विरासत पंजाब: इंसानियत की असली पहचान
अमृतसर के लॉरेंस रोड पर ‘विरासत पंजाब’ नाम से एक शानदार फाइव स्टार रेस्टोरेंट था। इसकी दीवारों पर फुलकारी की कारीगरी, छत पर झाड़-फानूस और हर कोने में देसी घी की खुशबू बसी थी। इस रेस्टोरेंट के मालिक थे, 60 साल के सरदार इकबाल सिंह। उन्होंने अपनी जिंदगी की शुरुआत एक छोले-कुलचे की रेड़ी से की थी, और अपनी मेहनत और ईमानदारी से 40 साल में इस साम्राज्य को खड़ा किया था। उनके लिए ये रेस्टोरेंट सिर्फ बिज़नेस नहीं, बल्कि एक इबादतगाह था। उनका उसूल था—यहाँ आया हर इंसान, चाहे अमीर हो या गरीब, रब का रूप होता है।
लेकिन पिछले कुछ सालों से इकबाल सिंह को लगने लगा था कि उनके उसूलों की चमक फीकी पड़ रही है। उन्होंने कामकाज से खुद को थोड़ा दूर करके एक नए, घमंडी मैनेजर आलोक वर्मा को नियुक्त किया था। आलोक वर्मा सिर्फ अमीरों की इज्जत करता, गरीबों को तुच्छ समझता और इंसानियत से कोसों दूर था। इकबाल सिंह ने सुन रखा था कि अब रेस्टोरेंट में गरीबों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता।
एक दिन उन्होंने सच जानने के लिए खुद भिखारी का भेष बनाया। उन्होंने फटा-पुराना कुर्ता, मिट्टी लगी दाढ़ी, टूटी चप्पलें पहन लीं और अपने ही रेस्टोरेंट के दरवाजे पर पहुंचे। दोपहर का वक्त था, बाहर महंगी गाड़ियां लगी थीं। जैसे ही वे अंदर जाने लगे, दरबानों ने उन्हें रोक लिया, “ओए बाऊजी, ये कोई लंगर नहीं है, यहां से भागो!”
इकबाल सिंह ने हाथ जोड़कर कहा, “पुत्तर, दो दिन से भूखा हूं, थोड़ा खाना दे दो।”
दरबानों ने हंसते हुए उन्हें धक्का देकर बाहर फेंक दिया।
इसी बीच मैनेजर आलोक वर्मा भी बाहर आया और बोला, “अगर फिर दिखे तो पुलिस बुला लूंगा।”
इकबाल सिंह सड़क पर गिर पड़े, घुटने छिल गए, लेकिन दिल उससे ज्यादा दुखा।
रेस्टोरेंट के अंदर से ये सब देख रही थी 22 साल की मेहर, जो वहीं वेटर थी। गरीब किसान की बेटी, घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर थी। मेहर का दिल पसीज गया। उसने अपने हिस्से की दो रोटियां, थोड़ी दाल-सब्ज़ी और एक पानी की बोतल एक नैपकिन में बांधी और चुपके से पिछले दरवाजे से बाहर निकलकर उस बुजुर्ग के पास पहुंची।
“बाऊजी, थोड़ा सा खाना खा लीजिए, ये मेरा है,” मेहर ने कांपती आवाज़ में कहा।
इकबाल सिंह की आंखों में आंसू आ गए।
तभी बाहर सिगरेट पीने आए आलोक वर्मा ने यह देख लिया। वह गुस्से से आगबबूला हो गया, “मेहर, तू होटल का खाना किसी भिखारी को खिला रही है? तू आज से नौकरी से निकाली जाती है!”
मेहर की आंखों में आंसू आ गए, उसकी दुनिया उजड़ गई। इकबाल सिंह चुपचाप सब देख रहे थे।
शाम को ‘विरासत पंजाब’ के दरवाजे पर इकबाल सिंह अपने असली रूप में, शानदार कपड़ों और रोल्स रॉयस में पहुंचे। पूरे स्टाफ को हॉल में बुलाया गया।
इकबाल सिंह ने सबके सामने आलोक वर्मा से पूछा, “आज दोपहर क्या हुआ?”
आलोक वर्मा घबराया, “सर, सब ठीक था।”
इकबाल सिंह ने अपनी कलाई पर बचपन का जला हुआ निशान दिखाया और वही कांपती आवाज़ दोहराई, “पुत्तर, दो दिन से भूखा हूं…”
पूरा हॉल सन्न रह गया।
इकबाल सिंह गरजे, “यह रेस्टोरेंट मैंने सेवा और इंसानियत के लिए बनाया था, और तुमने इसकी आत्मा को मार दिया।”
उन्होंने आलोक वर्मा को तुरंत नौकरी से निकाल दिया और कहा, “अब तुम्हें इस शहर में कोई भी नौकरी नहीं देगा।”
फिर उन्होंने पूछा, “वो लड़की, मेहर कहां है?”
किसी ने बताया, “सर, वो अपने गांव चली गई।”
इकबाल सिंह तुरंत अपने असिस्टेंट के साथ मेहर के गांव पहुंचे। वहां मातम पसरा था। मेहर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था, क्योंकि बेटी की नौकरी चली गई थी।
इकबाल सिंह ने खुद को दोषी मानते हुए मेहर के पिता के पैरों पर गिरकर माफी मांगी। फिर उन्होंने अपने हेलीकॉप्टर से मेहर के पिता को दिल्ली के बड़े हॉस्पिटल में भर्ती कराया, इलाज और परिवार का सारा खर्च उठाया, सारा कर्ज चुकाया।
सब कुछ ठीक होने के बाद इकबाल सिंह ने मेहर को बुलाया, “बेटी, उस दिन तुमने भूखे को अपना हिस्सा खिलाया था। अब मैं तुम्हें तुम्हारा हक देता हूं। आज से तुम विरासत पंजाब की जनरल मैनेजर हो, और ये 10% हिस्सेदारी के कागज हैं। अब तुम सिर्फ मैनेजर नहीं, इस रेस्टोरेंट की मालकिन भी हो।”
मेहर की आंखों में खुशी के आंसू थे।
उसने रेस्टोरेंट में ‘गुरु का लंगर’ शुरू किया। रोज बचा हुआ खाना गरीबों में बांटा जाता, हर महीने पहले रविवार को विशाल लंगर लगता, जहां कोई भी भूखा आकर सम्मान से खाना खा सकता था।
‘विरासत पंजाब’ अब सिर्फ अपने शाही खाने के लिए नहीं, बल्कि इंसानियत और सेवा के लिए भी मशहूर हो गया।
**यह कहानी हमें सिखाती है कि असली दौलत इंसानियत है। जब हम किसी की मदद करते हैं, तो हम उसकी ही नहीं, अपनी भी दुनिया बदलते हैं।**
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