कभी साथ चले हाथ, आज खामोशी की दीवार: सचिन, कविता और महिमा की कहानी
कभी जिन हाथों ने एक-दूसरे की हथेली थामकर वक्त से जिद की थी कि साथ रहेंगे चाहे हालात जैसे भी हों, आज उन्हीं हाथों के बीच खामोशी की ऐसी दीवार खड़ी हो चुकी थी जिसे तोड़ने की हिम्मत ना वक्त में थी, ना हालात में।
बस एक उम्मीद थी जो सालों बाद फिर उसी मोड़ पर ले आई थी जहां कभी साथ चला करते थे।
सचिन उस दिन एक पुराने क्लाइंट से मिलने गया था। काम छोटा था, पर लोकेशन वही थी—वही मोहल्ला जहां बरसों पहले वह अपनी पत्नी कविता के साथ चाय पीने आता था।
गलियां वही थीं, दुकानों के नाम बदल गए थे। दीवारें फिर से रंग ली गई थीं, मगर कुछ यादें आज भी उन ईंटों में चुपचाप दबी हुई थीं।
कार से उतरकर सचिन जैसे अतीत में उतर गया।
नुक्कड़ पर एक छोटी सी दुकान दिखी—लकड़ी का ठेला, आम, केले, संतरे, सब्जियां, और एक पुराना गैस चूल्हा जिस पर चाय चल रही थी।
दो बेंचें, लोहे की पेटी, कुछ गिलास और कपड़े का झोला।
उस पूरे सेटअप के बीच एक औरत खड़ी थी—सांवली सी, पसीने से भीगी पेशानी, माथे पर बड़ा तिल और हाथों में चाय की केतली।
वो कभी चाय छानती, कभी फल झाड़ती, कभी ग्राहक से पूछती—”क्या दूं साहब? चाय या फल?”
सचिन के कदम वही रुक गए।
वो चेहरा, वो चाल, वो माथे का तिल—सब पहचानने जैसा था, पर यकीन करने जैसा नहीं।
वो कविता थी। वही कविता जिससे उसने कभी सात फेरे लिए थे।
जिससे वादा किया था—तेरे बिना अधूरा हूं मैं।
और आज, धूप में खड़ी एक चाय और फल की दुकान चला रही थी।
शायद जिंदगी के हालात से लड़ती हुई, शायद अपनी बेटी के इलाज का बोझ उठाती हुई, और सबसे ऊपर—अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए हर सुबह खुद से एक नई जंग लड़ती हुई।
सचिन के होठ सूखने लगे।
उसने चेहरा ढक लिया।
अब वह पहले जैसा नहीं था—चेहरा भर गया था, रंग साफ था, कपड़े महंगे थे, चाल में रुतबा था।
लेकिन उस एक पल में वह फिर वही सचिन बन गया था, जो कभी कविता की हर बात उसकी आंखों से पढ़ लिया करता था।
वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा।
भीड़ थी, आवाजें सुनाई नहीं दे रही थीं।
सिर्फ एक शोर था—अंदर से उठता हुआ।
कविता अपने काम में लगी रही। उसकी आंखों में थकान थी, पर इरादों में कोई समझौता नहीं।
सचिन खुद को संभालकर धीरे-धीरे उसके पास पहुंचा।
थोड़ा साइड में खड़ा हुआ।
कविता ने बिना देखे पूछा, “क्या लेंगे साहब? चाय, फल?”
सचिन की आवाज कांप रही थी, लेकिन उसने खुद को रोका—”एक कड़क चाय और कुछ आम दिखा दीजिए।”
कविता ने चाय छाननी शुरू की और झोले से आम की टोकरी निकाली।
सचिन की नजर टोकरी के पास रखी एक पुरानी तस्वीर पर पड़ी—एक मासूम बच्ची की मुस्कुराती सी झलक।
कमजोर चेहरा, चमकती आंखें, जैसे अब भी किसी को “पापा” कहने की आस हो।
वह ठिटक गया।
वह तस्वीर उसकी रग-रग में उतर गई थी।
उसने पूछा, “ये आम कैसे दिए?”
