ससुर रोज़ ताने सुनते रहे… लेकिन जब बहू ने फेंका तो…
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चुप्पी की आवाज़: रामकिशोर जी की कहानी
दोपहर का वक्त था। शहर की चिलचिलाती गर्मी के बीच भी उस घर में एक अलग ही सन्नाटा पसरा था। छोटे से आंगन में रामकिशोर जी बैठे थे। सफेद झुर्रियों वाला चेहरा, हल्के सफेद बाल, सीधा-सादा बदन, उम्र लगभग 62 साल। सादा सफेद कुर्ता-पायजामा पहने, नंगे पैर, एक बाल्टी में कपड़े धोते हुए। उनका बेटा विनीत नौकरी पर गया था, पोते स्कूल में थे, और बहू स्वाति उसी घर की मालकिन बनी घूमती थी।
स्वाति की आवाज फिर से गूंज उठी, “बाबूजी, कपड़े ठीक से नहीं धोए आपने। बार-बार कहना पड़ता है। और हां, गैस पर कुछ भी मत रखना, जलाना नहीं आता आपको। बस बैठे रहते हो, खाना खाने आते हो, बाकी कुछ नहीं करते।”
रामकिशोर जी ने कुछ नहीं कहा। सिर्फ गर्दन झुकाई जैसे उनकी उम्र ने जवाब दे दिया हो। यह रोज की कहानी थी। कभी गालियां, कभी तानों की आग। स्वाति मोहल्ले की औरतों के सामने भी चिल्लाती, “मेरे घर में एक बोझ पल रहा है। एक और मुंह जो खाना खा जाता है बिना कुछ किए।”
कभी-कभी मोहल्ले की महिलाएं भी बोल पड़तीं, “बुजुर्ग तो सेवा करने के लिए होते हैं ना, कि सिर्फ छांव में बैठने के लिए।”
रामकिशोर जी सब सुनते थे चुपचाप। औलादें पर कोई नहीं जानता था कि वह रोज सुबह सबसे पहले उठकर पोते का टिफिन तैयार करते थे, बाग के हर पौधे में पानी देते थे, कपड़े प्रेस करते थे और बच्चों को दुआ देकर विदा करते थे। पर उनका काम कभी काम नहीं गिना गया क्योंकि उसमें आवाज नहीं थी। बस मौन था और सेवा।
एक दिन शाम को घर में कुछ मेहमान आए। स्वाति चाय लेकर बैठी थी। रामकिशोर जी ने भी एक प्लेट में खाना लिया और एक कोने में बैठ गए। स्वाति की नजर पड़ी और जैसे उसमें ज्वालामुखी फूट पड़ा। मेहमानों के सामने भी, “तुम्हें शर्म नहीं आती? बैठे-बैठे खा रहे हो। अब उम्र देखी है अपनी, शर्म करो।”
अगले ही पल उसने उनके हाथ से प्लेट छीनकर जमीन पर फेंक दी। खाना बिखर गया और साथ ही बिखर गया एक बुजुर्ग का मौन सम्मान।
रामकिशोर जी उठे, कुछ नहीं बोले, बस अपनी चप्पलें पहनकर आंगन के कोने में चले गए। वह रात भर चुपचाप बैठे रहे। किसी ने पूछा तक नहीं कि वह खाए या नहीं।
अगली सुबह वह घर में नहीं थे। ना कमरे में, ना आंगन में, ना मंदिर में। बस एक चिट्ठी छोड़ गए थे। “मैं हमेशा घर का हिस्सा रहना चाहता था, पर जब घर ही मुझे बेघर कर दे तो शायद सड़क ही सुकून देती होगी।”
स्वाति ने कोई खास चिंता नहीं जताई। “गुस्से में कहीं चले गए होंगे, लौट आएंगे।” लेकिन तीन दिन बीत गए और रामकिशोर जी का कोई पता नहीं चला।
बेटा विनीत परेशान था। पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज हुई, पर कुछ हाथ नहीं लगा।
फिर चौथे दिन एक वीडियो ने पूरे शहर को हिला दिया। सुबह का वक्त था। शहर के न्यूज़ चैनल्स पर अचानक एक ब्रेकिंग न्यूज़ फ्लैश हुई। गुमशुदा बुजुर्ग की पहचान हुई।
आईएएस अधिकारी की भावनात्मक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने सबको रुला दिया। घर में टीवी चल रहा था। विनीत और स्वाति दोनों चौंक पड़े। स्वाति ने रिमोट उठाकर आवाज तेज की।
