तलाक के 10 साल बाद सड़क किनारे चाय बेचती पत्नी और बेटी से हुई मुलाकात – एक टूटे रिश्ते की सच्ची कहानी

भूमिका

कभी जिन हाथों ने एक-दूसरे की हथेली थामकर वक्त से जिद की थी कि साथ रहेंगे चाहे हालात जैसे भी हों, आज उन्हीं हाथों के बीच खामोशी की एक ऐसी दीवार खड़ी हो चुकी थी जिसे तोड़ने की हिम्मत न वक्त में थी, न हालात में। यह कहानी है सचिन और कविता की – दो दिलों की, दो जिंदगियों की, और एक मासूम बच्ची महिमा की, जिसे हालात ने बड़ों की गलती की सजा दी।

यह सिर्फ एक परिवार की दास्तां नहीं, बल्कि उन लाखों रिश्तों की कहानी है जो समय, हालात और समाज के दबाव में बिखर जाते हैं। आइए, जानें कैसे 10 साल बाद एक सड़क किनारे चाय की दुकान पर हुई मुलाकात ने सब कुछ बदल दिया।

अतीत की यादें और आज की हकीकत

सचिन एक दिन पुराने क्लाइंट से मिलने गया था। काम छोटा था, पर लोकेशन वही पुरानी – वही मोहल्ला, वही गलियां जहां कभी वह अपनी पत्नी कविता के साथ चाय पीने आता था। वक्त बदल गया था, दुकानों के नाम बदल गए थे, दीवारें फिर से रंग गई थीं, लेकिन कुछ यादें आज भी उन ईंटों में चुपचाप दबी हुई थीं।

कार से उतरकर सचिन जैसे अतीत में उतर गया। चलते-चलते जब वह नुक्कड़ तक पहुंचा, उसकी नजर एक छोटी सी दुकान पर पड़ी – लकड़ी का ठेला, आम, केले, संतरे, सब्जियां, गैस चूल्हा, दो बेंचें, लोहे की पेटी और एक कपड़े का झोला। उस पूरे सेटअप के बीच एक औरत खड़ी थी – सांवली सी, पसीने से भीगी पेशानी, माथे पर तिल, हाथों में चाय की केतली। वह कभी चाय छानती, कभी फल झाड़ती, कभी ग्राहक से पूछती – “क्या दूं साहब? चाय या फल?”

सचिन के कदम वहीं रुक गए। वो चेहरा, वो चाल, वो माथे का तिल – सब कुछ पहचानने जैसा था, पर यकीन करने जैसा नहीं। वह कविता थी। वही कविता जिससे उसने कभी सात फेरे लिए थे। वही कविता जिससे वादा किया था – तेरे बिना अधूरा हूं मैं। और आज वह धूप में खड़ी चाय और फल की दुकान चला रही थी – शायद जिंदगी के हालात से लड़ती हुई, शायद अपनी बेटी के इलाज का बोझ उठाती हुई, और सबसे ऊपर अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए हर सुबह खुद से एक नई जंग लड़ती हुई।

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सचिन की मुलाकात – दर्द और पछतावे का पल

सचिन अब पहले जैसा नहीं रहा था – चेहरा भर गया था, कपड़े महंगे थे, चाल में रुतबा था। लेकिन उस एक पल में वह फिर वहीं सचिन बन गया था जो कभी कविता की हर बात उसकी आंखों से पढ़ लिया करता था। वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। भीड़ थी, लेकिन आवाजें सुनाई नहीं दे रही थीं – सिर्फ अंदर से उठता एक शोर था।

कविता अपने काम में लगी रही। उसकी आंखों में थकान थी, पर इरादों में अब भी कोई समझौता नहीं था। सचिन ने खुद को संभाला और धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा। थोड़ा साइड में खड़ा हुआ। कविता ने बिना देखे पूछा, “क्या लेंगे साहब? चाय, फल।” सचिन की आवाज कांप रही थी, लेकिन उसने खुद को रोका – “एक कड़क चाय और कुछ आम दिखा दीजिए।”

कविता ने चाय छाननी शुरू की और झोले से आम की टोकरी निकाली। सचिन की नजर उस टोकरी के पास रखी एक पुरानी तस्वीर पर पड़ी – जिसमें एक मासूम बच्ची की मुस्कुराती सी झलक थी। कमजोर चेहरा, लेकिन चमकती आंखें, जैसे अब भी किसी को “पापा” कहने की आस हो। वह ठिटक गया। वह तस्वीर उसकी रग-रग में उतर गई थी। लेकिन उसने अभी खुद से कुछ नहीं कहा, ना सामने आने की हिम्मत की, ना कुछ पूछने की। सिर्फ इतना बोला, “यह आम कैसे दिए?”

