30 इंजीनियर असफल रहे, सब्ज़ी बेचने वाली दादी ने 10 मिनट में मशीन ठीक कर दी, पूरा कारखाना नतमस्तक हो

कमला मैम का कोना – मशीनों से मनुष्यता तक

प्रस्तावना

पुणे शहर की सुबह हल्की धुंध और चाय की महक से भरी थी। भीड़-भाड़ के बीच, हिंजवाड़ी इंडस्ट्रियल एरिया के भार्गव ऑटोटेक परिसर में एक असाधारण हलचल थी। मुख्य गेट पर तकनीकी भर्तियों का बड़ा सा बैनर लटका था। युवा उम्मीदें लिए, कतार में खड़े थे – कोई फॉर्मल शर्ट में, कोई लैपटॉप बैग लेकर, माथे पर पसीने की बूंदें।

इसी भीड़ में एक आकृति सबका ध्यान खींच रही थी – कमला जोशी, उम्र 60 पार, पतली काठी, झुकी पीठ, चेहरे पर झुर्रियां लेकिन आंखों में आत्मविश्वास। पुरानी नीली साड़ी, फटा पल्लू, रबर की चप्पलें, एक हाथ में जूट का थैला, दोनों कंधों पर सब्जियों की टोकरी। वह बिना संकोच सीधे रिसेप्शन डेस्क पर पहुंची।

भाग 1: उपेक्षा और तिरस्कार

कमला ने जूट के थैले से प्लास्टिक में लिपटी फाइल निकाली और मेज पर रख दी –
“मैं टेक्निकल क्लीनिंग असिस्टेंट की पोस्ट के लिए आवेदन देना चाहती हूं। वर्षों का अनुभव है, मशीनों को समझना चाहती हूं। वेतन ज्यादा नहीं चाहिए।”

प्रिया और राहुल ने उसकी फाइल खोली, हंसी रोक नहीं पाए –
“मैडम, यह हाईटेक ऑटोमेशन की दुनिया है। आपके जैसे लोगों को कहीं और देखना चाहिए।”

कमला ने सिर झुकाया, धन्यवाद कहा, टोकरी उठाई और बाहर निकल गई। परिसर में उसकी चुप्पी चुभ रही थी। मोहित वर्मा (पर्यवेक्षक) ने समझाया –
“आंटी, यहां का माहौल आपके लिए कठिन है। कोई और काम देख लीजिए।”

कमला मुस्कुराई और चली गई। उसकी चाल में झिझक नहीं थी, लेकिन भीतर सवाल था –
क्या मशीनें भूल जाती हैं कि उन्हें चलाने वाला कोई इंसान था?

भाग 2: बीते हुए कल की छाया

शाम को कमला अपने पुराने घर में बैठी थी। सामने रजिस्टर खुला था – अंग्रेजी, मराठी, रूसी में नोट्स, मशीनों की स्कीमेटिक डायग्राम, हस्तलिखित टिप्पणियां। दीवार पर पति अरुण जोशी के साथ लैब कोट पहने तस्वीर थी – दोनों के हाथ में ओसिलोस्कोप, वायरिंग डायग्राम।

अरुण जोशी एनआईडी के तेज इंजीनियर थे। एक दिन लैब में शॉर्ट सर्किट हुआ, विस्फोट में अरुण की जान चली गई। जांच बैठी, कमला ने खुद को जिम्मेदार ठहराया –
“कुछ ज्ञान आत्मा में बसता है, उसे प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।”

इस्तीफा देकर लैब छोड़ दी। पैसा खत्म, रिश्तेदार दूर, रह गए डायग्राम्स, सर्टिफिकेट्स और अधूरी चुप्पी।
बेटा विनय बेंगलुरु में – “अम्मा, यह सब फेंक दीजिए, पुराना जमाना चला गया।”
कमला मुस्कुरा देती – “भाषा बदल सकती है, सिद्धांत नहीं।”

भाग 3: हादसा और मौका

अगले दिन खबर आई – भार्गव ऑटोटेक की 30 करोड़ की मशीन बंद हो गई, कोई ठीक नहीं कर पा रहा। जर्मन इंजीनियर बुलाए गए हैं।
कमला के भीतर कुछ जाग गया – मशीनों की गंध, वायरिंग, लॉजिक गेट्स।
क्या वही प्रणाली है, जो बरसों पहले उसने विकसित की थी?