स्क्रीन पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस दिख रही थी। आईएएस अधिकारी आदित्य सिंह, तेज, समझदार और सैकड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा, कैमरों के सामने खड़ा था। आंखें भरी हुई।
“मैं आज जो कुछ भी हूं, इस आदमी की वजह से हूं।” उसने थरथराती आवाज में कहा। सामने एक प्रोजेक्टर पर रामकिशोर जी की तस्वीर लगी थी।
“वह मेरे पिता नहीं हैं, लेकिन उन्होंने मुझे पिता से ज्यादा प्यार दिया। जब मेरे पास जूते नहीं थे, उन्होंने चुपके से अपने जूते मुझे दे दिए। जब मुझे स्कूल की फीस भरनी थी, उन्होंने अपना खून बेचकर पैसे दिए। आज जब मैं एक कुर्सी पर बैठा हूं, तो वह इंसान कहीं सड़क पर बेसहारा घूम रहा है। क्योंकि जिनके घर में वह रह रहे थे, उन्होंने उन्हें बोझ समझ लिया।”
विनीत और स्वाति दोनों सन्न रह गए। स्वाति का चेहरा पीला पड़ चुका था। उसे याद आया कितनी बार उसने रामकिशोर जी से पूछा था, “पेंशन कहां जाती है? तुम क्या करते हो उसे?”
और वह हर बार बस मुस्कुरा कर कहते थे, “थोड़ा-थोड़ा सब जगह लगता है।”
उन्हें क्या पता था वो थोड़ा-थोड़ा ऑर्फनेज बच्चों की पढ़ाई, ब्लड डोनेशन और जरूरतमंदों के लिए जाता था।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में आईएएस अधिकारी ने ऐलान किया, “मैं उन्हें वापस लाऊंगा। लेकिन वहां नहीं जहां उन्होंने अपमान झेला। वह अब मेरे घर आएंगे, जहां उनका हर दिन सम्मान से जिया जाएगा।”
घर के अंदर एक गहरी चुप्पी थी। बेटा विनीत अब फूट-फूट कर रो रहा था। “मैंने अपने ही पिता को नहीं पहचाना।” और स्वाति वह अब तक उस टूटी हुई प्लेट को देख रही थी जो रामकिशोर जी के हाथ से छीनकर जमीन पर फेंकी गई थी। वह समझ चुकी थी जिसे उसने एक और मुंह कहा था, वो हजारों के लिए एक और दिल था।
अगले दिन आईएएस अधिकारी की कार उस गली में दाखिल हुई। भीड़ जुटी थी। रामकिशोर जी उसके साथ थे। कंधे पर शॉल, हाथ में छड़ी, लेकिन चेहरे पर वही शांत थी।
घर के दरवाजे पर स्वाति खड़ी थी, हाथ कांपते हुए। वह झुककर उनके पैर छूने लगी, “बाबूजी, माफ कर दीजिए। मैं बहुत शर्मिंदा हूं।”
रामकिशोर जी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्के से सिर पर हाथ रखा। “माफ करना तो सिखाया था, खुद करना भी आता है।”
पर वह उसी घर में नहीं रुके।
आईएएस अधिकारी ने आगे कहा, “बाबूजी अब वहां नहीं रहेंगे जहां दाने मिले। अब वह रहेंगे जहां इज्जत मिले।” फिर उसने एक नया घर दिखाया। छोटा, शांत और पूरी तरह उनके नाम पर रजिस्टर्ड।
बुजुर्ग ने उस दरवाजे के बाहर खड़े होकर कहा, “मैंने कभी नाम के लिए कुछ नहीं किया, पर आज लगता है चुपचाप जीना भी कभी-कभी लोगों को जगा देता है।”
अब शहर भर में चर्चा का विषय कोई और नहीं, बल्कि रामकिशोर जी ही थे। टीवी चैनलों पर, न्यूज़ वेबसाइटों पर और सोशल मीडिया पर एक ही लाइन वायरल हो रही थी, “जिसे घर वालों ने बोझ कहा, उसने देश को एक काबिल आईएएस अधिकारी दिया।”
नया घर जहां रामकिशोर जी अब रह रहे थे, छोटा लेकिन शांत और आत्मसम्मान से भरा।
आईएएस अधिकारी आदित्य हर रविवार आता। उनके साथ बैठकर खाना खाता, बातें करता और वही सवाल करता जो उसने बचपन में पूछा था, “बाबा, आपने यह सब किया? किसी से कहा क्यों नहीं?”
