शंकर काका और अस्पताल – इंसानियत की असली पहचान
शहर के सबसे महंगे ग्लोबल हेल्थ सिटी अस्पताल के चमचमाते रिसेप्शन पर एक बूढ़ा आदमी खड़ा था। उसकी गोद में सात-आठ साल की बेहोश बच्ची थी, और आंखों में बेबसी साफ झलक रही थी।
बूढ़े ने मैली धोती, पुराना कुर्ता और टूटी चप्पल पहन रखी थी। उसके शरीर से खेत की मिट्टी की सौंधी महक आ रही थी।
सामने खड़े सूट-बूट वाले मैनेजर मिस्टर वर्मा ने नफरत से कहा –
“पैसे हैं? नहीं है तो बाहर जाइए। यह फाइव स्टार अस्पताल है, कोई धर्मशाला नहीं!”
बूढ़ा आदमी – शंकर – कांपती आवाज में बोला,
“साहब, मेरी पोती है परी। गांव में खेलते-खेलते सांप ने काट लिया। सरकारी अस्पताल ने यहां भेजा, बोले जान बच जाएगी।”
वर्मा ने नाक सिकोड़ी –
“यहां एक दिन का खर्चा तुम्हारे पूरे गांव की कीमत से ज्यादा है। पहले पैसे जमा करो, फिर बात करना।”
शंकर ने अपनी कमर में बंधी पोटली खोली। उसमें कुछ हजार के नोट, कुछ सौ-सौ के नोट और बहुत सारे सिक्के थे। उसने कांपते हाथों से सारी जमा पूंजी काउंटर पर रख दी –
“साहब, मेरे पास यही है। मेरी जिंदगी भर की कमाई है। आप इसे रख लो, मेरी बच्ची को बचा लो। मैं आपके खेत में मजदूरी करूंगा, जिंदगी भर गुलामी करूंगा।”
वर्मा और आसपास खड़े अमीर लोग हंस पड़े –
“₹4000 लेकर आया है और चाहता है कि हम इसकी पोती का इलाज करें? इतने में तो यहां एक बोतल ग्लूकोज भी नहीं आता। चलो हटो यहां से।”
शंकर की आंखों से आंसू बहने लगे। वह अपनी पोती को सीने से लगाए सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसकी दुनिया लुट चुकी थी। उसने अपनी पोती के माथे को चूमा, उसका शरीर ठंडा पड़ रहा था।
अब शंकर के अंदर का दर्द एक अजीब सी शांति में बदल गया। उसने अपनी धोती की जेब से एक पुराना बटन वाला फोन निकाला और एक नंबर मिलाया।
फोन उठते ही शंकर की आवाज शांत और दृढ़ थी –
“हां, मैं अस्पताल के बाहर हूं। जैसा डर था, वैसा ही हुआ। उन्होंने इंसानियत को बाहर फेंक दिया है। अब वो शर्त लागू करने का समय आ गया है।”
फोन कट गया।
अस्पताल के अंदर अचानक हड़कंप मच गया – सारे कंप्यूटर बंद, बिलिंग सिस्टम ठप, डिजिटल नेटवर्क फेल। कोई मरीज भर्ती नहीं हो पा रहा था, ना ही डिस्चार्ज।
वर्मा घबराया, आईटी हेड से पूछा –
“यह क्या हो रहा है?”
आईटी हेड बोला – “सर, यह कोई नॉर्मल क्रैश नहीं है। ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने मेन स्विच बंद कर दिया हो, जिसके बारे में हमें पता भी नहीं।”
कुछ ही मिनटों में अस्पताल के मालिक डॉक्टर आलोक माथुर का फोन आया –
“वर्मा, गेट पर एक बूढ़े आदमी को तुमने बाहर निकाला है क्या, जिसके साथ एक बच्ची है?”
