निस्वार्थ सेवा का चमत्कार – स्नेहा और जगमोहन डालमिया की कहानी
जयपुर का गुलाबी शहर, अपनी शाही विरासत और आधुनिकता के संगम में जीता है। इसी शहर के सिविल लाइंस इलाके के एक भव्य बंगले में रहते थे 70 वर्षीय जगमोहन डालमिया, देश के सबसे बड़े हीरा व्यापारियों में से एक। उनके पास दौलत, शोहरत, इज्जत सब कुछ था, लेकिन उनकी जिंदगी तन्हा थी। पत्नी का देहांत दस साल पहले हो चुका था, दोनों बेटे रोहन और साहिल कनाडा में बिज़नेस संभालते थे, और अपने पिता को महीनों फोन तक नहीं करते थे।
जगमोहन जी रोज सुबह साधारण कपड़ों में पार्क में सैर के लिए निकलते थे, ताकि कुछ वक्त आम इंसान की तरह जी सकें। एक दिन, सैर करते-करते उन्हें सीने में तेज दर्द हुआ और वे ट्रैक पर गिर पड़े। सिर में गहरी चोट आई। पहचान पत्र या फोन न होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। एंबुलेंस उन्हें सवाई मानसिंह अस्पताल ले गई, जहां डॉक्टरों ने पाया कि उन्हें सिर में हेमरेज हुआ है और वे कोमा में चले गए हैं। पुलिस भी पहचान नहीं कर सकी, और उन्हें लावारिस मरीज घोषित कर दिया गया।
अस्पताल में मरीजों का बोझ इतना था कि किसी ने उनपर ध्यान नहीं दिया। हालत बिगड़ती गई। आखिरकार, उन्हें दिल्ली एम्स रेफर कर दिया गया। दिल्ली पहुंचकर उन्हें जनरल वार्ड में एक बेनाम मरीज की तरह जगह मिली। यहीं उनकी मुलाकात हुई स्नेहा से – 28 साल की एक नर्स, जो केरल के एक गरीब परिवार से थी। स्नेहा के लिए उसकी वर्दी सिर्फ नौकरी नहीं, इंसानियत का फर्ज थी। वह मरीजों को अपना परिवार मानती थी, खासकर उन बेसहारा लोगों को जिनका इस दुनिया में कोई नहीं था।
जिस दिन जगमोहन जी को स्नेहा के वार्ड में शिफ्ट किया गया, स्नेहा ने उनके बेजान चेहरे में अपने पिता की झलक देखी। उसने तय किया, जब तक ये बाबा यहां हैं, मैं इनकी बेटी बनकर सेवा करूंगी। वह ड्यूटी के बाद भी घंटों उनके पास बैठती, शरीर साफ करती, कपड़े बदलती, अपने पैसों से फल और जूस लाती, कहानियां सुनाती, भजन गाती। उसे यकीन था कि उसकी बातें उस गहरी नींद में सोई आत्मा तक जरूर पहुंचेंगी।
अस्पताल का बाकी स्टाफ उसका मजाक उड़ाता – “अरे, मदर टेरेसा बनने चली हो?” लेकिन स्नेहा पर कोई फर्क नहीं पड़ा। महीने गुजरते गए – एक, दो, छह, सात महीने। जगमोहन जी उसी हालत में पड़े रहे। उनके बेटे कनाडा में अपनी जिंदगी में मशरूफ, पिता की खबर तक नहीं ली।
अस्पताल प्रशासन स्नेहा पर दबाव डालने लगा कि मरीज को वार्ड से शिफ्ट कर दें, कोई उम्मीद नहीं बची है। लेकिन स्नेहा हर बार कुछ और दिन की मोहलत मांगती – “सर, मुझे पूरा यकीन है, ये एक दिन जरूर ठीक होंगे।”
और फिर, सात महीने बाद एक चमत्कार हुआ। एक सुबह, स्नेहा जगमोहन जी के बिस्तर के पास बैठी अखबार पढ़ रही थी, तभी उनकी उंगलियों में हल्की हरकत हुई। पलकें कांपीं। स्नेहा दौड़कर डॉक्टर को बुलाने गई। डॉक्टरों ने इसे मेडिकल मिरेकल कहा – जगमोहन जी ने आंखें खोलीं। पहली नजर में उन्होंने स्नेहा का चेहरा देखा, जो आंसुओं से भीगा था।
