कविता की इंसानियत और किस्मत की कहानी

मुंबई – सपनों का शहर, तेज़ रफ्तार, लाखों उम्मीदें, और उन्हीं उम्मीदों के बीच एक साधारण लड़की थी कविता। उत्तर प्रदेश के छोटे कस्बे से आई 26 साल की कविता, जिसने अपने परिवार की जिम्मेदारियों को कंधों पर उठाया था—बीमार माँ का इलाज, छोटे भाई की पढ़ाई, घर का खर्चा। मुंबई की ग्लोबल टेक सॉल्यूशंस कंपनी में उसकी नौकरी ही उसकी दुनिया थी।

संघर्ष और उम्मीदें
कविता ने चार साल तक दिन-रात मेहनत की थी। उसकी सुबह 9 बजे लोकल ट्रेन से शुरू होती और रात 10 बजे की आखिरी लोकल में खत्म। उसका हर दिन बस एक ही जिद में बीतता—अपने परिवार को बेहतर ज़िंदगी देना।
कुछ महीनों से कंपनी में छंटनी का डर था। नए वाइस प्रेसिडेंट आलोक वर्मा आए थे, जिनका एक ही मकसद था—मुनाफा बढ़ाना, चाहे कितने ही लोगों की नौकरी चली जाए। इसी बीच कंपनी ने एक बड़ा प्रोजेक्ट लॉन्च किया, जिसकी प्रेजेंटेशन सीधे मिस्टर वर्मा और बोर्ड के सामने थी। यह कविता के लिए अपनी काबिलियत साबित करने और नौकरी बचाने का आखिरी मौका था।

वो अहम दिन
कविता ने हफ्तों रात-रात भर जागकर रिसर्च की, डाटा इकट्ठा किया और एक बेहतरीन प्रेजेंटेशन तैयार की। वह जानती थी, यही उसकी नौकरी, माँ के इलाज, भाई की पढ़ाई और परिवार के भविष्य का टिकट है।
प्रेजेंटेशन वाले दिन, कविता सुबह जल्दी उठी, माँ को फोन किया। माँ ने कांपती आवाज़ में आशीर्वाद दिया—“बेटा, चिंता मत कर, भगवान सब अच्छा करेगा।”
कविता तैयार होकर स्टेशन की तरफ दौड़ी। 9:15 की फास्ट लोकल पकड़नी थी, जो उसे समय पर ऑफिस पहुँचा सकती थी। ट्रैफिक, भीड़, बेचैनी—सबका सामना करके वह प्लेटफार्म तक पहुँची। ट्रेन चलने वाली थी, प्लेटफार्म सात दूसरी तरफ था। वह दौड़ी, सीढ़ियाँ चढ़ी, पसीना-पसीना हो गई।

कहानी का मोड़
जैसे ही वह लेडीज डिब्बे के पास पहुँची, उसकी नजर सीढ़ियों के नीचे गिरे एक बुजुर्ग पर पड़ी। 70-75 साल के दादाजी, माथे से खून बह रहा था, चश्मा टूटा हुआ, दर्द से कराह रहे थे। लोग उन्हें अनदेखा कर रहे थे, कोई रुकने को तैयार नहीं था।
कविता का दिमाग चिल्लाया—”आगे बढ़, यह ट्रेन तेरी ज़िंदगी है। अगर छूट गई तो सब खत्म!” उसका शरीर ट्रेन की ओर बढ़ा, डिब्बे का हैंडल पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया।
तभी उसकी नजर फिर बुजुर्ग के चेहरे पर गई—लाचारी, दर्द, आँखों में उम्मीद। उसे अपने बीमार पिता की याद आ गई। क्या होता अगर उनकी जगह मेरे पापा होते? यह सोचते ही उसके कदम रुक गए। दिल की इंसानियत जीत गई।

