बकरियां चराते चराते एक पाकिस्तानी लडकी इंडिया की सरहद पार कर आ गई, फिर सेना के जवानों ने जो किया

सरहद के उस पार: इंसानियत की जीत

भूमिका

क्या सरहदें सच में दिलों को बाँट सकती हैं? क्या नफरत की लकीरें इंसानियत से बड़ी हो जाती हैं? यह कहानी है 16 साल की हिना की, जो पाकिस्तान के एक छोटे, स्नेह से भरे गांव रतनगला की बेटी है। उसका संसार उसकी भेड़ों की घंटियों तक सीमित था, लेकिन एक दिन उसकी सबसे प्यारी भेड़ झटकी के पीछे भागते हुए, वह अनजाने में उस लकीर को पार कर जाती है जिसे दुनिया नियंत्रण रेखा यानी एलओसी कहती है। अब वह अकेली है, अनजान भारतीय इलाके में, जहाँ उसने हमेशा खतरे की कहानियाँ सुनी थीं। और फिर उसके सामने खड़े होते हैं भारतीय सेना के जवान—वर्दी, बंदूकें, अनुशासन और इंसानियत के बीच एक भावनात्मक टकराव।

भाग 1: रतनगला की मासूम दुनिया

रतनगला, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का एक दुर्गम गांव। यहाँ का जीवन कठिन है, लेकिन प्यार और अपनापन से भरा हुआ। हिना अपने परिवार की सबसे बड़ी बेटी थी। उसके अब्बू जाहिद खान एक मामूली किसान थे, अम्मी जीनत ऊनी स्वेटर बुनकर बाजार में बेचती थीं। छोटा भाई आदिल उसकी दुनिया की रौनक था।

हिना स्कूल नहीं जाती थी, क्योंकि गांव में लड़कियों के लिए कोई स्कूल नहीं था। उसका दिन घर के काम और भेड़ों की देखभाल में गुजरता था। उसकी 15-16 भेड़ें उसकी सहेलियाँ थीं, जिनमें सबसे प्यारी थी झटकी—एक छोटी, काली, शरारती भेड़। झटकी अक्सर झुंड से अलग होकर भाग जाती थी और हिना को घंटों उसे ढूँढना पड़ता था।

हर सुबह, हिना पहाड़ों की ढलानों पर भेड़ों को चराने जाती, उनके साथ खेलती, शाम ढलने से पहले घर लौट आती। उसके अब्बू ने उसे हमेशा चेताया था—”सफेद चट्टान वाली पहाड़ी से आगे मत जाना, वहाँ सरहद है, फौजी हैं, खतरा है।”

हिना ने अपने गांव के बूढ़ों से हिंदुस्तान के बारे में डरावनी कहानियाँ सुनी थीं, गोलियों की आवाजें रात में सुनी थीं। उसके मन में सरहद के उस पार के लिए सिर्फ डर और दूरी थी।

भाग 2: एक भूल, एक सफर

सितंबर के आखिरी दिन थे। पहाड़ों पर हल्की ठंड और घनी धुंध छा जाती थी। उस दिन हिना अपनी भेड़ों के साथ सफेद चट्टान वाली पहाड़ी के पास पहुँची। झटकी अचानक झुंड से अलग होकर दौड़ पड़ी। हिना ने आवाज दी, “झटकी रुक जा!” डर और चिंता में वह उसके पीछे दौड़ पड़ी। भागते-भागते, उसने अनजाने में सरहद पार कर ली।

अचानक घनी धुंध छा गई। हिना रास्ता भटक गई। चारों तरफ सफेद धुंध, कोई आवाज नहीं, कोई साथी नहीं। वह अकेली थी, डर के मारे उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने घर लौटने की कोशिश की, लेकिन हर तरफ अजनबी रास्ते थे। भूख, प्यास, डर और थकान से बेहाल वह एक पेड़ के नीचे बैठकर रोने लगी। उसे अपने परिवार की याद आई, लगा वह कभी घर नहीं लौट पाएगी।

भाग 3: हिमगार्ड पोस्ट पर भारतीय सेना

नियंत्रण रेखा के इस पार हिमगार्ड पोस्ट पर भारतीय सेना के जवान तैनात थे। पोस्ट के प्रभारी थे मेजर विशाल वर्मा, जिनके चेहरे पर सख्ती थी, लेकिन आँखों में करुणा भी थी। उनके साथ थे हवलदार रमेश, सिपाही करण और दीपक। कठिन हालात, ठंडी हवाएँ, हर पल घुसपैठ का खतरा—इन सबके बीच वे सीमा की निगरानी करते थे।

