दसवीं फ़ैल लड़के ने करोड़पति से कहा मुझे नौकरी दें 3 महीने में आपकी कंपनी का नक्शा बदल दूंगा , न बदल

गुरुग्राम की चमचमाती इमारतों के बीच, ओबेरॉय टावर्स की ऊँचाई और प्रतिष्ठा सबसे अलग थी। शीशे और कंक्रीट के इस जंगल में, हर कोई एक-दूसरे से ऊँचा दिखने की होड़ में था। ओबेरॉय टावर्स में था ओबेरॉय एंटरप्राइजेज का मुख्यालय, भारत की सबसे पुरानी और बड़ी कंपनी, जिसका नाम नमक से लेकर साबुन तक हर घर में चलता था। इस साम्राज्य के सम्राट थे – सचिन ओबेरॉय। साठ साल के सचिन ने अपने पिता के छोटे कारोबार को अपनी मेहनत, अनुशासन और डिग्रियों के सहारे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बदल दिया था। उनके लिए डिग्री ही काबिलियत का पैमाना थी। चपरासी से लेकर वाइस प्रेसिडेंट तक, हर किसी की योग्यता उसकी फाइल में लगे सर्टिफिकेट से तय होती थी।

लेकिन पिछले कुछ सालों से कंपनी की नींव में दरारें पड़ने लगी थीं। मुनाफा घट रहा था, नए प्रोडक्ट्स नहीं चल रहे थे, कर्मचारियों का जोश ठंडा पड़ चुका था। सचिन रोज अपने ऑफिस में बैठकर बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी से पढ़े मैनेजरों के साथ मीटिंग करते, जो लैपटॉप पर प्रेजेंटेशन दिखाते, मुश्किल अंग्रेजी बोलते और सतही समाधान पेश करते। सचिन को वह जुनून, वह आग कहीं नजर नहीं आती थी जो उन्होंने और उनके पिता ने कभी जलाई थी।

उसी शहर के एक कोने में, पुरानी और भीड़भाड़ वाली कॉलोनी में दिलीप रहता था। चौबीस साल का दिलीप – दसवीं फेल। पढ़ाई में उसका मन कभी नहीं लगा, लेकिन उसकी आंखें तेज और दिमाग मशीन की तरह चलता था। वह चीजों को वैसे देखता था जैसी वे हो सकती थीं। घर की जिम्मेदारी ने उसे ओबेरॉय फैक्ट्री के बाहर चाय की दुकान पर काम करने पर मजबूर किया था। वह दिनभर चाय बनाता, कब धोता और फैक्ट्री के गेट पर नजरें टिकाए रहता। ट्रकों का इंतजार, कर्मचारियों के उदास चेहरे, ड्राइवरों की बातें – सब उसे सोचने पर मजबूर करते थे कि इतनी बड़ी कंपनी में इतनी कमियां क्यों हैं?

एक दिन दिलीप की मां की तबीयत बिगड़ गई। डॉक्टर ने दिल का ऑपरेशन बताया, लाखों का खर्च। दिलीप की दुनिया हिल गई। चाय की दुकान से दो वक्त की रोटी तो चलती थी, इतना बड़ा खर्च नामुमकिन था। उस रात दिलीप सो नहीं पाया। उसने फैसला किया कि वह सचिन ओबेरॉय से मिलेगा।

अगली सुबह, दिलीप ओबेरॉय टावर्स के बाहर खड़ा था। कपड़े सामान्य, आंखों में चमक। गार्ड ने उसे देखकर हंसकर कहा, “पागल है क्या? साहब किसी से नहीं मिलते।” लेकिन दिलीप टस से मस नहीं हुआ। एक कोने में खड़ा रहा, दिन-रात, बारिश-धूप, भूख-प्यास सब सहता रहा। उसकी जिद सिक्योरिटी हेड तक पहुंची, फिर सचिन ओबेरॉय तक। सचिन ने उसे बुलाया, गुस्से में, ताकि उसे डांटकर भगा सके।

