कहानी: मां का अपमान और कर्मों का न्याय

मुंबई के एक छोटे से घर में कमला देवी अपने बेटे अजय के लिए जी-जान से मेहनत करती थी। उसने खेतों में मजदूरी की, जेवर बेचकर अजय की पढ़ाई कराई, खुद फटे कपड़ों में रही, मगर बेटे को अच्छे कपड़े पहनाए। कमला का सपना था—मेरा बेटा बड़ा आदमी बने। वक्त बदला, अजय बड़ा हुआ, शहर में नौकरी मिली, शादी हुई। लेकिन जैसे-जैसे अजय की जिंदगी में पैसा और शोहरत आई, मां उसके लिए बोझ बनती गई।

अजय की पत्नी सीमा बार-बार ताने देती—घर छोटा है, खर्चा बड़ा है, आपकी मां कब तक रहेंगी? अजय कभी चुप रहता, कभी मां से कह देता—मां, थोड़ा संभल कर रहा करो। कमला सब सुनती, मगर शिकायत कभी नहीं करती। उसके लिए बेटे का घर ही मंदिर था।

सीमा के तानों ने धीरे-धीरे अजय के मन में जगह बना ली। उसने सोचा—मां अब बोझ बन गई है। अगर ये ना रहे तो घर में शांति रहे। लेकिन मां को सीधे बाहर निकालना आसान नहीं था। इसलिए एक दिन उसने योजना बनाई।

अजय ने मां से कहा—मां, तुम्हारी बरसों की तमन्ना पूरी करने का समय आ गया है। मैं तुम्हें बाबा वैद्यनाथ धाम के दर्शन कराने ले चलूंगा। कमला की आंखों से आंसू बह निकले। उसने बेटे का चेहरा पकड़कर आशीर्वाद दिया—भोलेनाथ तुझे लंबी उम्र दे। बेटा, तूने मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना पूरा कर दिया।

कमला ने अपनी सबसे अच्छी साड़ी निकाली, पोटली में बेलपत्र, चावल, माला रखी। सुबह कार में बैठते हुए आसमान की ओर देखा—धन्यवाद भोले, तूने मेरी सुन ली। रास्ते भर वह बेटे से खुश होकर बातें करती रही—बचपन में जब तुझे बुखार आया था, तब मनौती मानी थी कि तुझे ठीक कर दे तो देवघर ले जाऊंगी। आज तू मुझे ले जा रहा है।

देवघर पहुंचकर मंदिर की भीड़ देखी, मन प्रसन्न हो गया। अजय ने मां से कहा—मां, आप यहीं विश्रामालय की सीढ़ियों पर बैठिए। मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेने जाता हूं। कमला ने बेटे की बात मान ली। वह सीढ़ियों पर बैठ गई, दोनों हाथ जोड़कर बाबा का नाम जपने लगी।

समय बीतता गया—आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे। सूरज ढलने लगा, मगर अजय नहीं लौटा। कमला बेचैन होकर इधर-उधर देखने लगी। हर आने-जाने वाले में बेटे का चेहरा ढूंढती रही। धीरे-धीरे शक हुआ—कहीं अजय मुझे छोड़कर तो नहीं चला गया? मगर मां का दिल फिर भी बेटे के लिए दुआ करता रहा—भोलेनाथ, मेरा अजय जहां भी रहे, सुखी रहे।