अगली सुबह, गश्त के दौरान हवलदार रमेश ने दूरबीन से देखा कि एक पेड़ के नीचे कोई आकृति लेटी है। मेजर विशाल ने देखा—एक लड़की, मैले कपड़े, ठंड से काँपती हुई। जवान सतर्क हो गए, बंदूकें तैयार कर धीरे-धीरे आगे बढ़े।

लड़की की नींद खुली, उसने भारतीय सेना की वर्दी, तिरंगा देखा—डर से चीख उठी। उसे याद आईं वे कहानियाँ, जिसमें हिंदुस्तानी फौजियों को खतरनाक बताया जाता था। वह रोते हुए सिसकने लगी, “अब्बू, अम्मी, मुझे घर जाना है। मैंने कुछ नहीं किया। मेरी भेड़ें बिछड़ गईं।”

मेजर विशाल ने उसकी आँखों में डर पढ़ लिया। उन्होंने बंदूक नीचे कर दी, जवानों को भी इशारा किया। बहुत नरम स्वर में कश्मीरी में बोले, “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे। तुम कौन हो, यहाँ अकेली क्या कर रही हो?”

भाग 4: डर से भरोसे तक

हिना के कांपते होंठ, थरथराते हाथ, आँखों में मौत का डर। लेकिन मेजर विशाल के आश्वासन भरे शब्दों ने उसके दिल में जमी बर्फ को पिघलाना शुरू कर दिया। हवलदार रमेश ने ऊनी कंबल दिया, करण ने पानी की बोतल दी। हिना ने हिचकिचाते हुए पानी पिया, आँसू बह निकले।

उसने टूटी-फूटी आवाज में कहा, “मैंने कुछ गलत नहीं किया। मेरी भेड़ें बिछड़ गईं। मुझे घर जाना है। अब्बू मुझे ढूँढ रहे होंगे।”

जवानों के दिल पिघल गए। सब सोचने लगे, अगर यह मासूम यहाँ रह गई तो खतरे में पड़ सकती है, लेकिन वापस भेजना आसान नहीं। सरहद पर हर कदम पर बंदूकें तनी रहती हैं।

मेजर विशाल ने पूछा, “बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?”
“हिना जाहिद खान,” उसने कांपती आवाज में कहा।

विशाल ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “डरो मत, तुम यहाँ महफूज़ हो।”

लेकिन सेना का नियम साफ था—दुश्मन देश से आने वाला कोई भी इंसान हिरासत में लिया जाएगा, गहन जांच के बाद ही आगे की कार्यवाही होगी। मेजर विशाल जानते थे, यह कोई जासूस नहीं, एक भटकी हुई बच्ची है। उन्हें लगा, खुदा ने इसे उनकी इंसानियत की कसौटी पर रखने के लिए भेजा है।

भाग 5: पोस्ट पर अपनापन

जवानों ने हिना को हिमगार्ड पोस्ट पर लाया। वहाँ उसने पहली बार इतने करीब से भारतीय झंडा देखा। उसे गरमागरम चाय, रोटी-दाल दी गई। लेकिन वह हर निवाला खाते हुए काँप रही थी, डर था कि कहीं यह उसका आखिरी भोजन न हो।

मेजर विशाल ने उससे बातें कीं—”तुम्हारे गांव में कौन-कौन है?”
“अब्बू, अम्मी, छोटा भाई आदिल। हमारी भेड़ें ही हमारी दुनिया हैं।”

विशाल ने महसूस किया, यह बच्ची सच कह रही है। उसके हर शब्द में वही दर्द है, वही सच्ची जद्दोजहद जो सरहद के दोनों ओर के गरीबों के घरों में पलती है।

मुख्यालय से संदेश आया—पाकिस्तानी लड़की सीमा पार कर भारतीय इलाके में आई है, उसे तुरंत हिरासत में लेकर रिपोर्ट भेजी जाए। मेजर विशाल ने आदेश का पालन किया, लेकिन मन में उथल-पुथल थी। क्या हम इसे सिर्फ कागजात पर एक आंकड़ा बना देंगे? क्या यह मासूम हमारी दुश्मनी की राजनीति में कुचल जाएगी?

हवलदार रमेश, जो खुद एक बेटी के पिता थे, बोले, “अगर यह मेरी बेटी होती तो क्या करता?” सिपाही करण बोले, “यह बच्ची निर्दोष है, इसे कुछ नहीं होना चाहिए।”

विशाल ने सोचा, नियम अपनी जगह हैं, लेकिन कभी-कभी इंसानियत नियमों से बड़ी हो जाती है।

भाग 6: दिलों की सरहदें

हिना धीरे-धीरे जवानों के साथ खुलने लगी। उसने पूछा, “आप लोग यहाँ दिन-रात क्यों खड़े रहते हैं? आपको घर की याद नहीं आती?”
करण हँसते हुए बोला, “बहुत आती है, लेकिन यह सरहद ही हमारा घर है और तिरंगा हमारा परिवार।”

