कहानी: सेवा का असली अर्थ

सर्द हवाएँ उस सुबह कुछ ज्यादा ही बेरहम थीं। धूप के नाम पर बस एक फीकी किरण ज़मीन से झाँक रही थी। एक दुबला-पतला बुजुर्ग, उम्र लगभग 92 साल, कांपते हुए कदमों से बाज़ार की एक संकरी गली में बने मेडिकल स्टोर की ओर बढ़ रहा था। उसकी आँखों में थकान थी, साँसें फूली हुई थीं और हर खांसी जैसे शरीर को चीर रही थी। उसने एक पुरानी फाइल और डॉक्टर की लिखी पर्ची अपने कांपते हाथों में दबा रखी थी।

दुकान का नाम था “आरोग्य मेडिकल स्टोर”। अंदर एक युवा लड़का मोबाइल पर रील्स देख रहा था और काउंटर के पीछे दुकानदार चाय की चुस्की ले रहा था।
बुजुर्ग लड़खड़ाते हुए काउंटर तक पहुँचे, “बेटा, यह दवा बहुत जरूरी है।”
उन्होंने डॉक्टर की पर्ची आगे बढ़ाई, जिसमें साँस की बीमारी की दवा लिखी थी।
लड़का बिना देखे बोला, “पैसे दो पहले।”
बुजुर्ग ने कांपती आवाज़ में कहा, “पैसे नहीं हैं अभी। घर में पत्नी बीमार है। वादा करता हूँ, कल दे दूँगा। बस यह दवा दे दो।”
दुकानदार ने हँसते हुए कहा, “कमीने भी अब डॉक्टर की पर्ची लेकर भीख माँगने आ जाते हैं। चलो हटो यहाँ से, दिमाग मत खाओ।”
खांसी ने फिर जोर पकड़ा। बुजुर्ग पीछे की दीवार पकड़कर खुद को संभालने लगे। कुछ ग्राहक दुकान पर आए, पर किसी ने उसकी तरफ एक नजर भी नहीं डाली।


वो फिर बोले, “मैं झूठ नहीं बोल रहा…”
बीच में ही लड़का बोला, “अबे तेरी औकात दिखती है। सूट-बूट पहनकर नहीं आए, मतलब फ्री की दवा चाहिए। चल निकल!”
और फिर उस लड़के ने बुजुर्ग का हाथ झटक कर पर्ची नीचे गिरा दी और काउंटर का शीशा बंद कर लिया।
बुजुर्ग झुके, पर्ची उठाई और बिना कुछ कहे बाहर चले गए। उनके पीछे दीवार पर एक स्लोगन लिखा था – “सेवा ही धर्म है।”

देर रात घर के पुराने कमरे में वही बुजुर्ग अपनी पत्नी के बगल में बैठे थे। पत्नी की हालत बेहद नाजुक थी। उसने धीरे से पूछा, “दवा मिल गई?”
बुजुर्ग ने मुस्कुराने की कोशिश की और बोले, “हाँ, बस कल सुबह लाऊँगा। आज दुकाने बंद हो गई थीं।”
पत्नी ने उनकी उंगलियाँ थाम लीं, “तुम कभी झूठ बोलते नहीं थे…”
बुजुर्ग ने कुछ नहीं कहा, खिड़की से बाहर देखते हुए सिर्फ एक गहरी साँस ली।

अगली सुबह बाज़ार में अफरातफरी मच गई।
“क्या हुआ? इतनी पुलिस क्यों है मेडिकल स्टोर पर?”
वही बुजुर्ग भी वहाँ थे, लेकिन आज सूट में थे। चार पुलिस गाड़ियाँ आरोग्य मेडिकल स्टोर के बाहर रुकी थीं। दुकानदार हक्काबक्का था, लड़का मोबाइल फेंक चुका था।
स्लो मोशन में बुजुर्ग अंदर प्रवेश करते हैं – साफ प्रेस किया हुआ ग्रे सूट, चमकते जूते, आँखों में वही सादगी लेकिन अब आत्मविश्वास के साथ। उनके साथ एक निजी सहायक, एक महिला इंस्पेक्टर और दो वरिष्ठ अधिकारी थे।