कविता बोली, “सुबह ही लाई हूं साहब, मीठे हैं। मुरझा गए हैं थोड़ा, आ रहे 100 किलो, खाकर देख लीजिए।” सचिन बोला, “सारे दे दो।” कविता थोड़ी चौंकी, फिर मुस्कुराई नहीं, बस झट से तोलने लगी – “8 किलो है, 800 होंगे। आप सब ले रहे हैं तो 640 दे दीजिए।” सचिन ने चुपचाप जेब से दो 500 के नोट निकाले और पकड़ा दिए। फिर मुड़ने लगा, तभी पीछे से आवाज आई – “साहब, 200 ज्यादा दे दिए, भीख नहीं चाहिए।”

सचिन वहीं रुक गया। कविता पास आई, उसके हाथ में 200 रुपए रखे और उसी ठहरी हुई आवाज में बोली, “इज्जत बचाने को यह दुकान है, कमजोर नहीं हूं।” सचिन की आंखें भर आईं। वह कुछ पल चुप रहा। फिर कांपती आवाज में बोला, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता क्या?” कविता ने एक गहरी सांस ली, चाय की केतली रखते हुए बोली, “12 साल पहले तलाक हो गया साहब।”

बिछड़ना और फिर मिलना – बेटी की बेबसी

सचिन का दिल जैसे किसी ने निचोड़ लिया हो। वह एक पल के लिए थम गया। फिर अपने झोले को संभालता हुआ धीमे-धीमे उस दुकान से हटने लगा। पर उसकी आंखें अब भी उसी तस्वीर पर अटकी थी – जिसमें वह चेहरा था जो आज भी शायद उसे पहचान सकता था।

कविता आम समेट रही थी। गैस का चूल्हा बंद कर चुकी थी। झोले में बचे हुए फल रखे और फिर उसी थके हुए ढंग से दुकान की पेटी उठाकर चल पड़ी। सचिन अब भी थोड़ी दूरी पर खड़ा था। उसके हाथ में झोला था, लेकिन दिल में एक बवंडर। उसने खुद से पूछा, “क्या वह मेरी बेटी थी? क्या मैंने सच में सब कुछ खो दिया?”

वह ज्यादा सोच नहीं पाया। बस उसके कदम खुद-ब-खुद कविता के पीछे चल पड़े। गली तंग थी – बिजली के झूलते तार, छतों से टपकती बूंदें, दीवारों पर नाम मिटे हुए पोस्टर और हर दरवाजे पर थकी हुई जिंदगी। कविता जहां जाकर रुकी, वो घर अलग था – एक छोटा सा टूटा-फूटा मकान, बरामदे में दो खटियां। एक पर बूढ़ी औरत, दूसरी पर एक 10 साल की लड़की – कमजोर, सांवली, सुन्नी आंखें, बिखरे बाल, पास में रखा खिलौना जिसे वह छू भी नहीं रही थी।

सचिन वहीं रुक गया। कविता ने घर का दरवाजा खोला, बोझ उतारा और भीतर चली गई। सचिन की निगाह उस बच्ची पर अटक गई – वह बच्ची जो बस खटिया पर लेटी थी, ना हिल रही थी, ना किसी से कुछ कह रही थी। वह महिमा थी – उसकी अपनी बेटी। अब कोई तस्वीर नहीं, अब कोई झलक नहीं, अब सच सामने था।

पिता-पुत्री का मिलन – भावनाओं की बाढ़

सचिन ने धीरे से एक कदम बढ़ाया, लेकिन उसके सीने में कुछ कसने लगा। उसकी बेटी इतनी कमजोर, इतनी चुप। उसे याद आया वो दिन जब महिमा एक साल की थी और उसकी गोद से उतरने का नाम नहीं लेती थी। आज वह खटिया पर अकेली पड़ी थी और लगता था जैसे जिंदगी से भी नाराज हो।

वह और पास नहीं जा सका। बस दीवार के साए में खड़ा होकर देखता रहा। उसकी आंखें भर आईं और दिल से सिर्फ एक ख्याल निकला – “इतनी मासूम जान मेरी गलती क्यों भुगत रही है?”