हिना की आँखों में चमक उभरी। उसने पहली बार महसूस किया, फौजियों का जीवन कितना कठिन है, लेकिन उनकी आँखों में शिकायत नहीं, गर्व है। उसने सोचा, हमारे यहाँ तो इन्हें खतरनाक बताया जाता है, लेकिन ये इंसान भी हैं—बेटे, पिता, भाई।

रात को बर्फ गिरने लगी, पोस्ट पर ठंडी हवाएँ चल रही थीं। हिना को जवानों ने कमरे में सोने के लिए जगह दी। वह कंबल में खुद को समेट कर खिड़की से बाहर देखती रही, जहाँ जवान आग जलाकर पहरा दे रहे थे। उनके चेहरे आग की रोशनी में देवदूत जैसे लग रहे थे। उसने सोचा, “अगर दुश्मन होते तो बचाते क्यों?” उसके मन में सवालों का सैलाब था, लेकिन दिल में सुकून भी था।

भाग 7: मुश्किल फैसले

दूसरे दिन मुख्यालय से आदेश आया—लड़की को औपचारिक पूछताछ के लिए ब्रिगेड हेडक्वार्टर भेजा जाए। मेजर विशाल ने बहाना बनाकर एक दिन की मोहलत ली। उन्होंने दिन भर हिना के साथ समय बिताया, उसे हिंदी के सरल शब्द सिखाए, हिना ने उर्दू की कविताएँ सुनाई। जवान उसकी मासूम अदाओं और बातों से मोहित हो गए। पोस्ट पर अपनापन छा गया, जैसे यह बच्ची सबकी छोटी बहन बन गई हो।

रमेश उसे अपनी बेटी की कहानियाँ सुनाने लगे, करण अपने गाँव की तस्वीरें दिखाने लगे, विशाल उसकी मुस्कान में सुकून ढूँढने लगे। लेकिन समय बीत रहा था, सरहद की कठोर हकीकत सामने आ रही थी। विशाल जानते थे, वे उसे हमेशा यहाँ नहीं रख सकते, न खुलेआम वापस भेज सकते। दुश्मन के इलाके से आई लड़की को लौटाना राजनीतिक मुद्दा था। अगर पाकिस्तानी सेना को पता चला, तो वे इसे हथियार बना सकते थे। अगर भारतीय मुख्यालय को लगा कि विशाल ने नियमों की अनदेखी की है, तो उनकी नौकरी, करियर, इज्जत सब खतरे में पड़ सकती थी।

लेकिन विशाल का दिल चीख-चीख कर कह रहा था, “यह सिर्फ 16 साल की बच्ची है, इसे राजनीति का शिकार मत बनने दो।”

भाग 8: इंसानियत की कसौटी

रात को विशाल अकेले अपने कमरे में बैठे थे, मेज पर हिना की रिपोर्ट फाइल थी। लेकिन उनके सामने उसकी मासूम मुस्कान और डरी-सहमी आँखें घूम रही थीं। उन्हें याद आया जब उनकी अपनी बेटी जन्मी थी, पहली बार गोद में लिया था। हर बच्ची इंसानियत की संतान है, चाहे किसी भी धर्म, देश की हो।

उन्होंने ठान लिया, चाहे कुछ भी हो, वे इस बच्ची को सुरक्षित उसके घर पहुँचाएँगे। लेकिन कैसे?

उन्होंने अपने दो सबसे भरोसेमंद साथियों, रमेश और करण को बुलाया। “मैंने फैसला कर लिया है, हम हिना को उसके गाँव वापस पहुँचाएँगे, चाहे जान का जोखिम क्यों न उठाना पड़े।”

रमेश बोले, “यही असली फौजी की जीत है, गोली चलाना आसान है, किसी मासूम की जिंदगी बचाना सबसे बड़ा युद्ध है।” करण ने भी हामी भरी, “हम आपके साथ हैं साहब।”

तीनों ने गुप्त योजना बनाई—कैसे बिना किसी को खबर लगे, हिना को सरहद पार करा कर उसके गाँव तक पहुँचाना है।

भाग 9: वापसी का सफर

सुबह हिना जागी, चेहरे पर राहत थी। लेकिन घर की याद और बेचैनी थी। उसने विशाल से कहा, “मुझे अब्बू के पास जाना है। अम्मी मुझे ढूँढ रही होंगी, आदिल मेरे बिना रो रहा होगा।”

विशाल बोले, “बेटी, आज तुम्हें घर छुड़ाएँगे।”

हिना का चेहरा खिल उठा, निश्चित होकर खाना खाया, जवानों को मासूम हँसी के साथ देखा।

रात गहराने के बाद, जब बाकी जवान सो रहे थे, पहाड़ों पर हवा की सनसनाहट थी, विशाल, रमेश, करण हिना को लेकर निकल पड़े। रास्ता कठिन था—बर्फ से ढके ढलान, गहरी खाइयाँ, हर पल दुश्मन की चौकियों से नजर आने का खतरा।

