरी) और कहने लगी, “बेटा, तुम आ ही गए। वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा थी।” अगली सुबह, अमेरिकी वैज्ञानिकों को भी किसी अपूर्व, शुद्ध, प्रेममय ऊर्जा का आभास होने लगा। जीते-जागते विज्ञान का सबक—’हर रहस्य शक्ति, प्रेम या भक्ति से बड़ा नहीं’—उनका मन बदल रहा था।

तब वीरेंद्र ने उन्हें कुटिया के भीतर एक क्षण के लिए ले जाने दिया। अंदर कोई मूर्ति नहीं थी, न कोई कांच, न सोना। एक ओर पुराना वस्त्र, जिसका रंग वर्षों के बाद भी मुरझाया नहीं था, एक थाली में सूखे बेर, और दीवारों पर संस्कृत में लिखा था—‘प्रेम एव परम तत्वम’ (प्रेम ही अंतिम सत्य है)। उनके टॉप साइंस गैजेट्स अब शून्य, सब डाटा गायब, और दिल में पसरा शुद्ध शांति… आंखों में आंसू।

भारत लौटकर वीरेंद्र ने उस स्थान पर एक छोटा मंदिर बना दिया, एक पट्टिका लगा दी—“यह स्थान सिर्फ उसे दिखता है, जिसका हृदय प्रेम से भरा हो।” नासा ने अपनी रिपोर्ट में लिखा—’यह ऊर्जा किसी वज्र, कोई उतरदायित्व या जटिल कैमिकल नहीं, बल्कि शुद्ध प्रेम की अनुभूति है।’ दुनिया भर ने स्वीकार किया—कुछ रहस्य विज्ञान पार हैं।

वीरेंद्र वापस गांव लौटा, आधुनिक गुरुकुल और शोध केंद्र की स्थापना की, जहां बच्चे वेद, उपनिषद, विज्ञान, और प्रेम की शिक्षा एक साथ पाते। उसकी साधना अब समाज की प्रेरणा बन गई। उसी कुटिया में वह हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर अकेले दीया जलाकर मां शबरी को प्रणाम करता, और लौट आता।

किसी विदेशी चैनल के पत्रकार ने पूछा—’क्या आपने यहां भगवान श्रीराम को देखा?’ वीरेंद्र हँसता है—”मैंने उन्हें देखा नहीं, पर महसूस किया है। कई बार महसूस करना देखने से बड़ा होता है!”

और यही है इस 6000 वर्ष पुराने रहस्य की सबसे बड़ी सीख—जहां विज्ञान झुकता है, वहां श्रद्धा सिर उठाती है। कभी-कभी सालों के बाद भी असली चमत्कार मन की गहराई में घटता है।

अगर सचमुच कोई स्थान दिव्य है, तो वह बाहर नहीं, हमारी चेतना में है—वही सबसे बड़ा विज्ञान, वही सनातन प्रेम।