तभी अंदर से कविता बाहर आई। वो एक गिलास में पानी लेकर आई थी। जैसे ही उसकी नजर सचिन पर पड़ी, वह थोड़ी देर के लिए ठहर गई। फिर बिना कुछ कहे उसके पास आई। चेहरे पर ना गुस्सा था, ना हैरानी – बस एक थकी हुई लेकिन स्थिर आवाज। “यहां तक आ ही गई।”

सचिन कुछ बोल नहीं पाया। उसने बस आंखें झुका लीं। कविता ने महिमा की ओर देखा, फिर वापस सचिन की आंखों में झांकते हुए बोली, “अब देख भी लिया, अब शायद समझ भी आ गया होगा कि अकेले कितना मुश्किल होता है सब कुछ उठाना।”

सचिन की आवाज कांप रही थी – “यह महिमा है ना?” कविता की आंखों में नमी आ गई, लेकिन उसने कोई इल्जाम नहीं लगाया। “हां, यह वही है जो कभी तुम्हें पापा कहती थी और अब सिर्फ बीमार पड़ी रहती है।”

सचिन के होंठ कांप गए। उसने खुद को मुश्किल से संभाला। फिर धीमे से बोला, “मुझे नहीं पता था कि चीज इतनी…” कविता ने बात बीच में ही काट दी, “पता होता तो क्या करते?”

सचिन चुप हो गया। उसने महिमा की ओर देखा जो अब भी वहीं थी, उसी खटिया पर। थोड़ी देर बाद महिमा ने धीरे से करवट ली और अपनी सुनी आंखों से एक बार सामने देखा। वो नजरें सचिन से मिलीं। सचिन घबरा गया, झट से पीछे हो गया – जैसे किसी गुनाह में पकड़ा गया हो। पर महिमा ने कुछ नहीं कहा। वह सिर्फ देख रही थी, जैसे कोई भूली हुई पहचान याद करने की कोशिश कर रही हो।

कविता खामोशी से महिमा के पास गई। धीरे से उसके सर पर हाथ फेरा और बहुत हल्के स्वर में कहा, “बेटा, यह तुम्हारे पापा हैं।” महिमा कुछ नहीं बोली। बस आंखें उठाकर सचिन को देखा, फिर नीचे देखती रही।

सचिन अब खुद को रोक नहीं पाया। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और महिमा के सामने जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। कांपती आवाज में उसने कहा, “मैं बहुत सालों तक चुप रहा बेटा। बहुत बड़ी गलती कर दी। मैंने तुम्हें भी छोड़ दिया, तुम्हारी मां को भी और खुद को भी खो बैठा। पता नहीं अब हक रह गया है या नहीं। पर क्या तुम बस एक बार मुझे माफ कर सकती हो?”

महिमा की आंखों में सीधा गुस्सा नहीं था, लेकिन कोई भाव भी नहीं था। बस एक खालीपन था जो कह रहा था – इतने साल कहां थे पापा?

कुछ पल खामोशी रही। फिर महिमा ने धीरे से हाथ बढ़ाया और सचिन के आंसुओं से भीगे चेहरे को छू लिया। कोई शब्द नहीं निकले उसके होठों से, पर स्पर्श में वह सब था जो एक बच्ची ने कभी कह नहीं पाया था। फिर महिमा उठी और धीरे से सचिन के गले लग गई – बहुत धीमे से, बहुत देर तक। सचिन ने अपनी बेटी को सीने से चिपका लिया। वह रो रहा था, पर अब उसकी रुलाई में कमजोरी नहीं थी बल्कि वह पीड़ा थी जो सालों से उसकी आत्मा में बंद थी।

