3 साल से गेट पर बैठा भिखारी बच्चा…प्रिंसिपल ने अंदर बुलाकर एक सवाल पूछा—फिर जो हुआ, सब दंग रह गए

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तीन साल से गेट पर बैठा भिखारी बच्चा—दिल्ली स्कूल की सच्ची कहानी

भाग 1: गेट पर बैठा साया

दिल्ली के सूर पब्लिक स्कूल की सुबहें हमेशा चहकती थीं। हजारों बच्चे हँसते-गाते अपनी किताबों और टिफिन के साथ भीतर जाते थे। गाड़ियों के हॉर्न, अभिभावकों की जल्दी, और सुरक्षा गार्ड की आवाजें—हर दिन यही माहौल रहता। लेकिन उसी भीड़ के कोने में, स्कूल के गेट के बाएँ तरफ, एक आठ साल का बच्चा फटी शर्ट, नंगे पैर, हाथ में कटोरा लिए चुपचाप बैठा रहता था। उसके चेहरे पर डर की परछाईं थी, जो पत्थर दिल को भी पिघला दे।

तीन साल से हर सुबह, हर मौसम में वह बच्चा वहीं बैठा रहता। बच्चों के लिए वह कभी डर, कभी मजाक था। लेकिन किसी ने उसका नाम नहीं पूछा, न उसकी कहानी जानने की कोशिश की। उसके लिए दुनिया बस एक गुजरती भीड़ थी, और वह—उस भीड़ का हिस्सा भी नहीं था।

भाग 2: प्रिंसिपल की नजर

स्कूल की प्रिंसिपल अनुपमा शर्मा, जो पिछले 22 सालों से इस स्कूल में थीं, सख्त थीं, लेकिन दिल से बेहद संवेदनशील। एक सुबह जब वे गेट से अंदर जा रही थीं, उनकी नजर पहली बार उस बच्चे की आँखों से मिली। उन आँखों में एक ऐसी पुकार थी, जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल था।

अनुपमा रुक गईं। उन्होंने बच्चे के पास जाकर पूछा, “बेटा, क्या नाम है तुम्हारा?”
बच्चा चुप रहा, बस उसकी साँसें तेज थीं और आँखों में डर। अनुपमा ने प्यार से कहा, “डरो मत। मैं तुम्हें मारूंगी नहीं। चलो मेरे साथ अंदर आओ।”
स्कूल के स्टाफ और बच्चों ने देखा—पहली बार वह बच्चा उठ रहा था, पहली बार किसी के साथ स्कूल के अंदर जा रहा था।

भाग 3: पुरानी तस्वीर का राज

अनुपमा बच्चे को अपने ऑफिस ले गईं। तभी दो टीचर और एक पीटी सर भागते हुए अंदर आए। उन्होंने घबराकर कहा, “मैडम, इसे अंदर मत लीजिए, ये बच्चा…” उनकी आवाज रुक गई।
अनुपमा ने पूछा, “क्यों? क्या हुआ है?”
कमरे में सन्नाटा छा गया। बच्चे की नजर टेबल पर रखी एक पुरानी फोटो फ्रेम पर पड़ी। उसने कांपते हाथों से फोटो उठाया। फोटो में स्कूल की एक पुरानी क्लास थी, और पहली बेंच पर वही बच्चा मुस्कुराता हुआ बैठा था।

स्टाफ सदमे में था। अनुपमा बोलीं, “ये तो उसी क्लास का बच्चा है। लेकिन आज इसकी हालत ये कैसे?”
पीटी सर ने कहा, “मैडम, इसका नाम आरुष राठौर है। तीन साल पहले तक ये क्लास वन-बी का सबसे होशियार स्टूडेंट था। शांत, सभ्य और सबका चहेता।”

भाग 4: हादसा और साजिश

अनुपमा ने पूछा, “इसके माँ-बाप कहाँ हैं? इसे इस हालत में किसने छोड़ दिया?”
टीचर रानी ने याद दिलाया, “तीन साल पहले स्कूल वैन का एक्सीडेंट हुआ था।”
अनुपमा का चेहरा पीला पड़ गया। उन्हें वह दिन याद आया—तेज बारिश, फिसली सड़क, खाई में गिरी वैन, खून में लथपथ ड्राइवर।
टीचर ने बताया, “वैन में आरुष भी था। भीड़ ने सोचा कि बच्चा मर गया है, कोई उसे छूने तक नहीं गया। पास की झुग्गी में रहने वाली बूढ़ी औरत ने उसे उठा लिया, खाना-पानी दिया, बचाया। लेकिन छह महीने बाद वह औरत मर गई और बच्चा सड़कों पर अकेला रह गया।”