कविता बोली, “सुबह ही लाई हूं, साहब। मीठे हैं, मुरझा गए हैं थोड़ा। ₹100 किलो, खाकर देख लीजिए।”
सचिन बोला, “सारे दे दो।”
कविता थोड़ी चौकी, फिर मुस्कुराई नहीं—बस झट से तोलने लगी।
“8 किलो हैं, ₹800 होंगे। आप सब ले रहे हैं, तो 640 दे दीजिए।”
सचिन ने चुपचाप दो 500 के नोट पकड़ा दिए और मुड़ने लगा।
तभी पीछे से आवाज आई—”साहब, ₹200 ज्यादा दे दिए, भीख नहीं चाहिए।”
सचिन वहीं रुक गया।
कविता पास आई, उसके हाथ में ₹200 रखे और बोली, “इज्जत बचाने को यह दुकान है, कमजोर नहीं हूं।”
सचिन की आंखें भर आईं।
कुछ पल चुप रहा।
फिर कांपती आवाज में बोला, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता क्या?”
कविता ने एक गहरी सांस ली, चाय की केतली रखते हुए बोली, “12 साल पहले तलाक हो गया साहब।”
सचिन का दिल जैसे किसी ने निचोड़ लिया हो।
वह एक पल के लिए थम गया।
फिर अपने झोले को संभालता हुआ धीमे-धीमे उस दुकान से हटने लगा।
पर उसकी आंखें अब भी उसी तस्वीर पर अटकी थीं।
कविता आम समेट रही थी, गैस का चूल्हा बंद कर चुकी थी।
झोले में बचे हुए फल रखे और थके हुए ढंग से दुकान की पेटी उठाकर चल पड़ी।
सचिन अब भी थोड़ी दूरी पर खड़ा था—हाथ में झोला, दिल में बवंडर।
उसने खुद से पूछा—क्या वो मेरी बेटी थी? क्या मैंने सच में सब कुछ खो दिया?
वो ज्यादा सोच नहीं पाया।
बस उसके कदम खुद-ब-खुद कविता के पीछे चल पड़े।
गली तंग थी—बिजली के झूलते तार, छतों से टपकती बूंदें, दीवारों पर नाम मिटे हुए पोस्टर, हर दरवाजे पर थकी हुई जिंदगी।
लेकिन कविता जहां जाकर रुकी, वो घर अलग था—छोटा सा टूटा-फूटा मकान, सामने बरामदे में दो खटिया।
एक खटिया पर बूढ़ी औरत—सूखे हाथ, धंसी आंखें, चुपचाप आकाश की ओर देख रही थी।
दूसरी खटिया पर दस साल की लड़की—कमजोर, सांवली, सुनी आंखें, बिखरे बाल, पास में एक खिलौना रखा था, लेकिन उसे छू भी नहीं रही थी।
सचिन वहीं रुक गया।
कविता ने घर का दरवाजा खोला, बोझ उतारा, भीतर चली गई।
सचिन की निगाह उस बच्ची पर अटक गई थी—वो बच्ची जो बस खटिया पर लेटी थी, ना हिल रही थी, ना किसी से कुछ कह रही थी।
वह महिमा थी—उसकी अपनी बेटी।
अब कोई तस्वीर नहीं, अब कोई झलक नहीं—अब सच सामने था।
सचिन ने धीरे से एक कदम बढ़ाया, लेकिन उसके सीने में कुछ कसने लगा।
उसकी बेटी इतनी कमजोर, इतनी चुप।
उसे याद आया वो दिन जब महिमा एक साल की थी और उसकी गोद से उतरने का नाम नहीं लेती थी।
आज वह खटिया पर अकेली पड़ी थी, जैसे जिंदगी से भी नाराज हो।
वह और पास नहीं जा सका।
बस दीवार के साए में खड़ा होकर देखता रहा।
उसकी आंखें भर आईं, दिल से सिर्फ एक ख्याल निकला—इतनी मासूम जान मेरी गलती क्यों भुगत रही है?