कमला ने तय किया –
अब समय है अपनी पहचान को, हर उस स्त्री की पहचान को आवाज देने का, जिसे उम्र, लिबास या भाषा के नाम पर खामोश किया गया।

भाग 4: वापसी और चुनौती

कमला फिर फैक्ट्री पहुंची। गार्ड हंसा –
“अम्मा, मशीन बीमार है, डॉक्टर काम नहीं आ रहे, आप क्या करेंगी?”

कमला ने रजिस्टर खोला – वायरिंग डायग्राम, तकनीकी नोट्स।
इसी वक्त अंदर से इंजीनियर आया –
“रिले रिस्पांस नहीं दे रहा, एल5 फिर फेल।”

कमला ने सुना, रजिस्टर के पेज पर पहुंच गई –
“मुझे मशीन तक ले चलो।”

भाग 5: पहचान और समाधान

कंट्रोल रूम में जर्मन टीम, शंकर देशमुख, क्लाउस रिटर – सब परेशान।
कमला ने दरवाजा खोला –
“मैं इस मशीन की पहली पीढ़ी से परिचित हूं। मुझे एक बार देखने दीजिए।”

सब चौंके – कमला जोशी? वही जिसने भारत की पहली सीएनसी प्रणाली की नींव रखी थी?

कमला ने क्लाउस से कहा –
“यू आर ट्रबल शूटिंग द रॉन्ग लेयर। रिले लूप एल5 में थर्मोफ्लेक्स पॉइंट मिस कर रहे हैं। ओवरहीटिंग पर डिस्कनेक्ट होता है।”

रजिस्टर दिखाया –
“आई डिज़ाइन्ड इट। अरुण जोशी और एनआईडी कंट्रोल सिस्टम स्लैब।”

मृदुल ने देखा –
“यह वही मूल डिजाइन है।”

क्लाउस ने कहा –
“इट वुड बी एन ऑनर, मैम।”

कमला ने मुस्कुराकर कहा –
“बस एक पेचकस और चिमटी दीजिए।”

भाग 6: मशीन का पुनर्जीवन

कमला ने मशीन के कोर पैनल को खोला – गर्मी की लहर, तार, चिप्स।
“यह कनेक्शन थर्मल विस्तार से कट रहा है। सोल्डरिंग से ताप बढ़ेगा, ब्रिज वायरिंग लगानी होगी।”

अपने थैले से तांबे की वायर निकाली –
“जिस दिन मैंने तकनीकी दुनिया छोड़ी थी, उस दिन भी यह वायर साथ थी।”

ब्रिज वायर लगाई, कनेक्शन जोड़ा।
शंकर ने मशीन ऑन की – डिस्प्ले चमका, स्क्रीन हरी हुई, रोबोटिक आर्म घूमा, बेल्ट चला, सिस्टम स्टेबल।

पूरे फ्लोर पर तालियां गूंज उठीं।
कमला शांत, स्थिर, मुस्कुराती –
जैसे कुछ नया नहीं, बस भुला हुआ याद दिलाया हो।

भाग 7: सम्मान और आत्मचिंतन

शंकर देशमुख बोले –
“मैम, आपने सिर्फ मशीन नहीं, हमारी सोच को पुनर्जीवित किया।”

क्लाउस रिटर –
“आज मैंने फाउंडेशन का प्रेजेंस महसूस किया।”

रमेश पातिल (पूर्व IIT प्रोफेसर) भावुक –
“कमला, तुम तो अचानक गायब हो गई थी। तुम्हारी लेगसी रिले इन फ्यूचर सर्किट्स आज भी पढ़ाते हैं।”

प्रिया और राहुल माफी मांगते हैं –
“मैम, मैं माफी चाहती हूं।”
कमला –
“गलती करना मानव का स्वभाव, स्वीकार करना साहस।”

शंकर ने प्रस्ताव रखा –
“आप भार्गव ऑटोटेक की सीनियर टेक्निकल मेंटर बनें।”

कमला –
“मुझे कोई पद नहीं चाहिए, सिर्फ एक कोना चाहिए जहां मशीनों के पास बैठ सकूं, जो भी सीखना चाहे उसे सिखा सकूं।”