तीनों ने बंदूकें कंधे पर टाँगी, हिना को बीच में लेकर बढ़ते चले गए। हिना के कदम बर्फ में धँसते थे, कई बार गिरती, रमेश संभालते, करण सहारा देते, विशाल आगे-आगे रास्ता देखते हुए।

कई घंटे बाद वे कंटीली तार की बाड़ तक पहुँचे। यहीं सबसे बड़ा खतरा था—दोनों तरफ गश्त करने वाले सिपाही हर हरकत पर नजर रखते थे।

विशाल ने सबको रुकने का इशारा किया, “अब सबसे मुश्किल घड़ी है। अगर दुश्मन ने देख लिया तो गोली चलाने से पहले सोचेंगे भी नहीं।”

उनके चेहरे पर डर नहीं था, बस दृढ़ निश्चय था। उन्होंने हिना को झुकाकर आगे बढ़ाया, तारों को फैलाकर जगह बनाई। हिना रेंगते हुए पार गई, कपड़े तारों में उलझ गए, हाथ कट गया, खून की बूंदें बर्फ पर गिरने लगीं, लेकिन उसने आवाज नहीं निकाली।

विशाल ने उसका हाथ पकड़कर खून पोंछा, “बस थोड़ा और बेटी, फिर तुम अपने घर में होगी।”

आखिरकार वे पाकिस्तान अधिकृत इलाके में पहुँचे, दूर गाँव की रोशनी झिलमिला रही थी। हिना ने देखा, “वो मेरा घर है।” आँसू बह निकले।

विशाल ने उसके सिर पर हाथ रखा, “जाओ, तुम्हारा सफर यहीं खत्म होता है, हमारी ड्यूटी पूरी होती है।”

हिना ने तीनों जवानों के पैर छू लिए, आँखों में कृतज्ञता और मोहब्बत के रंग थे। “आप लोग मेरे लिए फरिश्ते हो। अगर मैं जिंदा हूँ तो सिर्फ आपकी वजह से।”

करण और रमेश अपने आँसू नहीं रोक पाए। विशाल ने प्यार से आगे बढ़ाया, खुद पीछे मुड़कर लौट गए।

भाग 10: घर की वापसी, दिलों की जीत

हिना भागती हुई गाँव के रास्ते पर गई, घर के आँगन में कदम रखा, अम्मी ने सीने से लगा लिया, अब्बू की आँखों से आँसू बहने लगे, आदिल उसकी टाँगों से लिपट गया। घर में खुशी का सैलाब उमड़ा।

हिना के दिल में भारतीय फौजियों की तस्वीर बस गई थी। उसने अब्बू से कहा, “हिंदुस्तानी फौजी वैसे नहीं हैं जैसे हमें बताया जाता है। वे इंसानियत के रखवाले हैं। उन्होंने मुझे बचाया, घर पहुँचाया। अगर वे न होते तो मैं कभी लौटकर नहीं आती।”

जाहिद और जीनत चुप रह गए, दिल में पहली बार उस पार के लोगों के लिए नफरत की जगह कृतज्ञता और सम्मान ने जन्म लिया।

भाग 11: इंसानियत की रिपोर्ट

हिमगार्ड पोस्ट पर लौटकर विशाल, रमेश और करण ने कोई रिपोर्ट नहीं लिखी, बस फाइल पर इतना भर लिखा—”लड़की सुरक्षित है।” उनके दिलों में सुकून था, जैसे फौजी जीवन की सबसे बड़ी जीत हासिल कर ली हो। यह जीत किसी इलाके, युद्ध या दुश्मन पर नहीं थी, बल्कि इंसानियत पर थी। उन्होंने साबित कर दिया, सरहद दिलों को अलग नहीं कर सकती, इंसानियत किसी भी बंदूक से बड़ी ताकत है।

भाग 12: संदेश और समापन

हिना और मेजर विशाल की कहानी सिर्फ एक लड़की या परिवार की नहीं, उस अटूट जज्बे की है जो हर भारतीय के दिल में बसा है। यह कहानी सिखाती है, सेवा का भाव और मानवता का धर्म देश की सरहद से भी ऊँचा होता है।

अगर आपको लगता है कि हमारे जवानों की कुर्बानी, उनका फर्ज और इंसानियत से बड़ी कोई ताकत नहीं है, तो इस कहानी को जरूर साझा कीजिए।
सरहदें नक्शे पर लकीरें हैं, दिलों में नहीं।
इंसानियत हर धर्म, हर देश, हर सरहद से ऊपर है।

जय हिंद!