एक नई शुरुआत – रिश्तों की मरम्मत

कविता पास ही खड़ी थी। उसकी आंखें भीग चुकी थीं। वह कुछ नहीं बोली। बस महिमा के सर पर हाथ रख दिया। कुछ देर बाद महिमा फिर से खटिया पर लेट गई थी। धीरे से करवट लेकर दीवार की ओर मुंह कर लिया। शायद उसकी आंखें बंद थीं या शायद वह अब भी उस पर्श को अपने सीने में समेट रही थी।

सचिन वहीं जमीन पर बैठा था – चुप, निशब्द। उसकी आंखें महिमा पर थीं, पर उसके भीतर कुछ और ही चल रहा था। उसका मन बार-बार कह रहा था, “अब उससे पूछ कि क्या तू उसका पापा बन सकता है? फिर से अब कविता से कहे कि तू उसके साथ फिर से जिंदगी जीना चाहता है।”

लेकिन उसकी आंखें कविता की ओर गईं। वह अब भी खामोश खड़ी थी – ना कोई इशारा, ना कोई रोक। बस वही पुरानी थकावट थी उसकी पलकों में जिसे किसी सफाई की जरूरत नहीं थी।

सचिन ने चुपचाप अपनी हथेलियां जमीन पर रखीं, धीरे से खुद को उठाया और फिर एक बार महिमा की ओर देखा। उसने चाहा कि कुछ बोले, पर होठों तक आए शब्द दिल के दर्द में डूबकर फिर लौट गए। वह मुड़ा, एक कदम चला, फिर रुका – जैसे दिल पीछे खींच रहा हो। लेकिन जुबान कह रही थी – अभी नहीं। उसने बिना कोई आवाज किए गली से बाहर कदम रख दिए – ना दरवाजा खटका, ना अलविदा कहा। बस चल पड़ा, जैसे कोई हारकर नहीं बल्कि किसी वक्त का कर्ज चुकाने, फिर से लौटने का वादा लेकर गया हो।

संकल्प और बदलाव – एक पिता का पुनर्जन्म

रात भर सचिन सो नहीं सका। करवटें बदलते हुए उसकी आंखों के आगे बस एक ही तस्वीर घूमती रही – महिमा का चेहरा। वह नजरें जो कुछ नहीं बोली और सब कुछ कह गईं। उसने तकिए पर सिर रखा, लेकिन नींद जैसे सिर्फ उसे बेटी के पास चली गई थी, जिससे मिलने में उसे 9 साल लग गए थे।

उसने खुद से कहा, “मैं आज सिर्फ देखकर लौट आया हूं। लेकिन अब देखना बाकी है – वह प्यार, वह साथ और वह समाज जो एक बेटी को सबसे पहले उसके पापा से मिलना चाहिए।”

सुबह होते-होते वह उठ खड़ा हुआ। अब उसके कदमों में डर नहीं था, बल्कि एक संकल्प था। वह सीधा उस कोने वाली दुकान पर गया, जहां से वह कभी कविता के लिए चूड़ियां खरीदा करता था। आज पहली बार उसके हाथ कांप नहीं रहे थे, बल्कि उसके चेहरे पर वही ठहराव था जो किसी ने वक्त से बहुत कुछ सीखने के बाद पाया हो।

उसने एक छोटा सा पैकेट बनवाया – जिसमें थी कुछ रंगीन चूड़ियां, एक जोड़ी बालियां और एक सिंपल सा मंगलसूत्र। कुछ कीमती नहीं, लेकिन हर चीज में एक अधूरे रिश्ते की भरपाई छुपी थी। वह वहां से सीधा किराने की दुकान गया – दूध, फल, दवाइयां, बिस्कुट, किताबें और एक छोटी सी डोल – सब कुछ अपने हाथों से पैक करवाता रहा। आज वह पूरी तरह पापा बनकर जाना चाहता था।

