दीवार के उस पार – रामू की कहानी
कभी-कभी ज़िंदगी बच्चों के हाथों में खिलौने नहीं देती, बस एक फटा हुआ बोरा थमा देती है। शिवनगर की गलियों में एक ऐसा ही बच्चा था – रामू। हर सुबह वह स्कूल की दीवार के बाहर बैठता और अंदर से आती किताबों की आवाज़ें सुनता। उसे लगता जैसे दीवार के उस पार कोई दूसरी दुनिया है।
रामू के पिता कई साल पहले काम की तलाश में शहर गए थे और लौटे नहीं। उसकी माँ बीमार और कमजोर थी, कभी लोगों के घर बर्तन मांजती, कभी मंदिर के बाहर बैठ जाती। रामू ने अपनी उम्र से पहले ही जिम्मेदारी सीख ली थी। हर सुबह वह कूड़े के ढेर से रोटी ढूंढता, लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी।
वह रोज़ ज्ञानदीप पब्लिक स्कूल की दीवार के पास रुकता, दीवार की दरार से झांकता और कान लगा देता। अंदर से टीचर की आवाज़ आती – “बच्चों, पेज नंबर 25 खोलो।” रामू मुस्कुरा देता। धीरे-धीरे वह सुन-सुनकर सब याद करने लगा। हिंदी की कविताएं, अंग्रेज़ी के शब्द, सब उसे याद हो गए।

एक दिन टीचर ने कबीर का दोहा पढ़ाया –
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोई।
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा ना कोई।”
रामू ने धीरे से दोहराया। उसे नहीं पता था कि उसने सही बोला है या नहीं, लेकिन उसके दिल में आवाज़ गूंजी – “मैं भी पढ़ सकता हूं।”
शाम को घर लौटा तो माँ ने पूछा, “क्या मिला आज?” रामू बोरे से ₹2 और कुछ अखबार निकाल कर रख देता। माँ ने कहा, “बेटा, तू पढ़ लेता तो शायद आज ज़िंदगी आसान होती।” रामू ने माँ की हथेली पकड़ी और बोला, “एक दिन मैं भी स्कूल जाऊंगा।”
रात को उसकी झोपड़ी में अंधेरा था, छत से बारिश टपक रही थी। रामू फटे कंबल में सिमट कर सो गया। सपने में वही दीवार दरवाज़ा बन गई थी और रामू स्कूल की क्लास में खड़ा था।
अगली सुबह, स्कूल में टीचर पढ़ा रही थी – “उत्तर प्रदेश की राजधानी इलाहाबाद है।” रामू को याद आया, उसने अखबार में पढ़ा था – लखनऊ राजधानी है। उसने हिचकिचाते हुए दीवार के बाहर से कहा, “मैडम, आप गलत पढ़ा रही हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है।”
टीचर बाहर आई, रामू को देखा। उसने बताया कि उसने अखबार में पढ़ा था। टीचर की आंखें भर आईं, उन्होंने रामू को अंदर बुलाया। क्लास में सब बच्चे हैरान थे। टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखा – “भारत की राजधानी कौन सी है?” रामू ने जवाब दिया – “नई दिल्ली।” क्लास तालियों से गूंज उठा।
टीचर ने रामू से पूछा, “तुम बाहर क्यों बैठते हो?” रामू बोला, “मेरा बस्ता नहीं है, किताबें नहीं हैं, बस यह बोरा है।” टीचर ने उसके सिर पर हाथ रखा, “बस्ता हम देंगे, किताबें भी।”
अगले दिन रामू पहली बार स्कूल के गेट के अंदर गया। हाथ में पुराना टिफिन, कंधे पर टीचर की दी हुई फटी सी बस्ता, और आंखों में चमक। क्लास में बैठते ही उसने ब्लैक बोर्ड देखा, जो अब तक सिर्फ दीवार के पार से दिखता था।