दुकानदार ने जल्दी से चाय का गिलास हटाया, उठकर खड़ा हो गया, चेहरा सफेद पड़ गया।
महिला इंस्पेक्टर ने सीधा सवाल किया, “कल शाम यहाँ एक बुजुर्ग आदमी दवा माँगने आए थे। उन्हें दवा दी गई थी या नहीं?”
दुकानदार हकलाने लगा, “वो… अरे नहीं, वह तो कोई फर्जी लग रहा था…”
इंस्पेक्टर गरज उठी, “आपने सोचा आप डॉक्टर हैं या कानून खुद तय करते हैं? मेडिकल इमरजेंसी को मना करना जुर्म है और वह भी बिना पूछे-समझे किसी को भिखारी कहना!”

सहसा दुकानदार के पीछे खड़ा वही लड़का बोल पड़ा, “मैडम, वो बहुत ही गरीब लग रहे थे। ऐसे रोज आते हैं लोग।”
बुजुर्ग अब पहली बार बोले, आवाज धीमी लेकिन सीधी –
“गरीबी देखी थी या इंसानियत भूली थी?”
दुकान में सन्नाटा छा गया।
बुजुर्ग ने अपनी जैकेट की जेब से एक चमकता हुआ पुराना पहचान पत्र निकाला –
“स्वास्थ्य विभाग वरिष्ठ अधिकारी, सेवानिवृत्त भारत सरकार।
श्री हरिशंकर तिवारी, पूर्व मुख्य स्वास्थ्य आयुक्त, एमपी राज्य। सेवा काल 1978 से 2011 तक, पद्मश्री पुरस्कार 2007।”

दुकानदार की आँखें फटी की फटी रह गईं, लड़का एक कदम पीछे हट गया।
अब वह सिर्फ पीड़ित नहीं थे – एक संस्थान थे।
बाजार में खड़े लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे, अब एक दूसरे से बुदबुदाने लगे –
“अरे, यह तो वही हैं जिनका नाम हमने टीवी पर देखा था। इनकी वजह से ही शहर के सबसे बड़े अस्पताल की नींव पड़ी थी। इनके साथ ऐसा सलूक किया गया!”

महिला इंस्पेक्टर ने नोटबुक निकाली और तुरंत कार्रवाई के आदेश दिए –
दुकान सील की जाएगी, वीडियो फुटेज जब्त किया जाएगा, मेडिकल एक्ट की धारा तीन के तहत मुकदमा दर्ज किया जाएगा।
दुकानदार ने हाथ जोड़ लिए, “साहब, माफ कर दीजिए। हमें पता नहीं था।”
बुजुर्ग ने गंभीर स्वर में जवाब दिया,
“इसीलिए तो आज आया हूँ, ताकि अगली बार कोई बीमार, गरीब या मजबूर इंसान दरवाजे से लौटा ना जाए।”

उसी वक्त एक महिला अपनी बच्ची को दवा दिलवाने दुकान पर आई। लड़की बुखार में तप रही थी। बुजुर्ग ने जेब से पैसे निकाले और उसकी दवा खुद खरीदी।
फिर बोले, “सिर्फ मेरी नहीं, हर किसी की जान की कीमत बराबर है। चाहे जेब खाली हो या भरी।”
दुकान के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा था – “सेवा ही धर्म है।” लेकिन आज उसका असली मतलब समझ में आया था।

करीब एक घंटे के भीतर पूरे मोहल्ले में खबर फैल चुकी थी।
मोबाइल कैमरों से रिकॉर्ड हुए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो चुके थे।
टीवी रिपोर्टर माइक लिए घटना स्थल पर पहुँचे –
“नमस्कार, आप देख रहे हैं लाइव कवरेज उस शर्मनाक घटना की जहाँ एक पूर्व स्वास्थ्य आयुक्त को मेडिकल स्टोर से भिखारी समझकर अपमानित किया गया।”

