माँ ने भूखे बच्चे के लिए दूध माँगा.. दुकानदार ने ज़लील कर भगा दिया! लेकिन अगले दिन जो 

सोच का बदलाव – रीमा की कहानी

सुबह के 9:00 बजे थे।
बाजार की हलचल शुरू हो चुकी थी।
सब्जी वाले आवाजें लगा रहे थे, चाय की दुकानों से भाप उठ रही थी और दूध की दुकानों पर रोज की भीड़ जमा थी।
इन्हीं आवाजों के बीच एक दुबली-पतली औरत तेजी से चली आ रही थी।
गोद में एक साल का बच्चा जोर-जोर से रो रहा था।
उसका नाम था रीमा
पहनावे से बहुत साधारण – हल्की सी फटी हुई साड़ी, चप्पलों के एक पट्टे की टूटी हुई रस्सी, माथे पर पसीने की लकीरें और आंखों में थकान से भी ज्यादा चिंता।

वो सीधे पहुंची शिव डेयरी नाम की दूध की दुकान पर।
भीड़ में घुसते हुए उसने दुकान के काउंटर पर दोनों हाथ रखे और कांपती आवाज में कहा,
“भैया, थोड़ा दूध दे दीजिए। बच्चा भूखा है। पैसे शाम को ला दूंगी। प्लीज…”

दुकानदार शिवनाथ – उम्र करीब 50, मोटा शरीर, चांदी जैसी बिखरी मूंछें और रूखा चेहरा।
उसने रीमा को ऊपर से नीचे तक देखा और फिर ताना मारते हुए बोला,
“अरे, फिर वही कहानी! कल भी ऐसे ही आई थी। कोई हम मुफ्त सेवा केंद्र नहीं चला रहे हैं।”

भीड़ में खड़े कुछ लोग मुस्कुराने लगे, जैसे कोई तमाशा शुरू हो गया हो।
रीमा ने आंचल से बच्चे का मुंह पोंछा, उसकी रोती आंखों को देखा और फिर दोबारा कहा,
“मैं सच में कल पैसे दे दूंगी भैया, बच्चे ने दो दिन से कुछ नहीं पिया, सिर्फ थोड़ा सा…”

“नाटक मत कर,” शिवनाथ ने डांटते हुए कहा, “तेरे जैसे 100 आते हैं रोज। पैसे नहीं है तो बच्चा क्यों पैदा किया?
निकल यहां से!”

अब रीमा की आंखें भरने लगी थीं।
वह कुछ और कहने ही वाली थी कि शिवनाथ ने गुस्से में दुकान से बाहर की ओर इशारा किया,
“चल जा, नहीं तो खुद बाहर फेंक दूंगा।”

बच्चा अब और तेज रो रहा था।
रीमा ने कोई जवाब नहीं दिया।
उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे।
लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं कहा – ना शिवनाथ को, ना आसपास खड़े तमाशबीनों को।
बस धीरे-धीरे मुड़ी और अपने बच्चे को सीने से चिपका कर चली गई।

कुछ लोगों की नजरें अब भी उस पर थीं।
लेकिन ना किसी ने दूध दिया, ना कोई उसके पीछे गया।
बस एक छोटी सी आवाज पीछे से आई,
“बेचारे को थोड़ा दे देते तो क्या चला जाता।”
लेकिन उस आवाज को भी बाकी भीड़ ने निगल लिया।

उस रात…

रीमा अपने बच्चे को गोद में लेकर एक पुराने झोपड़े में बैठी थी।
सामने एक छोटा सा मिट्टी का चूल्हा था जिसमें आग बुझ चुकी थी।
बच्चा भूख से थक कर सो गया था।
लेकिन रीमा की आंखें अब भी खुली थीं।
वो कुछ सोच रही थी – गहराई से, चुपचाप।
उसकी आंखों में अब आंसू नहीं थे, कुछ और था।
एक शांति, एक धैर्य और कहीं ना कहीं एक सख्त निर्णय।