कैबिन में दिलीप की आंखों में डर नहीं था। सचिन ने पूछा, “क्या चाहते हो?”
“नौकरी चाहिए,” दिलीप ने सीधा जवाब दिया।
“क्वालिफिकेशन?”
“दसवीं फेल।”
सचिन का गुस्सा सातवें आसमान पर, “गेट आउट!”
दिलीप वहीं खड़ा रहा, “मुझे सिर्फ तीन महीने दीजिए। अगर मैंने कंपनी का नक्शा नहीं बदल दिया, तो मुझे जेल भेज दीजिएगा।”

सचिन हैरान रह गए। एक दसवीं फेल लड़का अरबों की कंपनी बदलने की बात कर रहा था। उन्होंने पूछा, “तुम क्या कर सकते हो जो मेरे मैनेजर नहीं कर पा रहे?”
दिलीप बोला, “वे कंपनी को ऊपर से देखते हैं, मैं नीचे से। गेट नंबर तीन से रोज हजारों लीटर डीजल चोरी होता है, साबुन के गोदाम में लाखों की बर्बादी सीलन से होती है, सम्राट बिस्किट अब बाजार में नहीं बिक रहा क्योंकि प्रतियोगी बेहतर क्वालिटी दे रहे हैं। आपके मैनेजर सब छुपाते हैं, अपनी नौकरी बचाते हैं।”

सचिन को वह बातें सुनकर झटका लगा। ये सब सच्चाई थी, जो उन तक कभी नहीं पहुंची थी। उन्हें दिलीप की आंखों में वही आग दिखी, जो उन्होंने अपनी जवानी में देखी थी। उन्होंने फैसला किया, “ठीक है, तुम्हें तीन महीने का वक्त देता हूं। तनख्वाह ₹10,000 महीना, कोई पद नहीं, सिर्फ ऑब्जर्वर। अगर कुछ नहीं किया, तो सच में जेल भेज दूंगा।”

दिलीप ने मुस्कुराकर कहा, “मंजूर है साहब।”

परिवर्तन की शुरुआत

अगले दिन से दिलीप का मिशन शुरू हुआ। मैनेजरों ने उसका मजाक उड़ाया। ऑपरेशन हेड चड्ढा ने कहा, “सर, आप कंपनी की इज्जत दांव पर लगा रहे हैं।” सचिन ने कहा, “तीन महीने इंतजार करो।”

दिलीप फैक्ट्री के सबसे निचले स्तर पर गया। मजदूरों के साथ खाना खाता, ड्राइवरों के साथ चाय पीता, गार्ड्स के साथ ड्यूटी पर खड़ा रहता। उनकी समस्याएं सुनता, सुझाव लेता। शुरू में सब उसे मैनेजमेंट का जासूस समझते थे, लेकिन दिलीप के सरल स्वभाव ने उनका दिल जीत लिया।

उसने देखा कि साबुन बनाने में बहुत सारा कच्चा माल जमीन पर गिरकर बर्बाद होता है। उसने मशीनों के नीचे बड़ी ट्रे लगवा दी, जिससे गिरा माल इकट्ठा होकर दोबारा इस्तेमाल होने लगा। कंपनी को हर महीने लाखों की बचत हुई।

दूसरा बदलाव – ट्रक ड्राइवरों के लिए टाइम स्लॉट बना दिया, जिससे घंटों इंतजार खत्म। लोडिंग-अनलोडिंग की प्रक्रिया आसान बना दी, तीन घंटे का काम अब एक घंटे में।

मैनेजरों ने दिलीप के खिलाफ माहौल बनाना शुरू किया, लेकिन दिलीप रुका नहीं। उसे लगा, असली समस्या कर्मचारियों का ठंडा पड़ा जोश है। उन्होंने सुझाव पेटी शुरू की – जिसका सुझाव फायदेमंद, उसे इनाम और टीम का लीडर। मजदूरों ने सुझाव देना शुरू किया। एक मैकेनिक ने मशीन की आवाज से पुर्जा खराब होने का पता लगाया, महिला कर्मचारी ने पैकेजिंग का तरीका बदला, लागत 20% कम हुई। दिलीप हर अच्छे सुझाव को लागू करता, कर्मचारी को सम्मानित करता। फैक्ट्री का माहौल बदल गया – अब मजदूर कंपनी के हिस्सेदार थे।