बुजुर्ग अब भी वहीं खड़े थे – शांत, गंभीर और बिल्कुल सीधे।
एक रिपोर्टर ने आगे बढ़कर पूछा, “सर, आपने आज खुद कार्रवाई करने का फैसला क्यों लिया?”
हरिशंकर तिवारी मुस्कुराए, बोले,
“मैंने जीवन भर सिखाया कि सेवा सर्वोच्च है।
पर जब सेवा से व्यापार बन जाए और जरूरतमंद को भीख मान लिया जाए, तो चुप रहना भी गुनाह होता है।”

कैमरा स्लो मोशन में चेहरे पर ज़ूम करता है।
पृष्ठभूमि में फ्लैशबैक –
हरिशंकर तिवारी एक युवा सरकारी अधिकारी के रूप में गाँवों में मेडिकल कैंप लगवा रहे हैं, बूढ़ी माँओं को मुफ्त दवा दे रहे हैं, गर्भवती महिलाओं की जांच करवा रहे हैं।
एक बार किसी ने पूछा था, “सर, इतना क्यों करते हैं?”
उन्होंने तब भी वही जवाब दिया था,
“अगर मेरे पास ताकत है किसी की जान बचाने की, तो वह मेरा धर्म है, एहसान नहीं।”

अगली सुबह पुलिस दोबारा स्टोर पर पहुँची।
बोर्ड पर कीलें ठोकी गईं और बोर्ड उतार लिया गया।
स्टोर को अस्थाई रूप से सील कर दिया गया – अनुचित व्यवहार और आपातकालीन चिकित्सा सहायता अस्वीकृति के कारण।
लोग खामोशी से सब देख रहे थे, लेकिन इस बार कोई भी उस बुजुर्ग को नजरअंदाज नहीं कर रहा था।

एक स्कूल पास में छुट्टी के समय बच्चों का हुजूम वहाँ से गुजरा।
एक छात्र ने अपने दोस्त से कहा, “यह वही अंकल हैं जिन्होंने गरीबों के लिए अस्पताल बनवाया था।”
माँ कहती है, “यह हीरो है।”
बच्चों की नजरों में वह अब कोई आम बुजुर्ग नहीं थे, वह थे असली नायक – जिन्होंने बिना गुस्से, बिना बदला लिए समाज को आईना दिखाया।

कुछ दिन बाद उसी मोहल्ले में एक छोटा बोर्ड लगाया गया –
“हरिशंकर तिवारी मेडिकल सहायता केंद्र, जहाँ गरीब और जरूरतमंद लोगों को मुफ्त दवा और प्राथमिक इलाज मिलेगा।
उसके नीचे लिखा था – ‘पैसे बाद में देना, जिंदगी पहले बचाना।’”
बुजुर्ग वहाँ हर दिन बैठते, लोगों की बात सुनते और दवा की व्यवस्था करते।

एक दोपहर वही मेडिकल स्टोर में काम करने वाला लड़का, जो पहले उन्हें धक्का देकर बाहर निकाल चुका था, शर्म से झुका हुआ उनके केंद्र पर आया।
उसकी आँखों में आँसू थे, हाथ में एक छोटा सा गुलदस्ता और एक आवेदन पत्र।
“सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको नहीं पहचाना, लेकिन अब समझ आया कि इंसान को देखना नहीं, समझना चाहिए।”
हरिशंकर तिवारी ने उसकी ओर देखा, मुस्कुराए और बोले,
“गलती से सीख लेने वाला व्यक्ति कभी गलत नहीं रहता। तुम्हें दूसरा मौका जरूर मिलेगा, पर इस बार किसी जरूरतमंद को मना मत करना।”

धीरे-धीरे आसपास की दुकानों में बदलाव आने लगा।
कई मेडिकल स्टोर्स ने एक बोर्ड लगाना शुरू किया –
“अगर आपके पास पैसे नहीं हैं, हम फिर भी आपकी मदद करेंगे। मूल्य बाद में भी दे सकते हैं। कृपया डॉक्टर की पर्ची साथ लाएँ।”

लोग एक दूसरे से कहने लगे,
“तिवारी साहब ने हमें सिर्फ इंसानियत नहीं सिखाई, उन्होंने हमें हमारी भूल दिखा दी।”