कुछ बच्चे उसे देखकर फुसफुसाए – “यह तो वही कूड़ा बिनने वाला है।” लेकिन रामू ने सिर झुका लिया और पढ़ाई में लग गया। लंच टाइम में उसने सूखी रोटी निकाली, सामने वाले बच्चे ने कहा – “उफ कैसी बदबू है, दूर जाकर खा।” रामू क्लास के बाहर, दीवार के नीचे बैठ गया। टीचर बाहर आई, रामू बोला, “मैडम, मैं पढ़ना चाहता हूं, पर सब कहते हैं मैं गंदा हूं।” टीचर ने उसका सिर सहलाया – “जिस बच्चे के पास चाहत है, वह सबसे बड़ा होता है।”
रामू ने आंसू पोछे और फिर क्लास में गया। उस रात उसने फैसला किया – अब वह रोएगा नहीं, कुछ बनकर दिखाएगा।
अगले दिन टेस्ट था। टीचर ने कबीर का प्रसिद्ध दोहा पूछा। रामू ने आत्मविश्वास से जवाब दिया, अर्थ भी बताया। क्लास चुप थी, टीचर ने ताली बजाई, सबने साथ दिया। धीरे-धीरे रामू सबका ध्यान खींचने लगा। वह हर सवाल का जवाब देने लगा, टीचर रोज़ उसे थोड़ी देर और पढ़ाती।
एक दिन प्रिंसिपल मैडम ने कहा – “अगले हफ्ते वार्षिक समारोह है, जिसमें एक बच्चा कविता सुनाएगा।” टीचर बोली – “इस बार रामू सुनाएगा।” घर जाकर रामू ने माँ को बताया, “माँ, मैं स्कूल में कविता बोलने वाला हूं।” माँ की आंखों में चमक थी – “तू तो पहले ही मेरा गर्व है, अब दुनिया भी देखेगी तेरा उजाला।”
समारोह का दिन आया, रामू ने स्कूल की यूनिफार्म पहनी। स्टेज पर उसका नाम पुकारा गया। उसने वही दोहा सुनाया – “बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलिया कोई।” पूरा स्कूल खड़ा हो गया, तालियां बजने लगीं। टीचर की आंखों से आंसू गिर रहे थे। रामू के लिए अब वह दीवार टूट चुकी थी।
साल बीत गए। रामू अब एक शिक्षक बन चुका था, शहर के सरकारी स्कूल में गरीब बच्चों को पढ़ाता था। उसकी माँ अब बूढ़ी हो चुकी थी, लेकिन जब भी कोई पूछता – “अम्मा, आपका बेटा क्या करता है?” वो गर्व से कहती – “वो बच्चों को सपने सिखाता है।”
एक दिन रामू को ज्ञानदीप पब्लिक स्कूल से एक निमंत्रण मिला – “हमारी 25वीं वर्षगांठ पर आपको मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है।” रामू ने स्कूल के गेट के अंदर कदम रखा, इस बार डर नहीं था, बल्कि अभिमान था। टीचर नीलिमा मैडम अब बूढ़ी हो चुकी थीं, उन्होंने रामू को देखकर कहा – “मैं जानती थी, तुम एक दिन जरूर लौटोगे।”
स्टेज पर रामू ने कहा – “कभी मैं इस स्कूल की दीवार के बाहर बैठा करता था, आज उसी स्कूल के मंच पर खड़ा हूं। दीवारें गिरा दो और दिलों तक पहुंचो।” उसने वही दोहा दोहराया –
“बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलिया कोई।
जो दिल खोजा अपना, मुझसे बुरा ना कोई।”
पूरा हाल खामोश था, फिर तालियां गूंज उठीं। रामू ने पहली कतार में बैठे छोटे बच्चों को देखा – “तुम्हें किसी दीवार की जरूरत नहीं, बस अपने अंदर भरोसा रखो, ज़िंदगी बदल जाएगी।”
अब उस दीवार पर एक पट्टिका लगी थी – “जहां कभी एक कूड़ा बिनने वाला बच्चा बैठता था, अब वहां एक मिसाल है।”
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