फिर से परिवार – भरोसे की डोर

दोपहर ढलने लगी थी। सचिन ने कार का डिक्की बंद की और उसी गली की तरफ बढ़ गया, जहां कल उसकी जिंदगी का सबसे गहरा आईना उसे मिला था। गली अब भी वैसी ही थी – टपकती टंकियां, तंग दरवाजे, हर चौखट पर वहीं थकी हुई जिंदगी। लेकिन आज सचिन का चलना अलग था – कल उसके कदम कांप रहे थे, आज उसकी चाल में भरोसा था।

कविता का घर नजदीक आने लगा और दूर से ही उसे महिमा खटिया पर बैठी दिखी। आज वह लेट नहीं थी, बैठकर कोई पुरानी कॉपी में कुछ लिख रही थी। सचिन रुक गया। उसने एक गहरी सांस ली और फिर धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ा जिसे उसने खुद से कभी बहुत दूर कर दिया था।

महिमा ने उसे देखा और इस बार उसके चेहरे पर वो अजनबियत नहीं थी। वो थोड़ी चौकी जरूर, पर आंखों में एक हल्की चमक थी – “पापा…” उसने धीमे से कहा।

सचिन रुक नहीं सका। उसने झट से अपनी बाहें फैलाईं और महिमा दौड़कर उसके गले लग गई। इस बार वह लिपटने में नहीं हिचकी – जैसे अब भरोसा हो गया हो कि यह गले लगना बस एक पल की चीज नहीं, अब यह रोज का होगा।

वह उसे गोद में उठाए भीतर पहुंचा। कविता दरवाजे पर खड़ी थी – वह उसे देख रही थी, ना मुस्कान थी, ना सवाल। बस इंतजार का सन्नाटा था उसकी आंखों में। सचिन ने महिमा को खटिया पर बैठाया। फिर डिक्की से लाया थैला खोला – दवाइयां, दूध, किताबें, फल, खिलौने सब कुछ निकालकर एक-एक करके सामने रख दिया। और फिर जेब से वह छोटा पैकेट निकाला और कविता की तरफ बढ़ा दिया – “यह तुम्हारे लिए है,” उसने धीरे से कहा।

कविता कुछ पल उसे देखती रही। फिर पैकेट खोला और चूड़ियों के बीच रखा हुआ मंगलसूत्र देखकर चौंक गई। उसकी आंखें भीग गईं। उसने कुछ बोलना चाहा, लेकिन आवाज भीतर ही टूट गई। सचिन उसके पास आया, बहुत धीमे से बोला – “उस दिन तुमने कुछ नहीं कहा था। लेकिन तुम्हारी आंखों में मैं देख पाया था कि तुमने अभी सब पूरी तरह खोया नहीं। अगर माफ कर सको तो इस बार सिर्फ मेरी बेटी को नहीं, मुझे भी अपना बना लो।”

कविता कांप रही थी। उसने हाथ बढ़ाया, मंगलसूत्र थामा और बहुत देर तक उसे देखती रही। फिर धीरे से कहा, “अगर आज के बाद फिर वही गलती की, तो यह चूड़ियां फिर कभी नहीं पहनूंगी।” सचिन की आंखें भर आईं। उसने सिर झुका लिया और बस इतना कहा – “इस बार तुमसे नहीं, अपने आप से भी कोई झूठ नहीं बोलूंगा।”

निष्कर्ष – रिश्तों की कीमत और दूसरी शुरुआत

उस शाम सचिन पहली बार उस घर में ठहरा, जहां कल तक वह चुपचाप खड़ा रहता था और आज उसी घर के अंदर से महिमा की खिलखिलाहट सुनाई दे रही थी। कविता रसोई में थी, चूल्हे पर चाय चढ़ी थी और गैस की धीमी आवाज के साथ चूड़ियों की खनक भी गूंज रही थी। वह मंगलसूत्र अब उसकी गर्दन में था, जिसे सालों पहले आंसुओं में बहा दिया गया था।

महिमा दरवाजे के पास बैठी अपनी नई किताबों के पन्ने पलट रही थी और बीच-बीच में सचिन को देखकर मुस्कुरा रही थी – जैसे हर बार आंखों से कहती हो, “अब कभी मत जाना पापा।”