इंसानियत की जीत
कविता ने ट्रेन को जाते देखा, आँखों में आँसू आ गए। उसने बुजुर्ग के पास जाकर उनका घाव साफ किया, पानी दिया, मदद के लिए लोगों से पुकारा। एक कुली ने कहा—“दीदी, क्यों फालतू में पड़ रही हो? रोज का है ये सब।”
कविता ने कुली की मदद ली, दोनों ने बुजुर्ग को स्टेशन के क्लीनिक तक पहुँचाया। डॉक्टर ने पट्टी की, बताया कि चोट गहरी नहीं है, आराम की जरूरत है।
बुजुर्ग ने कांपती आवाज़ में कहा—”शुक्रिया बेटी, अगर तुम ना होती तो पता नहीं क्या होता।” कविता कुछ बोल ना सकी, उसकी आँखों में आँसू थे, नौकरी खोने का डर था। बुजुर्ग ने नाम, कंपनी, पोस्ट पूछी। कविता ने सब बता दिया।
बुजुर्ग ने एक पुराना विजिटिंग कार्ड दिया—“दयाशंकर”, एक नंबर लिखा था। “अगर कभी जरूरत हो, फोन करना।” कविता ने कार्ड तो ले लिया, पर कोई उम्मीद नहीं थी। थोड़ी देर बाद एक अच्छी गाड़ी आई, ड्राइवर ने बुजुर्ग को “मालिक” कह कर बुलाया। कविता हैरान थी, पर घर लौट आई।

किस्मत का नया मोड़
अगले दिन कविता ऑफिस पहुँची, डरी हुई थी। सब उसे अजीब नजरों से देख रहे थे। दोपहर में मिस्टर वर्मा के केबिन में बुलाया गया। उसे लगा, आज टर्मिनेशन लेटर मिलेगा।
वर्मा ने गुस्से से कहा—”आपने बहुत गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार किया।” कविता सफाई देना चाहती थी, तभी वर्मा के डेस्क पर लाल फोन बजा। यह फोन सिर्फ टॉप मैनेजमेंट के लिए था।
वर्मा ने फोन उठाया, अचानक उनकी आवाज़ विनम्र हो गई। “जी सर, कविता जी यहीं हैं। जैसा आप कहें, सर।”
फोन रखने के बाद वर्मा का चेहरा सफेद पड़ गया। उन्होंने पूछा—“मिस कविता, आप चेयरमैन साहब को कैसे जानती हैं?”
कविता हैरान थी—“मैं किसी चेयरमैन को नहीं जानती।”
वर्मा बोले—“अभी हमारे चेयरमैन मिस्टर आनंद कुमार सिंह का फोन था। उन्होंने कल स्टेशन पर जो हुआ, वह बताया। वह बुजुर्ग जिनकी मदद के लिए आपने अपनी ज़िंदगी की सबसे जरूरी ट्रेन छोड़ दी, वही हमारे चेयरमैन हैं। वह अक्सर अपनी पहचान छिपाकर आम आदमी की तरह घूमते हैं।”

नई पहचान, नई मंजिल
चेयरमैन साहब ने कहा—”कंपनी मुनाफे से नहीं, इंसानों से चलती है। हमें तुम्हारे जैसे लोगों की जरूरत है जिनके लिए इंसानियत सबसे ऊपर है।”
मिस्टर वर्मा ने कविता को लिफाफा दिया—”यह टर्मिनेशन नहीं, तुम्हारा प्रमोशन लेटर है। तुम्हें प्रोजेक्ट हेड बनाया जाता है। और एक नया डिपार्टमेंट—एंप्लई वेलफेयर एंड एथिक्स—जिसकी नेशनल हेड तुम होगी।”
कविता की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे। एक फैसला, जो दिल से लिया था, उसकी किस्मत को नई दिशा दे गया। उसने ट्रेन जरूर मिस कर दी थी, लेकिन इंसानियत की ट्रेन पर सवार होकर वह ऐसी मंजिल पर पहुँची, जिसका सपना भी नहीं देखा था।