“खिड़की के बाहर से”
दिल्ली की ठंडी सुबह थी। सरकारी स्कूल नंबर 94, जनकपुरी में उस दिन कुछ भी असामान्य नहीं था। श्वेता मैडम रोज़ की तरह सुबह 9:30 पर अपनी नीली स्कूटी से स्कूल पहुँची थीं। स्कूल की घंटी बजने के साथ ही बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में घुस गए थे।
कक्षा चार की क्लासरूम में ब्लैकबोर्ड पर एक चॉक की हल्की सी ध्वनि गूंज रही थी। श्वेता मैडम उस दिन “फ्रैक्शंस” पढ़ा रही थीं। उनके हाथ में सफेद चॉक थी, लेकिन मन कहीं और। वो किताब से हटकर कुछ खुद से समझा रही थीं।
“देखो बच्चों,” वो बोलीं, “जब डिनॉमिनेटर एक जैसा हो, तो न्यूमैरेटर को सीधे जोड़ दो। जैसे… 2/3 + 3/3 = 6/3।”
बच्चे चुपचाप सुन रहे थे। 40 मासूम चेहरे, नोटबुक पर वही लिखते जो मैडम कहतीं। किसी को सवाल पूछने की हिम्मत नहीं थी।
लेकिन तभी एक आवाज आई—धीमी लेकिन स्पष्ट।
“मैडम, आप गलत पढ़ा रही हैं।”
पूरी क्लास जैसे जम सी गई। पंखे की धीमी आवाज भी तेज़ लगने लगी।
श्वेता चौक गईं। आवाज खिड़की की ओर से आई थी।
वहाँ खड़ा था—आरव।
धूल में लिपटा चेहरा, एक ही चप्पल, कंधे पर बोरी, आंखों में आत्मविश्वास। 11 साल का बच्चा—लेकिन उसकी आंखें किसी गणितज्ञ की तरह चमक रही थीं।
“तू कौन है?” श्वेता बोलीं, आवाज़ में गुस्सा।
“मैं आरव हूं मैडम। मैं कूड़ा बिनता हूं। लेकिन रोज़ आपकी क्लास खिड़की से सुनता हूं।”
क्लास में कुछ बच्चों ने हँसी दबाई। “भाईसाहब गणित सिखा रहे हैं!” किसी ने फुसफुसाया।
लेकिन आरव ने नज़रें नहीं झुकाईं।
“2/3 + 3/3 = 5/3 होता है, मैडम। आपने 6/3 कहा, वो गलत है। और 2 – 3 = -1 होता है, पॉजिटिव नहीं।”
श्वेता का चेहरा तमतमा उठा। “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी क्लास में दखल देने की?” वह उसके कॉलर से पकड़ती हुई उसे प्रिंसिपल के ऑफिस की ओर ले गईं।
प्रिंसिपल के सामने सच्चाई
प्रिंसिपल अरविंद मेहरा 50 के करीब के व्यक्ति थे—कठोर दिखने वाले, लेकिन दिल से कोमल। जब श्वेता गुस्से में चीख रहीं थीं, वह चुपचाप आरव को देख रहे थे।
“सर,” श्वेता बोलीं, “ये लड़का स्कूल में घुस आया है। मेरी पढ़ाई में दखल दे रहा है। इस पर केस होना चाहिए।”
अरविंद ने शांत स्वर में पूछा, “तुम्हारा नाम?”
“आरव कुमार, सर,” वह बोला, आंखों में नमी लेकिन स्वर में कोई झूठ नहीं।
“तुम यहाँ क्यों खड़े होते हो?”
“सर, मैं रोज़ सुबह 5 से 8 तक कूड़ा बीनता हूं, फिर स्कूल आता हूं। क्लास के बाहर बैठकर सुनता हूं। घर में कोई किताब नहीं। लेकिन मुझे पढ़ना है। इसलिए सुनता हूं… और आज गलती लगी तो बोल दिया।”
कमरे में कुछ क्षणों की चुप्पी छा गई।
एक टेस्ट, दो सोचें
अरविंद ने कहा, “चलो, एक टेस्ट लेते हैं।”
श्वेता हँसी, “ये बच्चा? कॉलेज वालों को मैं फेल कर चुकी हूं, ये क्या जानेगा?”
आरव ने सवाल का सही उत्तर दिया—5/3 या 1.66।
श्वेता का चेहरा सफेद पड़ गया। प्रिंसिपल ने उसकी ओर देखा और कहा, “आप 15 वर्षों से यही पढ़ा रही हैं? और एक कूड़ा बिनने वाला बच्चा खिड़की से सही उत्तर देता है। क्या आपको शर्म नहीं आई?”
श्वेता की आंखों से आँसू बहने लगे।
नई शुरुआत
“इस बच्चे को आज से स्कूल में दाखिला दिया जाएगा,” अरविंद बोले। “यूनिफॉर्म, बुक्स, शूज़—सब कुछ स्कूल देगा। और कल से क्लास के अंदर बैठेगा, खिड़की के बाहर नहीं।”
आरव की आंखों से आँसू बह निकले—इस बार अपमान के नहीं, खुशी के।
“सर, मैं सच में पढ़ पाऊंगा?”
“हां बेटा। तुमने हक़ कमाया है।”
स्कूल स्टाफ बाहर आया, तालियाँ बजीं। कुछ टीचर्स की आंखें नम हो गईं।
श्वेता चुपचाप बाहर चली गईं।
अरविंद बोले, “आप एक टीचर थीं। लेकिन ज्ञान नहीं, केवल अहंकार था। आज आपका अंतिम दिन है।”
आकाश की ओर
शाम को, स्कूल के रजिस्टर में एक नया नाम जुड़ा—आरव कुमार, कक्षा 4, रोल नंबर 41।
वह पहली बार स्कूल की असली बेंच पर बैठा। उसके हाथ में आईडी कार्ड था। उसके कंधे पर एक स्कूल बैग था, किताबों से भरा हुआ। और उसके चेहरे पर वो मुस्कान थी—जो गरीबी नहीं छीन सकी, न अपमान, न ही अहंकार।
प्रिंसिपल उसके पास बैठे। “बेटा, तुम्हारे जैसे बच्चे देश बदलते हैं।”
आरव ने सिर हिलाया।
“बस सर, मुझे पढ़ने दीजिए। बाकी मैं कर लूंगा।”
अंतिम पंक्तियाँ
यह कहानी सिर्फ आरव की नहीं, हर उस बच्चे की है जो गरीबी की दीवारों के बावजूद ज्ञान की खिड़की ढूंढ लेता है। ये कहानी उस साहस की है जो हक़ मांगता नहीं, अर्जित करता है।
और यह कहानी एक सबक है—कि कभी-कभी एक बच्चा, जिसकी जेब में कुछ नहीं, वह भी एक शिक्षक को आईना दिखा सकता है।
अगर इस कहानी ने आपके दिल को छुआ, तो इसे शेयर करें। कमेंट करें: “हर बच्चा पढ़ने लायक है।” और याद रखिए, कहानी कहीं से भी शुरू हो सकती है—शायद एक खिड़की से भी।
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