लखनऊ की सुबह हमेशा की तरह भीड़भरी थी। चारबाग़ रेलवे स्टेशन के बाहर ऑटो रिक्शों की लंबी कतारें खड़ी थीं। ट्रैफिक के शोर और धूल के बीच एक पुराना पीला-हरा ऑटो धीरे-धीरे सरक रहा था। उसके स्टेयरिंग पर बैठा था रज़ाक, चालीस पार का दुबला-पतला आदमी। चेहरे पर थकान और झुर्रियाँ थीं, मगर आँखों में गहरी सादगी।
उस दिन रज़ाक के मन में एक ही चिंता थी—बीमार पत्नी के लिए दवा और बेटे की स्कूल की फीस। जेब में मुश्किल से सौ-दो सौ रुपये थे। वह सोच रहा था कि अगर आज दिन अच्छा निकला तो शाम को दवा भी ले आएगा और फीस भी भर देगा।
इसी बीच, एक औरत उसके ऑटो के पास आई। उसने नीले रंग का साधारण सूट पहन रखा था, आँखों पर काला चश्मा और सिर पर हल्की-सी चुन्नी। चेहरा थका हुआ लग रहा था, लेकिन चाल में आत्मविश्वास झलक रहा था।
रज़ाक ने ब्रेक दबाया और पूछा—
“किधर जाना है, मैडम?”
महिला ने संक्षिप्त स्वर में कहा—
“बक्शी का तालाब… जल्दी।”
रज़ाक ने सिर हिलाया और ऑटो आगे बढ़ा दिया।
रास्ते भर महिला चुप रही। वह बार-बार अपना बैग कसकर पकड़ती और चारों ओर सतर्क नज़र डालती। रज़ाक ने सोचा शायद कोई ज़रूरी काम होगा।
लेकिन आधे घंटे बाद अचानक उसके कानों में एक आवाज़ गूंजी। महिला की सांस तेज हो रही थी, और अगले ही पल वह सीट पर ढेर होकर बेहोश हो गई।
रज़ाक घबरा गया। उसने ऑटो किनारे लगाया, महिला को गोद में उठाया और सीधे पास के निजी अस्पताल की ओर दौड़ा। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह हाँफ रहा था, लेकिन आवाज़ गूंज रही थी—
“डॉक्टर! जल्दी आइए, जान बचाइए।”
डॉक्टर और नर्सें दौड़ते हुए आए, महिला को इमरजेंसी में ले जाया गया। रज़ाक बाहर बैठा रहा, माथे से पसीना बहता रहा।
कुछ देर बाद डॉक्टर ने बताया कि समय रहते लाने से जान बच गई है। किसी ने महिला को ज़हर दे दिया था।
तभी पुलिस की गाड़ियों का शोर सुनाई दिया। कई अफसर अंदर भागे और सीधा उसी महिला के पास पहुँचे। रज़ाक ने चौंककर देखा—वह कोई आम महिला नहीं थी, बल्कि आईपीएस अधिकारी नीरा चौहान। राज्य की सबसे तेजतर्रार और निडर अफसर।
पहली मुलाक़ात
जब नीरा को होश आया तो उसने सबसे पहले उसी साधारण ऑटो चालक को ढूँढा, जिसने उसकी जान बचाई थी। रज़ाक झिझकते हुए आया, सिर झुकाकर बोला—
“मैडम, मैंने तो बस इंसान समझकर मदद की।”
नीरा ने हल्की मुस्कान दी।
“और यही सबसे बड़ी बात है। तुमने मुझे इंसान समझा, पद नहीं।”
बातों-बातों में नीरा को पता चला कि रज़ाक की पत्नी लंबे समय से बीमार है और उसका बेटा पढ़ना चाहता है, मगर फीस भरना मुश्किल हो रहा है। उस साधारण आदमी की आँखों में सच्चाई और संघर्ष देखकर नीरा को गहरा असर हुआ।
ख़तरनाक मिशन
नीरा उस समय एक बड़े मिशन पर थी। राज्य में फैले मानव तस्करी गिरोह को पकड़ना उसका लक्ष्य था। लेकिन रास्ते में उसे ज़हर देना, इस बात का सबूत था कि दुश्मन बेहद ताकतवर और संगठित हैं।
नीरा को अब किसी ऐसे इंसान की ज़रूरत थी जिस पर वह भरोसा कर सके, जो गिरोह की नज़रों से बचकर जानकारी पहुँचा सके। उसने रज़ाक को एक छोटा कैमरा और वायरलेस डिवाइस दिया।
“रज़ाक, मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। यह गिरोह स्टेशन, ऑटो स्टैंड और सड़कों से लड़कियों को गायब करता है। तुम इनके बीच रहोगे, शक भी नहीं होगा। बस जो देखो, रिकॉर्ड करो और मुझे भेज दो।”
रज़ाक ने बिना एक पल सोचे हामी भर दी।