सचिन चुपचाप खिड़की के पास बैठा था। उसका चेहरा थका हुआ नहीं था, बल्कि शांत था। कई सालों बाद उसे कोई दौलत, कोई दुकान कुछ भी याद नहीं आ रहा था। बस यह तीन जिंदगियां दिख रही थीं, जो आज एक साथ सांस ले रही थीं।

पर सुख की शुरुआत से पहले कुछ अधूरे पन्ने बंद करने जरूरी थे। अगले दिन सुबह सचिन अपनी दुकान पर पहुंचा। जैसे ही अंदर गया, उसका बड़ा भाई सामने आ गया। वही चेहरा, वही आवाज – लेकिन अब उसकी आंखों में ताज्जुब था। सचिन कहां था, दो दिन से फोन भी बंद, दुकान का हिसाब रुका है।

सचिन शांत रहा, धीरे से कुर्सी खींची, बैठा और फिर वही एकदम स्थिर आवाज में कहा – “अब से यह दुकान और यह जिंदगी मेरी होगी, मेरी मर्जी से चलेगी।” भाई चौका, हंसने की कोशिश की – “क्या मतलब है तेरा?” सचिन उसकी आंखों में आंखें डालकर बोला – “मतलब यह कि अब मैं अपने रिश्तों को फिर से जीना चाहता हूं, अपने गुनाहों को माफ नहीं, सुधारना चाहता हूं।”

भाई जहर उगलने लगा – “तेरी जिंदगी तो हमने संभाली, तो तू कहीं का नहीं रहा था।” सचिन ने बात काट दी – “हां, मैं कहीं का नहीं रहा था, क्योंकि मैं खुद को खो चुका था। अब मैंने खुद को वापस पा लिया है। कविता और महिमा के पास जाकर।”

भाई तमतमा गया – “तो क्या दुकान छोड़ देगा?” सचिन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा – “नहीं, अब दुकान मेरे साथ चलेगी, पर इंसानियत के साथ। पैसों के पीछे दौड़ते हुए नहीं, बेटी की हंसी और पत्नी की इज्जत के साथ।”

कई सालों बाद वह अपने छोटे भाई को एक आदमी की तरह खड़ा देख रहा था, जो अब झुक नहीं रहा था।

समाप्ति – रिश्तों की मरम्मत और नई जिंदगी

सचिन उस दिन घर लौटते हुए रास्ते में चुप रहा। लेकिन उसके अंदर की शांति उसके चेहरे पर दिख रही थी। उसने फल लिए, दवाई ली और दो नए स्कूल बैग भी खरीदे। जब कविता के घर पहुंचा, तो कविता दरवाजे पर खड़ी थी, जैसे इंतजार कर रही हो। सचिन ने झोले रखे, महिमा को आवाज दी और चुपचाप बोला – “अब कोई तुम्हें हमसे अलग नहीं कर पाएगा।”

महिमा दौड़कर आई और उसकी कमर से लिपट गई। कविता पीछे से आई और उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। तीनों चुप थे, लेकिन उस खामोशी में अब कोई दर्द नहीं था।

कहानी यहीं समाप्त नहीं होती है। बल्कि यहीं से एक नई शुरुआत होती है। जहां बिखरे हुए रिश्ते फिर से एक कमरे में सांस लेने लगे और एक टूट चुका इंसान फिर से एक पिता, एक पति और सबसे पहले एक इंसान बन गया।

दोस्तों, कभी-कभी हम चुप रहकर उन बातों को होने देते हैं जो रिश्तों को भीतर से तोड़ देती हैं। पर जब वक्त दूसरा मौका दे, तो वह सजा देने नहीं आता, बल्कि आईना लेकर आता है – जिसमें हम देख सकें कि हमने कितना कुछ खो दिया।

क्या आपने भी कभी किसी अपने को सिर्फ इसलिए खो दिया क्योंकि आप घर वालों के कारण बोल नहीं पाए या वक्त रहते साथ नहीं दे पाए? नीचे कमेंट में जरूर बताइए। क्या आप आज भी किसी के लौटने का इंतजार कर रहे हैं? अगर यह कहानी आपके दिल तक पहुंची हो तो वीडियो को लाइक करें, चैनल को सब्सक्राइब करें और इसे अपने दोस्तों तक शेयर करें।