भाग 8: विरासत का आरंभ

कमला मैम का कोना अब नया केंद्र बन गया –
सादा टेबल, दो स्टूल, सफेद बोर्ड, पुराना रजिस्टर।
हर दिन युवा इंजीनियर वहां आते – सीखते, सवाल पूछते, संवाद करते।

कमला अब सिर्फ सिखाने वाली नहीं, साथ चलने वाली थीं।
उनके संवाद में मशीनों के सिद्धांत, लॉजिक गेट्स का इतिहास, और सबसे अहम – विनम्रता की शिक्षा।

अब कोई उन्हें सब्जी बेचने वाली नहीं कहता था।
अब सब उन्हें एक ही नाम से जानते थे – कमला मैम, जो मशीनों को समझती है और इंसानों को भी।

भाग 9: बदलाव की लहर

भार्गव ऑटोटेक में अब मशीनों की आवाज के साथ ज्ञान की हलचल थी।
शंकर ने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के साथ बैठक में प्रस्ताव रखा –
“कमला जोशी मेंटरशिप सेंटर स्थापित किया जाए।”

कमला ने कहा –
“नाम से क्या बदलता है? प्रेरणा काम से आती है। दीवारों पर मेरे डिजाइंस हों, तिप्पणियां हों, लेकिन मेरा चेहरा नहीं।”

ओपन लर्निंग सेंटर बना –
हर डिजाइन, हर संवाद कमला मैम के विचारों से प्रेरित।

दीवार पर एक पंक्ति उकेरी गई –
“ज्ञान वह नहीं जो दिखे, ज्ञान वह है जो भीतर जगे।”

भाग 10: अंतिम पाठ

समय बीतता गया।
प्रिया कमला प्रोजेक्ट की कोऑर्डिनेटर बनी, राहुल मेंटर।
हर गुरुवार ओपन सेशन – छात्र, टेक्नीशियन, पुराने कर्मचारी हिस्सा लेते।

एक दिन पार्सल आया –
“उन लोगों के लिए जिन्होंने सवाल करना सीखा।”
उसमें एक पुरानी किताब थी – “प्रिंसिपल्स ऑफ इलेक्ट्रोमैक्स”
पहले पन्ने पर नोट –
“शिक्षा सवाल पूछने से शुरू होती है। अगर तुम भी सवाल पूछते हो तो यह किताब तुम्हारी है। – कमला जोशी”

संयंत्र के डिजिटल बोर्ड पर हर दिन कमला मैम की डायरी से एक पंक्ति प्रदर्शित होती –
“ज्ञान तब तक अधूरा है जब तक वह किसी और की मदद ना करें।”

कमला प्रोजेक्ट अब राज्य के तकनीकी संस्थानों का मॉडल बन चुका था।
हर नए ट्रेनी को सबसे पहले कमला मैम के कोने में ले जाया जाता।

भाग 11: विदाई और अमरता

एक दिन कमला संयंत्र नहीं आई।
उनकी स्टूल खाली थी, लेकिन उपस्थिति हर कोने में महसूस होती रही।
शंकर ने कहा –
“ज्ञान देने के बाद चुपचाप चले जाना ही सबसे महान सेवा है।”

कमला प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई –
मशीन को उपकरण नहीं, जिम्मेदारी समझो।

संयंत्र के मुख्य द्वार पर बोर्ड –
“ज्ञान तब तक अधूरा है जब तक वह किसी और की मदद ना करें।”

प्रिया ने डायरी में लिखा –
“कमला मैम कहती थी, गलती तब तक खराब नहीं होती जब तक तुम उसे दोहराओ नहीं।”

भाग 12: निष्कर्ष

कमला जोशी चली गईं, लेकिन एक संस्कृति छोड़ गईं –
एक आखिरी पाठ, जो किसी किताब में नहीं, हर दिल में लिखा गया।

कमला मैम का कोना अब संस्था की पहचान बन चुका था।
विरासत, अनुभव, विनम्रता, मानवीयता – सब एक जगह।
मशीनें चल रही थीं, लेकिन आज सबसे ज्यादा एक आत्मा ने फिर से गति पाई थी।

सीख:
ज्ञान का आदर कीजिए।
विरासत को सम्मान दीजिए।
मशीनें नाम से नहीं, सिद्धांत से चलती हैं।
और सबसे बड़ी बात –
साधारणता में ही असाधारण बनना संभव है।

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