भाग 5: माँ की आखिरी पुकार

अब तक आरुष चुप खड़ा सब सुन रहा था। उसकी आँखों में बस डर था। अनुपमा ने उसके कंधे पर हाथ रखा और पूछा, “बेटा, तुम तीन साल से स्कूल के बाहर क्यों बैठते थे?”
आरुष ने पहली बार सिर उठाकर धीमी आवाज में कहा, “मम्मा यहाँ आती थी।”
कमरा सन्न हो गया। अनुपमा ने पूछा, “तुम्हारी माँ तीन साल से तुम्हें क्यों नहीं ले गई?”
बच्चे की आँखों से आँसू गिरने लगे, “मम्मा मुझे लेने आई थी, पर उन्हें किसी ने स्कूल के गेट पर मार दिया।”
पूरा स्टाफ खून की तरह जम गया। अनुपमा फुसफुसाईं, “किसने?”
बच्चे ने काँपते होठों से कहा, “वही आदमी जो आज भी हर सुबह स्कूल के बाहर खड़ा होता है।”

भाग 6: खौफ का साया

अनुपमा ने खिड़की से बाहर देखा, वहाँ नीली जैकेट पहने एक आदमी खड़ा था। वही आदमी जो रोज बच्चों की भीड़ में घूमता था। कभी कॉपी उठाकर देता, कभी गार्ड की मदद करता। सबको लगता था, शायद कोई अस्थायी चौकीदार है। लेकिन आज पहली बार उसे देखकर स्टाफ डर गया।

अनुपमा ने पूछा, “आरुष, तुम्हारी मम्मी को किसने…”
बच्चे ने उसी आदमी की तरफ इशारा किया।
पीटी सर का माथा पसीने से भीग गया। अनुपमा ने स्टाफ से कहा, “किसी को बुलाओ मत, उस आदमी को पता नहीं चलना चाहिए कि हम जान गए हैं।”
फिर उन्होंने बच्चे से पूछा, “क्या हुआ था उस दिन?”
आरुष बोला, “मम्मा मुझे लेने आई थी। हम गेट तक पहुंचे, वो आदमी आया। मम्मा उससे डर गई। उसने कहा, बच्चे को मेरे हवाले कर दो, नहीं तो अच्छा नहीं होगा। मम्मा ने मुझे पीछे कर दिया, उस आदमी ने मम्मा को जोर से धक्का दिया, मम्मा जमीन पर गिर गई, सिर पत्थर से टकराया, मम्मा उठी ही नहीं।”

भाग 7: फाइल का रहस्य

अनुपमा ने बच्चे की पुरानी फाइल खोजी। उसमें सिर्फ दो पेज थे—नाम: आरुष राठौर, पिता का नाम रिक्त, माता का नाम: नेहा राठौर। नीचे लिखा था—अभिभावक ने एड्रेस छुपाने का अनुरोध किया है।

टीचर रानी बोली, “तीन साल पहले आरुष की माँ डरी रहती थी। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, अगर कोई स्कूल में मेरे बारे में पूछे तो मुझे पहचानने से मना कर देना। मेरे बेटे की जान को खतरा है।”

अब सब समझ आ रहा था। वही आदमी आरुष के पीछे सालों से था। उसकी माँ ने एड्रेस छुपाया, स्कूल तक भागी, लेकिन वह बच नहीं सकी।

भाग 8: स्कूल में घुसपैठ

शाम को वह आदमी गेट पर नहीं था। स्टाफ में डर फैल गया। कहीं वह स्कूल के अंदर तो नहीं आ गया? अनुपमा ने दरवाजा बंद कराया, स्टाफ को सतर्क किया, बच्चे को अपने पास रखा।

अनुपमा ने पूछा, “बेटा, क्या वो आदमी स्कूल के अंदर भी आता था?”
आरुष ने सिर हिलाया, “हाँ, वो रोज आता है। मुझे ढूंढता है।”

नीचे स्टाफ रूम से चीख सुनाई दी, “मैडम, कोई अजनबी घुस आया है!”
अनुपमा, पीटी सर और वार्डन भागे। स्टाफ रूम में नीली जैकेट, काले कैप वाला आदमी मेज की दराजें खंगाल रहा था। शायद कोई दस्तावेज ढूंढ रहा था।

