कहानी: वीर चोपड़ा और उसके माता-पिता का सम्मान

मुंबई के सबसे बड़े होटल का मालिक था वीर चोपड़ा। उसके नाम से ही लोग उसकी शान और सफलता की मिसाल देते थे। लेकिन आज उसकी जिंदगी का एक ऐसा मोड़ आया, जिसने पूरे शहर को हिला दिया।

आज पहली बार वीर के माता-पिता, रामपाल और सरला, अपने छोटे से गांव से मुंबई आ रहे थे। उन्होंने जान-बूझकर साधारण, गांव जैसे कपड़े पहने थे। वे देखना चाहते थे कि उनके बेटे के होटल में गरीबों के साथ कैसा व्यवहार होता है। क्या वहां इंसानियत बची है या सिर्फ दिखावा?

सुबह, गांव में सरला ने रामपाल को गुड़ वाली चाय दी। दोनों के चेहरे पर गर्व और खुशी थी। उन्हें याद था कैसे उन्होंने अपनी पूरी जमा-पूंजी और गहने बेचकर वीर को मुंबई भेजा था, ताकि उसका सपना पूरा हो सके। वीर ने मेहनत से ग्रैंड इंपीरियल होटल खड़ा किया—मुंबई का सबसे आलीशान होटल।

होटल की पांचवीं सालगिरह थी। वीर ने अपने माता-पिता को खास तौर पर बुलाया था। सरला ने अपनी पुरानी किनारी वाली साड़ी निकाली, रामपाल ने साफ कुर्ता-पायजामा पहना। दोनों मुंबई की ट्रेन में बैठे, शहर की भीड़ और चमक देखकर हैरान थे।

होटल के गेट पर पहुंचे तो दरबान ने उन्हें ऊपर-नीचे देखा, तिरस्कार से बोला—यह कोई धर्मशाला नहीं है। रामपाल ने विनम्रता से कहा, “हम वीर चोपड़ा के मेहमान हैं।” गार्ड ने हंसते हुए ताना मारा, “अपनी शक्ल देखी है?” कार्ड दिखाने पर बेमन से अंदर जाने दिया, लेकिन अपमान का घूंट पिलाया—”कोने में पड़े रहना, किसी को परेशान मत करना।”

अंदर, वे भीड़ में एक कोने में खड़े हो गए। सब अमीर मेहमान, फिल्मी सितारे, उद्योगपति—और उनके बीच ये दो साधारण लोग। वेट्रेस आई, तिरस्कार से बोली, “यह भीख मांगने की जगह नहीं है।” सरला ने कहा, “हम वीर के मां-बाप हैं।” वेट्रेस ने मजाक उड़ाया—”वीर सर के मां-बाप ऐसे फटेहाल नहीं हो सकते।”