रामकिशोर जी मुस्कुराते थे, “बेटा, जब मकसद मदद हो तो शोर मचाना जरूरी नहीं होता। लोग दिखावा करते हैं, मैंने निभाया।”
उधर स्वाति अब पूरी तरह बदल चुकी थी। हर दिन ऑर्फनेज जाकर काम करती, रसोई में खाना बनाकर गरीब बच्चों को भेजती। उसने अपने गहने बेच दिए, उसी ऑर्फनेज के लिए जहां रामकिशोर जी ने कभी खून बेचकर मदद की थी।
एक दिन उसने विनीत से कहा, “मैंने बाबूजी को कभी समझा ही नहीं। मुझे लगा वह बोझ है, पर असल में मैं ही अंधी थी।”
विनीत ने उसकी बात सुनी और बस धीरे से बोला, “शायद कभी-कभी रिश्तों को आवाज नहीं, सन्नाटे ही आईना दिखाते हैं।”
इधर मोहल्ले की महिलाओं का नजरिया भी बदल चुका था। जो कभी स्वाति के तानों पर सिर हिलाती थीं, आज वह उसी दरवाजे पर आकर कहतीं, “बहन, अब हम भी अपने घर के बुजुर्गों को वैसे नहीं देख सकते। रामकिशोर जी ने हमें सिखा दिया। जो चुप रहते हैं, वह कमजोर नहीं होते।”
एक दिन आईएएस अधिकारी ने एक कार्यक्रम रखा, जहां बुजुर्गों के सम्मान में एक खास समारोह हुआ। रामकिशोर जी को मंच पर बुलाया गया। हजारों की भीड़ तालियां बजा रही थी।
वह धीरे-धीरे माइक तक पहुंचे और बोले, “मैं कोई महान आदमी नहीं हूं। मैंने सिर्फ वो किया जो एक इंसान को करना चाहिए। पर अगर मेरी चुप्पी किसी की जिंदगी बदल सके तो मैं समझता हूं मेरी उम्र सफल हो गई।”
मंच से उतरते वक्त उनकी आंखें किसी को खोज रही थीं और वहीं सामने स्वाति खड़ी थी, हाथ में फूलों का गुलदस्ता, आंखों में आंसू।
“बाबूजी, आप आज भी मुझे माफ कर सकते हैं।”
रामकिशोर जी ने उसके हाथ से फूल लिए, “बेटी, गलती रिश्ते तोड़ती नहीं। अगर दिल सच्चा हो तो रिश्ते फिर से जुड़ जाते हैं।”
वह दिन इतिहास बन गया। लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि समाज को आईना दिखाने के लिए कभी-कभी आवाज की नहीं, एक चुप रहने वाले दिल की जरूरत होती है। कभी-कभी जो सबसे कम बोलता है, वही सबसे ज्यादा सिखा जाता है।
बुजुर्गों को समझने से पहले उन्हें सुनना सीखो, क्योंकि उनकी खामोशी कईं दियां बना सकती है।
सीख: यह कहानी हमें सिखाती है कि बुजुर्गों का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। उनके अनुभव और सेवा को कभी नजरअंदाज न करें। परिवार में प्यार और समझदारी से ही रिश्ते मजबूत होते हैं। चुप्पी भी एक भाषा है, जो हमें इंसानियत और संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाती है।
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