अनुपमा ने हिम्मत करके पूछा, “कौन हो तुम? क्या ढूंढ रहे हो?”
आदमी बोला, “जिसे तीन साल से ढूंढ रहा हूँ, वही लेने आया हूँ।”
अनुपमा ने कहा, “वो बच्चा अब सुरक्षित है। तुम उसे हाथ भी नहीं लगा सकते।”
आदमी ने गुस्से से मेज पर मुक्का मारा, “वो मेरा है!”
अनुपमा बोलीं, “झूठ! तुमने उसकी माँ को मारा है।”
आदमी हँसा, “हाँ, क्योंकि उसकी माँ ने बच्चा छीन लिया था।”

अब साफ हो गया—वह आदमी आरुष का असली पिता था। पर पिता नाम का दानव, जिससे बचने के लिए नेहा ने एड्रेस छुपाया था।

भाग 9: फाइल का सच और पुलिस की तैयारी

आदमी खिड़की तोड़कर भाग गया। स्कूल में डर का माहौल था। रात में सीसीटीवी फुटेज में वह आदमी स्कूल की दीवार के पीछे एक पुरानी फाइल निकालता दिखा, जिस पर लिखा था “राठौर फैमिली केस—कॉन्फिडेंशियल”।

फाइल में लिखा था—नेहा राठौर, उम्र 28, पति विक्रम राठौर, शराब और हिंसा में डूबा। नेहा ने कई बार घरेलू हिंसा की शिकायतें की थीं। पति बच्चे को छीनना चाहता था, धमकी देता था।

फोटो के पीछे लिखा था, “अगर मुझे कुछ हो जाए तो मेरे बेटे को उसके पिता के पास मत भेजना, वह उसे मार देगा।”

अनुपमा ने फाइल को सीने से लगा लिया। अब उन्हें समझ आ गया था—नेहा ने अपने बेटे को बचाने के लिए जान दी थी।

भाग 10: आखिरी रात—इम्तिहान

रात के दो बजे सीसीटीवी में दिखा, वही आदमी दीवार के ऊपर चढ़कर उस कमरे की तरफ जा रहा था, जहाँ आरुष सो रहा था। उसके हाथ में लोहे का रॉड था।

अनुपमा ने तुरंत आरुष को उठाया, “डरो मत बेटा, मैं हूँ। कोई तुम्हें छू भी नहीं सकता।”

कॉरिडोर की लाइटें झिलमिलाने लगीं। गार्ड ने टॉर्च चमकाई, अगले ही सेकंड टॉर्च गिर गई—वह आदमी सामने खड़ा था।
वह गुर्राया, “मुझे मेरा बच्चा दे दो, वरना कोई नहीं बचेगा।”
गार्ड ने रोकने की कोशिश की, मगर वह धक्का मारकर भागा।
अनुपमा ने दरवाजा बंद कर कुंडी लगा दी।
उन्होंने फाइल से नेहा का आखिरी खत निकाला, “अगर मुझे कुछ हो जाए तो मेरे बेटे को उसके पिता से दूर रखना।”

भाग 11: इंसानियत की जीत

दरवाजा जोर-जोर से हिलने लगा। अनुपमा ने साहस जुटाकर बाहर निकलने का फैसला किया। कॉरिडोर में नीली जैकेट वाला आदमी खड़ा था, “मुझे मेरा बच्चा दे दो!”
अनुपमा गरजती हुई बोलीं, “वो तुम्हारा नहीं! तुम सिर्फ खून के रिश्ते से पिता हो, दिल से नहीं!”

आदमी ने रॉड उठाई, लेकिन पुलिस पीछे से आ गई। पीटी सर ने समय रहते कॉल कर दी थी। पुलिस ने आदमी को पकड़ लिया। वह चिल्लाता रहा, “मेरा बच्चा, मेरा बच्चा!”
अनुपमा ने ठंडे स्वर में कहा, “नहीं, तुमने उसे सिर्फ डर दिया है। पिता उसका मैं हूँ, और वो माँ जिसने अपनी जान दी।”

भाग 12: नया जीवन

सुबह के सूरज की रोशनी खिड़की से अंदर आ रही थी। आरुष अनुपमा के पास बैठा था, पहली बार बिना डर के। अनुपमा ने उसके सिर पर हाथ फेरा, “अब तुम कभी स्कूल के बाहर नहीं बैठोगे। यह स्कूल तुम्हारा घर है, और मैं हूँ तुम्हारी नई माँ।”

बच्चा फूट-फूट कर रो पड़ा। उसने अनुपमा को कसकर गले लगा लिया। तीन साल का डर एक गले लगाने में खत्म हो गया। स्कूल के बाहर अब वह भिखारी बच्चा नहीं था, बल्कि एक नया जीवन शुरू करने वाला बच्चा था, जिसे आखिरकार परिवार मिल गया था।

समाप्त