कुछ हफ्तों में जगमोहन जी की याददाश्त लौट आई। स्नेहा ने पूरी सच्चाई बताई – कैसे वे सात महीने से लावारिस मरीज थे। जगमोहन जी की आंखों में आंसू आ गए। उन्हें अपनी दौलत पर नहीं, बेटों की बेरुखी पर अफसोस हुआ। उन्होंने स्नेहा से पूछा, “बेटी, तुमने मेरी इतनी सेवा क्यों की?” स्नेहा ने मुस्कुराकर कहा, “मैं आपको नहीं जानती थी, लेकिन इंसानियत को जानती हूं। मुझे आप में अपने पिता दिखे, बस अपना फर्ज निभाया।”
जगमोहन जी ने उस साधारण सी नर्स में देवी का रूप देखा। उन्होंने मन ही मन फैसला लिया – यही लड़की इस घर की लक्ष्मी है, यही परिवार को जोड़ सकती है। उन्होंने अपने मैनेजर मेहता जी को फोन किया। अगले ही घंटे एम्स के बाहर विदेशी गाड़ियों का काफिला पहुंचा। मीडिया में खबर फैली – जगमोहन डालमिया जिंदा हैं!
अस्पताल से छुट्टी के बाद जगमोहन जी ने स्नेहा से कहा – “तुमने मुझे नया जीवन दिया है, अब मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता। मेरे साथ चलो।” स्नेहा ने मना किया, लेकिन जगमोहन जी की जिद के आगे हार गई। वे उसे अपने जयपुर वाले बंगले ले आए। पूरी तरह स्वस्थ होने के बाद उन्होंने दोनों बेटों को कनाडा से बुलाया। जब वे अपने पिता को जिंदा देखकर हैरान और शर्मिंदा थे।
एक शाम, जगमोहन जी ने साहिल से पूछा, “मैं सात महीने तक जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहा, तुम लोगों ने एक बार भी खबर नहीं ली?” रोहन ने लापरवाही से कहा, “पापा, हम बिजी थे।” साहिल रो पड़ा, “पापा, मैं आपको रोज फोन करना चाहता था, लेकिन भैया रोक देते थे।” जगमोहन जी ने साहिल को गले लगा लिया।
फिर उन्होंने स्नेहा को बुलाया – “तुमने इस घर के ससुर की सेवा की है, मुझे नया जीवन दिया है। मैं तुम्हें इस घर की बहू बनाना चाहता हूं।” साहिल से कहा, “अगर तुम अपने गुनाहों का प्रायश्चित करना चाहते हो, तो इस देवी जैसी लड़की को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करो।” साहिल ने हाथ जोड़कर कहा, “पापा, मैं इतना भाग्यशाली कहां कि स्नेहा जी मुझे मिलें। अगर ये मुझे माफ करें, तो मेरी खुशकिस्मती होगी।”
स्नेहा आवाक खड़ी थी। जगमोहन जी ने उसके सिर पर हाथ रखा, “बेटी, मैंने हीरे बहुत परखे हैं, लेकिन तुम जैसी कोहिनूर नहीं देखी। क्या तुम इस घर की बहू बनकर परिवार को जोड़ोगी?” स्नेहा ने सिर झुका दिया। उस दिन बंगले में सालों बाद शहनाई बजी। जगमोहन जी ने उस लड़की की शादी अपने बेटे से कर दी, जिसने उन्हें जीवन दिया था।
शादी के बाद उन्होंने घर की सारी चाबियों का गुच्छा स्नेहा के हाथ में देते हुए कहा, “आज से इस घर, परिवार और कारोबार की मालकिन तुम हो। कोई भी फैसला तुम्हारी मर्जी के बिना नहीं होगा।” रोहन गुस्से में घर छोड़ गया, लेकिन साहिल और स्नेहा ने मिलकर नई जिंदगी शुरू की। स्नेहा ने अपनी ममता और संस्कारों से घर और साहिल को बदल दिया। दोनों ने डालमिया जेम्स को सिर्फ दौलत नहीं, बल्कि इंसानियत और सेवा की नई विरासत बना दिया।
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