अगले दिन…

वही बाजार, वही सुबह, वही भीड़।
लेकिन आज कुछ अलग था।
शिव डेयरी के बाहर लोग हमेशा की तरह दूध की लाइन में खड़े थे।
दुकानदार शिवनाथ गल्ले पर बैठा था, वही तनी हुई भौंहें और गुस्से से भरी निगाहें।

तभी अचानक भीड़ के बीच से एक साड़ी पहने महिला अंदर आई।
सबने पलट कर देखा।
वो रीमा थी।
लेकिन आज उसकी चाल में लड़खड़ाहट नहीं थी, चेहरा उतरा हुआ नहीं था और आंखों में आंसू नहीं।
बल्कि एक ऐसी शांति थी जिसे पहचान पाना मुश्किल था।

वो धीरे-धीरे चलती हुई दुकान के काउंटर तक आई।
बच्चा आज भी उसकी गोद में था लेकिन रो नहीं रहा था, सो रहा था आराम से।
आज रीमा ने कुछ मांगा नहीं।
उसने एक पर्स निकाला – हल्के खाकी रंग का, साधारण लेकिन साफ।
उसमें से ₹100 का नोट निकाला और काउंटर पर रख दिया,
“आधा लीटर दूध देना।”

उसकी आवाज नरम थी लेकिन उसमें एक अजीब सी स्थिरता थी।
शिवनाथ उसे पहचान चुका था।
उसका चेहरा तन गया।
एक पल को तो वह कुछ बोल ही नहीं पाया।
“कल तो बहुत मजबूरी में आई थी।
आज इतने पैसे कहां से आ गए?”
उसने आखिर पूछ ही लिया, थोड़ा तिरस्कार, थोड़ा संदेह।

रीमा मुस्कुराई नहीं।
बस हल्के स्वर में कहा,
“जरूरत में जिस इंसान ने एक गिलास दूध के लिए भी मुझे जलील किया, उसे जवाब देने का मन नहीं करता।”

भीड़ अब पूरी तरह चुप थी।
तभी एक सफेद कार सड़क के उस पार आकर रुकी।
उससे उतरे दो लोग – एक महिला और एक पुरुष।
दोनों बेहद सलीके से तैयार।

महिला ने आते ही रीमा की ओर बढ़कर कहा,
“मैम, आपको लेने आए हैं। एनजीओ मीटिंग में थोड़ी देर हो रही है।”

अब तक सबकी आंखें फटी रह गईं।
“मैम? एनजीओ?”
शिवनाथ ने चौंक कर पूछा,
“यह क्या चल रहा है?”

रीमा ने अब उसकी ओर देखा,
“तुमने कल मुझे सिर्फ एक गरीब, बेसहारा मां समझा जो अपने बच्चे के लिए भीख मांग रही थी।
लेकिन तुम नहीं जानते थे कि मैं एक रजिस्टर्ड एनजीओ की संस्थापक हूं,
जो जरूरतमंद महिलाओं और बच्चों के लिए काम करती है।
कल तुम्हें परखना चाहती थी और तुम नाकाम रहे।”

अब शिवनाथ का चेहरा पीला पड़ गया।
“माफ कर दीजिए,” उसके मुंह से धीमी आवाज निकली।

रीमा ने उसे देखा, फिर बोली,
“माफ कर दूंगी, अगर आगे किसी जरूरतमंद को तुम्हारे यहां से खाली हाथ ना लौटना पड़े।
इंसान की पहचान उसकी हालत से नहीं, उसके व्यवहार से होती है।”

उसने दूध की थैली उठाई, अपना बच्चा गोद में संभाला और कार की ओर बढ़ गई।
पूरी भीड़ अब सन्न थी।
कुछ पल बाद ही शिवनाथ के बोर्ड के नीचे एक नया पोस्टर चिपका गया –
**एनजी