तभी अंदर से कविता बाहर आई, एक गिलास में पानी लेकर।
जैसे ही उसकी नजर सचिन पर पड़ी, वह ठहर गई।
फिर बिना कुछ कहे उसके पास आई—चेहरे पर ना गुस्सा, ना हैरानी, बस एक थकी हुई लेकिन स्थिर आवाज, “यहां तक आ ही गए?”
सचिन कुछ बोल नहीं पाया।
आंखें झुका लीं।
कविता ने महिमा की ओर देखा, फिर सचिन की आंखों में झांकते हुए बोली, “अब देख भी लिया, अब शायद समझ भी आ गया होगा कि अकेले कितना मुश्किल होता है सब कुछ उठाना।”
सचिन की आवाज कांप रही थी—”यह महिमा है ना?”
कविता की आंखों में नमी आ गई, लेकिन कोई इल्जाम नहीं लगाया।
“हां, यह वही है जो कभी तुम्हें पापा कहती थी और अब सिर्फ बीमार पड़ी रहती है।”
सचिन के होंठ कांप गए।
खुद को बमुश्किल संभाला।
फिर धीमे से बोला, “मुझे नहीं पता था कि चीज इतनी…”
कविता ने बात बीच में ही काट दी, “पता होता तो क्या करते?”
सचिन चुप हो गया।
महिमा की ओर देखा, जो अब भी वही थी, उसी खटिया पर।
थोड़ी देर बाद महिमा ने धीरे से करवट ली और अपनी सुनी आंखों से एक बार सामने देखा।
वो नजरें सचिन से मिलीं।
सचिन घबरा गया, पीछे हो गया, जैसे किसी गुनाह में पकड़ा गया हो।
पर महिमा ने कुछ नहीं कहा।
वह सिर्फ देख रही थी, जैसे कोई भूली हुई पहचान याद करने की कोशिश कर रही हो।
कविता ने कहा, “अब अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो एक बार सीधे उसके सामने जाकर खड़े हो जाओ। ना भूत की तरह, ना छुप कर—बस एक बार, बाप बनकर।”
सचिन कुछ नहीं बोला।
दीवार से पीठ लगाकर खड़ा रह गया।
महिमा देख रही थी, उसकी आंखों में ना डर था, ना खुशी—बस एक सवाल था जो शायद उसे खुद भी समझ नहीं आ रहा था।
महिमा अब खटिया से थोड़ा उठकर बैठ चुकी थी।
चेहरे पर वही थकी हुई मासूमियत थी, जो उन बच्चों में देखी जाती है जो बोलते कम हैं, सहते ज्यादा हैं।
उसने मां की ओर देखा, फिर उस अनजान आदमी की तरफ, जो दीवार के पास थोड़ी दूरी से उसे देख रहा था।
वह आदमी जिसकी आंखों में डर भी था, पछतावा भी और एक अनकही पहचान की उम्मीद भी।
कविता खामोशी से महिमा के पास गई, धीरे से उसके सर पर हाथ फेरा और हल्के स्वर में कहा, “बेटा, यह तुम्हारे पापा हैं।”
महिमा कुछ नहीं बोली, बस आंखें उठाकर सचिन को देखा, फिर नीचे देखने लगी।
सचिन खुद को रोक नहीं पाया, धीरे-धीरे आगे बढ़ा, महिमा के सामने जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया।
आंखों से आंसू बहने लगे।
कांपती आवाज में कहा, “मैं बहुत सालों तक चुप रहा बेटा, बहुत बड़ी गलती कर दी। मैंने तुम्हें भी छोड़ दिया, तुम्हारी मां को भी और खुद को भी खो बैठा। पता नहीं अब हक रह गया है या नहीं, पर क्या तुम बस एक बार मुझे माफ कर सकती हो?”
महिमा की आंखों में सीधा गुस्सा नहीं था, कोई भाव भी नहीं था—बस एक खालीपन था जो कह रहा था, “इतने साल कहां थे पापा?”
कुछ पल खामोशी रही।
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