“मैडम, अगर मेरी मदद से किसी की ज़िंदगी बचती है तो मैं अपनी जान भी लगा दूँगा।”
जोखिम भरा सफर
कुछ ही दिनों में रज़ाक ने चौंकाने वाले सबूत जुटाए। उसने देखा कि किस तरह साधारण दलाल स्टेशन पर खड़े रहते और अकेली लड़कियों को लालच देकर ले जाते। उसने कई बातचीत रिकॉर्ड कीं।
एक रात रज़ाक ने फोन पर नीरा को बताया—
“मैडम, कल रात गोमती नगर के गोदाम में बड़ा सौदा है। सुना है वहाँ कोई बड़ा आदमी भी आने वाला है।”
नीरा ने तुरंत टीम को अलर्ट किया।
अगली रात पुलिस ने उस गोदाम को घेर लिया। अंदर से कई लड़कियाँ आज़ाद कराई गईं। और गिरोह का मास्टरमाइंड पकड़ा गया—विवेक सिंह, एक कद्दावर मंत्री का बेटा।
नीरा ने हथकड़ी लगाते हुए कहा—
“बहुत सालों से तुम बचते आ रहे थे, अब न्याय मिलेगा।”
रज़ाक की बहादुरी
मिशन की सफलता के बाद जब प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई तो नीरा ने सबके सामने साफ कहा—
“अगर रज़ाक भाई की बहादुरी और ईमानदारी न होती, तो आज ये बच्चियाँ कभी आज़ाद न हो पातीं।”
पूरे राज्य में रज़ाक की चर्चा होने लगी। लोग उसे “इंसानियत का प्रहरी” कहने लगे।
राज्यपाल ने उसे सम्मानित किया। मंच पर खड़े होकर रज़ाक ने भीड़ से कहा—
“मेरे अब्बा हमेशा कहते थे—अगर इंसानियत न बची तो कुछ नहीं बचेगा। मैं तो बस वही करता रहा।”
नई पहल
इस घटना के बाद नीरा ने एक नई पहल शुरू की—“जन प्रहरी अभियान।” इस योजना में आम नागरिकों को अपराध रोकने और सूचना पहुँचाने का प्रशिक्षण दिया जाता।
रज़ाक इस अभियान का चेहरा बना। वह युवाओं को संबोधित करता और कहता—
“पढ़ाई-लिखाई जरूरी है, मगर इंसानियत उससे भी बड़ी चीज़ है। अगर आप अपने आसपास अन्याय देखें और चुप रहें, तो गुनहगार आप भी हैं।”
धीरे-धीरे हज़ारों लोग इस अभियान से जुड़े। शहर की सड़कों पर पोस्टर लगे—
“जन प्रहरी बनो, बदलाव लाओ।”
रज़ाक का परिवार
इस बीच नीरा ने यह भी सुनिश्चित किया कि रज़ाक का बेटा अच्छे स्कूल में पढ़े। सरकारी स्कॉलरशिप से उसकी पढ़ाई का इंतज़ाम हुआ। बीमार पत्नी का इलाज भी करवाया गया।
एक दिन रज़ाक की पत्नी ने नीरा का हाथ पकड़कर कहा—
“मैडम, आपने हमारे घर में फिर से रोशनी ला दी। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि कभी मेरा बेटा डॉक्टर बनने का सपना देख पाएगा।”
नीरा की आँखें नम हो गईं।
“नहीं चाची, यह सब आपके रज़ाक भाई की हिम्मत का फल है। अगर उन्होंने जान जोखिम में डालकर मदद न की होती, तो मैं भी जिंदा न होती।”
इंसानियत की जीत
वक़्त गुजरता गया। विवेक सिंह और उसके गिरोह को कड़ी सज़ा मिली। rescued लड़कियाँ समाज में फिर से सम्मान से जीने लगीं।
लेकिन असली जीत उन दोनों की थी—नीरा और रज़ाक की। एक ओर कानून की रक्षक, दूसरी ओर एक साधारण ऑटो चालक। दोनों ने मिलकर साबित कर दिया कि बदलाव लाने के लिए सिर्फ़ पद या ताकत नहीं, बल्कि इंसानियत और हिम्मत चाहिए।
उपसंहार
कुछ साल बाद जब “जन प्रहरी” अभियान पूरे प्रदेश में फैल गया तो रज़ाक एक कार्यक्रम में बोला—
“आज मैं ऑटो भी चलाता हूँ और बच्चों को ईमानदारी का पाठ भी पढ़ाता हूँ। लोग पूछते हैं कि तुम्हें क्या मिला? मैं कहता हूँ—मिला तो सिर्फ़ सुकून, और यही सबसे बड़ी दौलत है।”
नीरा ने मंच से उसकी ओर देखकर कहा—
“रज़ाक भाई, आप मेरे लिए सिर्फ़ मददगार नहीं, बल्कि प्रेरणा हैं। आपने मुझे याद दिलाया कि पुलिस की वर्दी से भी बड़ी ताक़त है इंसानियत।”
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