अपनी ही माँ के इलाज के लिए बेटे से भीख माँगनी पड़ी — एक भावुक कहानी

सुबह का वक्त था। गली में हल्की-हल्की धूप पड़ रही थी, दूध वालों की साइकिलों की घंटियाँ बज रही थीं, बच्चे स्कूल की यूनिफार्म में शोर मचा रहे थे और रसोई से ताजे पराठों की खुशबू हवा में घुल रही थी। गली के बीचों-बीच एक पुरानी लेकिन चमकदार मिठाई की दुकान थी — “आर्यन स्वीट्स”। कांच की अलमारी में जलेबी, बर्फी और गुलाब जामुन सजे हुए थे, जैसे दुल्हन की थाली हो।

इसी दुकान को कमलेश जी के पिता ने खड़ा किया था और फिर कमलेश जी ने अपनी पूरी मेहनत से इसे मशहूर बना दिया। उनके लिए यह दुकान सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि उनकी इज्जत और मेहनत का प्रतीक थी। लेकिन आज उसी दुकान का मालिक, कमलेश जी, अपने ही बेटे जतिन से सिर्फ ₹500 माँगने में डर रहा था।

सुबह जब जतिन नाश्ते की प्लेट लेकर बैठा, कमलेश जी धीमे स्वर में बोले —
“बेटा, अगर ₹500 हो तो दे दो, तुम्हारी माँ को अस्पताल ले जाना है।”
उनकी आवाज काँप रही थी, चेहरे पर झिझक थी, आँखों में चिंता थी।

जतिन की भौंहें तनी और वह गुस्से से बोला —
“बाबूजी, आपकी इस दो टके की मिठाई की दुकान से रुपयों की बरसात नहीं होती। और वैसे भी माँ को हुआ क्या है? हर महीने यही बात दोहराते रहते हैं कि अस्पताल ले जाना है। आखिर समस्या क्या है?”

कमलेश जी ने धीरे से निगाहें झुकाई —
“बेटा, पिछले महीने से तेरी माँ की हालत ठीक नहीं है। उसे बार-बार चक्कर आते हैं, कमजोरी रहती है। भगवान ना करे कोई बड़ी बीमारी हो। डॉक्टर को दिखाना है, लेकिन रुपए दिए ही नहीं तो कैसे ले जाऊँ?”

जतिन ने प्लेट जोर से मेज पर पटकी और हँसी उड़ाते हुए बोला —
“अरे, माँ तो दिनभर खाती रहती हैं, पाँच बार टॉयलेट जाती है दिन में। तो कमजोरी कहाँ से आ गई? ये सब बहाने हैं बाबूजी, माँ बिल्कुल स्वस्थ हैं। उन्हें डॉक्टर की कोई जरूरत नहीं। अगर इतना फुर्सत है तो घर का काम किया करें, बैठे-बैठे जंग लग गया है शरीर में।”

यह कहकर जतिन गुस्से में दरवाजा पटकते हुए बाहर निकल गया।
बाहर वही मिठाई की दुकान थी, जिसने जतिन को मालिक बना दिया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि उसकी पढ़ाई, शादी, और घर की हर खुशी उसी दुकान से आई थी।
अब वही बेटा पिता को ₹500 देने से इंकार कर रहा था।

कमलेश जी के दिल में टीस उठी। उनकी आँखों से आँसू छलकने ही वाले थे।
वह आँगन के कोने में कुर्सी पर बैठ गए, हाथ काँप रहे थे, आँखें नम थीं। मन में एक ही सवाल घूम रहा था — क्या यही दिन देखने के लिए हमने सारी उम्र खपा दी? जो बेटा हमारी मेहनत के दुकान पर राज करता है, वही आज हमें पैसों के लिए तरसा रहा है।

इतना सोच ही रहे थे कि रसोई से बहू राधिका धीरे-धीरे आई। उसके हाथ में स्टील की थाली थी और माथे पर हल्का सा पसीना। उसकी आँखों में झिझक थी लेकिन कदम दृढ़।
वो बाबूजी के सामने आई और धीरे से बोली —
“बाबूजी, ये रुपए रख लीजिए।”

कमलेश जी चौंक गए —
“बहू, ये रुपए कहाँ से आए? जतिन को पता चला तो गुस्सा करेगा।”

राधिका ने धीमे स्वर में कहा —
“बाबूजी, जब पिछली बार मैं मायके गई थी, तब माँ ने थोड़े रुपए दिए थे। उसी में से आपको दे रही हूँ। जतिन मुझे कभी रुपए नहीं देता, कहता है — घर का सारा खर्च मैं देख रहा हूँ, तुम्हें पैसों की जरूरत किस बात की?”