“हां सर, वो भिखारी था। पैसे नहीं थे उसके पास।”
“तुम बर्बाद हो गए वर्मा! वह भिखारी नहीं, इस अस्पताल के भगवान हैं। मैं 10 मिनट में पहुंच रहा हूं। अगर उन्हें कुछ हुआ तो तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ूंगा।”
दस मिनट बाद अस्पताल के गेट पर तीन महंगी गाड़ियां रुकीं। डॉक्टर माथुर, शहर के कमिश्नर और बड़े अधिकारी उतरे।
डॉक्टर माथुर भागे-भागे पेड़ के नीचे पहुंचे, जहां शंकर अपनी पोती को गोद में लिए बैठा था।
डॉक्टर माथुर ने दौड़कर शंकर के पैर पकड़ लिए –
“काका, मुझे माफ कर दीजिए। मेरे लोगों ने आपको नहीं पहचाना।”
मिस्टर वर्मा और बाकी स्टाफ पत्थर बन गए।
डॉक्टर माथुर ने सबके सामने कहा –
“जिसे तुम भिखारी समझ रहे थे वो शंकर काका हैं। यह जमीन जिस पर अस्पताल बना है, इनकी थी। इन्होंने अपनी 100 बीघा जमीन दान में दी थी, सिर्फ एक शर्त पर –
इस अस्पताल के दरवाजे से कोई भी इमरजेंसी मरीज पैसों की वजह से वापस नहीं लौटाया जाएगा। जिस दिन शर्त टूटी, उस दिन अस्पताल की आत्मा मर जाएगी।”
जो सिस्टम बंद हुआ था, वह कोई तकनीकी खराबी नहीं थी।
वह काका का लगाया हुआ धर्म कांटा था – एक किल स्विच, जो उन्होंने शर्त टूटते ही एक्टिवेट कर दिया।
शंकर काका ने डॉक्टर माथुर के कंधे पर हाथ रखा –
“बेटा, तुमने मेरा अपमान नहीं किया, उस भरोसे की गर्दन मरोड़ी है जिस पर यह अस्पताल बना है। अस्पताल सीमेंट और स्टील से नहीं, इंसानियत से बनते हैं। तुमने आज इस मंदिर से भगवान को ही बाहर फेंक दिया।”
वर्मा रोते हुए शंकर काका के पैरों में गिर गया –
“मुझे माफ कर दीजिए बाबा, मुझसे गलती हो गई।”
शंकर बोले – “माफी मुझसे नहीं, उस सोच से मांगो जो इंसान की कीमत उसके कपड़ों से लगाती है। जाओ, मेरी बच्ची को बचाओ। अगर उसे कुछ हो गया तो यह अस्पताल तो क्या, हजार इमारतें भी एक जान वापस नहीं ला सकतीं।”
तुरंत एक्शन हुआ। परी को सबसे अच्छे वीआईपी स्वीट में भर्ती कराया गया। देश के सबसे बड़े डॉक्टर उसका इलाज करने लगे।
मिस्टर वर्मा और दोनों गार्ड्स को तुरंत निलंबित कर दिया गया।
डॉक्टर माथुर ने उसी समय नई पॉलिसी लागू की – “शंकर काका प्रतिज्ञा” –
अब ग्लोबल हेल्थ सिटी अस्पताल में किसी भी आपातकालीन रोगी का इलाज तुरंत शुरू होगा, पैसे बाद में पूछे जाएंगे।
कुछ घंटों बाद परी की हालत खतरे से बाहर थी।
शंकर उसके बिस्तर के पास बैठे उसका हाथ थामे हुए थे।
डॉक्टर माथुर ने उन्हें वीआईपी कमरे में रुकने को कहा, लेकिन शंकर बोले –
“मेरी जगह मरीजों के बीच है साहब, ताकि मुझे याद रहे कि दर्द क्या होता है और आपके डॉक्टरों को भी याद रहे कि इंसानियत क्या होती है।”
जो लोग सुबह शंकर काका पर हंस रहे थे, अब शर्म से नजरें झुकाए खड़े थे।
कई लोग उनके बारे में लिखने लगे – “आज असली दौलत देखी, वह नहीं जो बैंक में है, बल्कि वह जो एक धोती वाले किसान के दिल में है।”
शंकर काका ने किसी पर चिल्लाया नहीं, कोई बदला नहीं लिया।
उन्होंने बस अपनी शालीनता और अपने सिद्धांतों से पूरे सिस्टम को आईना दिखा दिया।
उन्होंने साबित कर दिया कि असली ताकत पद या पैसे में नहीं, बल्कि अपने सिद्धांतों पर टिके रहने में होती है।
यह सिर्फ एक कहानी नहीं है, यह हमारे समाज का सच है।
अगली बार जब आप किसी को उनके कपड़ों, भाषा या हैसियत से आंकें, तो एक पल के लिए शंकर काका को याद कर लें।
इंसान की पहचान उसके कर्मों से होती है, कपड़ों से नहीं।
समाज इमारतें बनाने से नहीं, एक दूसरे को सम्मान देने से बदलता है।
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