एक सिग्नल, दो किस्मतें

मुंबई के एक व्यस्त ट्रैफिक सिग्नल पर दो अलग-अलग दुनिया के लोग मिले। एक तरफ थी कोमल—एक दस साल की मासूम बच्ची, जिसकी किस्मत में गरीबी, भूख और बेबसी थी। दूसरी तरफ थे आर के चौहान—करोड़ों के मालिक, जिनकी जिंदगी में पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन दिल में भावनाओं की कमी थी।

कोमल रोज उस सिग्नल पर भीख मांगती थी। उसकी मां बीमार थी, छोटा भाई भूखा था। कोमल की दुनिया सिर्फ उतनी थी जितनी उसकी हथेलियों में आ सकती थी। वहीं, आर के चौहान अपने चमचमाते रोल्स रॉयस में रोज उसी सिग्नल से गुजरते थे। उन्होंने कोमल को कई बार देखा, लेकिन हमेशा उसे नजरअंदाज किया।

एक दिन, जब कोमल ने उनसे भीख मांगी, चौहान ने उसकी आंखों में कुछ अलग देखा—एक उम्मीद, एक जिद, और ईमानदारी। उन्हें अपनी गुज़री हुई बेटी की याद आ गई। उसी पल उन्होंने फैसला लिया और कोमल को पास की स्टेशनरी की दुकान पर ले गए। वहां से उन्होंने 50 पेन खरीदे और कोमल को दिए। बोले, “अब भीख नहीं, व्यापार करो। ये पेन बेचो, मुनाफा कमाओ। अगर बेच पाई तो कल मिलना, नहीं तो कभी मत आना।”

कोमल ने पहली बार अपने हाथ फैलाए, मगर इस बार भीख के लिए नहीं, मेहनत के लिए। उसने दिनभर कोशिश की, शुरुआत में कोई नहीं रुका, कोई नहीं खरीदा। लेकिन उसकी ईमानदारी और मेहनत ने आखिरकार लोगों का दिल जीत लिया। धीरे-धीरे सारे पेन बिक गए। उसके पास ₹500 थे। उसने मां के लिए दवा, भाई के लिए दूध और परिवार के लिए खाना खरीदा।

अगले दिन चौहान आए, कोमल ने उन्हें उनके पैसे लौटाए। चौहान ने पैसे लेने से मना कर दिया और कहा, “अब 100 पेन बेचो, फिर 200, फिर 500…” कोमल ने व्यापार करना सीख लिया। उसने धीरे-धीरे अपनी छोटी दुकान शुरू की, पढ़ाई भी की, और सालों बाद उसकी ‘कोमल एंटरप्राइजेज’ देश की सबसे बड़ी स्टेशनरी कंपनी बन गई।

20 साल बाद चौहान की कंपनी संकट में थी। उनका बेटा धोखा देकर सारी संपत्ति ले गया था। कंपनी बचाने के लिए उन्हें एक बड़े स्टेशनरी सप्लायर की जरूरत थी—और वही थी कोमल। चौहान कोमल के ऑफिस पहुंचे, शर्मिंदगी और ग्लानि से भरे हुए। कोमल ने उन्हें गले लगाया, कहा, “अंकल, आपने मुझे जिंदगी दी थी। आज मैं जो भी हूं, आपके दिए हुए उन 50 पेन की वजह से हूं।”

कोमल ने चौहान की कंपनी को बिना एडवांस के माल दिया और उन्हें अपनी कंपनी के बोर्ड में शामिल कर लिया। चौहान ने अपनी बाकी जिंदगी कोमल के साथ समाज सेवा में लगा दी।