बाजार की चुनौती

दो महीने में कंपनी के अंदरूनी बदलाव हो चुके थे। अब असली लड़ाई बाजार में थी। दिलीप ने सम्राट बिस्किट को चुना। बाजार में जाकर दुकानदारों, ग्राहकों, बच्चों से बात की। पता चला – सम्राट अब पुराना और बोरिंग लगने लगा है। दिलीप रिसर्च लैब गया, वैज्ञानिकों को नए फ्लेवर और पैकेजिंग के सुझाव दिए – चॉकलेट, फ्रूट, मसाला। वैज्ञानिकों ने कभी सोचा भी नहीं था। चड्ढा ने सचिन से शिकायत की, “यह लड़का कंपनी के ब्रांड को बर्बाद कर देगा।” सचिन ने दिलीप को खुली छूट दे दी।

दिन-रात मेहनत के बाद सम्राट नेक्स्ट जन तैयार हुआ – नया स्वाद, नई पैकेजिंग, वही कीमत। तीन महीने पूरे होने में एक हफ्ता बचा था। चड्ढा और टीम ने झूठे आंकड़े तैयार किए, कर्मचारियों को डराकर दिलीप के खिलाफ गवाही देने को कहा।

फैसले का दिन

बोर्ड रूम में मीटिंग हुई। चड्ढा ने ग्राफ्स दिखाए, “दिलीप की वजह से कंपनी को नुकसान हुआ है, अनुशासनहीनता बढ़ी है, सम्राट की पहचान खतरे में है। इसे जेल भेजिए।” डायरेक्टर सहमत थे। सचिन गंभीर थे।

तभी दरवाजा खुला – फैक्ट्री के 100 मजदूर, ड्राइवर, गार्ड, दुकानदार अंदर आ गए। राम भरोसे ने कहा, “मिस्टर चड्ढा झूठ बोल रहे हैं। दिलीप ने तीन महीने में वह कर दिखाया जो आप लोग 30 साल में नहीं कर पाए। हमें इज्जत दिलाई, कंपनी को फायदा करवाया।” सबने अपनी-अपनी कहानी सुनाई – ट्रक ड्राइवर, महिला कर्मचारी, दुकानदार। राम भरोसे ने रजिस्टर पेश किया – दिलीप के आने के बाद की सारी बचत और फायदों का हिसाब।

सचिन ओबेरॉय उठे, “मिस्टर चड्ढा और टीम, अभी इस्तीफा दीजिए और निकल जाइए।” फिर दिलीप के पास आकर बोले, “आज से ओबेरॉय एंटरप्राइजेज के चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर मिस्टर दिलीप होंगे।”

पूरे बोर्ड रूम में सन्नाटा छा गया। एक दसवीं फेल लड़का अरबों की कंपनी का सीओओ!

दिलीप ने हाथ जोड़कर कहा, “मैं इस पद के लायक नहीं हूं।”
सचिन ने कहा, “तुम इस पद से भी बड़े लायक हो। तुमने सिखाया – कंपनी मशीनों से नहीं, लोगों से बनती है। ज्ञान डिग्रियों में नहीं, नजरों में होता है।”

अंतिम सन्देश

उस दिन के बाद ओबेरॉय एंटरप्राइजेज का नक्शा बदल गया। फैसले अब फैक्ट्री के फ्लोर पर होते थे। कंपनी ने सफलता के नए कीर्तिमान बनाए। दिलीप, जो कभी दसवीं फेल था, अब देश के सबसे सफल बिजनेस लीडर्स में से एक था। लेकिन वह आज भी अपना समय मजदूरों के बीच बिताता था, जिन्होंने उस पर तब भरोसा किया जब कोई नहीं करता था।

दोस्तों, यह कहानी सिखाती है – किसी इंसान को उसकी डिग्री या योग्यता से मत आंकिए। हुनर और काबिलियत कागज के मोहताज नहीं होते। दिलीप के पास डिग्री नहीं थी, लेकिन नजर थी, हिम्मत थी, दिल था। आप भी खुद पर भरोसा रखिए, डिग्री नहीं तो क्या, जुनून और ईमानदारी से सब कुछ संभव है।

जय हिंद।