इतना कहते-कहते उसकी आँखें भर आईं, नजरें नीचे झुक गईं। कमलेश जी का दिल दहल गया।
उन्होंने कांपते हाथों से बहू के सिर पर हाथ रखा और गले से आशीर्वाद निकला —
“जुग-जुग जियो बेटा, तुम्हें जीवन की हर खुशी मिले। भगवान तुझे कभी किसी चीज के लिए तरसाए नहीं।”

उस पल उनका दिल भर आया। उन्हें लगा — जिस बेटे को उन्होंने सब कुछ दिया, वही कंजूस और बेरहम हो गया। और जो बहू घर में नई आई है, वही अपनी पोटली से रुपए निकालकर मदद कर रही है।

शाम होते-होते कमलेश जी ने ठान लिया कि अब आराध्या जी को अस्पताल ले जाना ही है।
ऑटो बुलाया गया। सड़क पर पीली-लाल रोशनी झिलमिला रही थी, बाजार में चाट-पकौड़ी की खुशबू फैली थी, हॉर्न और आवाजों का शोर था।
इसी भीड़ में एक पुराना सा ऑटो अस्पताल के गेट पर रुका। कमलेश जी ने पत्नी को सहारा दिया। आराध्या जी के कदम डगमगा रहे थे, आँखों के नीचे काले घेरे, चेहरा पीला था।

अंदर पहुँचकर डॉक्टर ने टेस्ट लिखे। कुछ घंटों बाद रिपोर्ट आई।
डॉक्टर ने कहा —
“इन्हें खून की कमी है, कैल्शियम और विटामिन D बहुत कम है। अभी से दवाइयाँ, पौष्टिक खाना और आराम जरूरी है।”

कमलेश जी की सांस अटक गई। उन्होंने चुपचाप दवा की पर्ची ली, मेडिकल स्टोर से दवाइयाँ, फल और सब्जियाँ खरीद लीं।
बहू राधिका की दी हुई पोटली से रुपए निकलते जा रहे थे।
लेकिन दिल में सुकून था कि पत्नी की जांच तो हो गई।

दोपहर ढल चुकी थी। थका-हारा ऑटो फिर उसी गली में आकर रुका।
कमलेश जी ने दवाई और सब्जियों की थैलियाँ पकड़ी हुई थीं।
आराध्या जी को सहारा देकर अंदर लाया गया।
लेकिन जैसे ही दरवाजा खुला, सामने डाइनिंग टेबल पर जतिन बैठा था। उसकी प्लेट में पुलाव भरा था और टीवी पर क्रिकेट का मैच चल रहा था।

उसने नजर उठाई और पैकेट देख गुस्से से बोला —
“बाबूजी, ये सब कहाँ से आ गया? दवाइयाँ, फल, सब्जियाँ, रुपए कहाँ से आए? आपने कहीं उधार तो नहीं ले लिया? आखिर चुकाना तो मुझे ही पड़ेगा।”

कमलेश जी के कदम ठिठक गए। चेहरे पर गुस्सा और आँखों में आँसू तैर गए।
उन्होंने पहली बार बेटे की आँखों में आँखें डालकर कहा —
“हाँ, रुपए लाया हूँ। लेकिन तुझे इससे मतलब क्यों? तेरे लिए माँ का इलाज भी फिजूल खर्ची है क्या?”

जतिन कुर्सी से खड़ा हो गया और ऊँची आवाज में बोला —
“आप समझते क्यों नहीं हैं? दुकान से बहुत कमाई नहीं हो रही। मैं ही सब कुछ संभाल रहा हूँ। इस घर में मैं फंसा हुआ महसूस करने लगा हूँ। इससे अच्छा तो मैं दूसरे शहर जाकर मल्टीनेशनल कंपनी में काम करूँ और रुपए छापूँ। यहाँ इस दुकान में मेहनत करूँ और आप लोग फिजूल खर्च करें, ये मुझे मंजूर नहीं है।”

उसकी आवाज गली तक गूंज गई।
आराध्या जी का चेहरा पीला पड़ गया।
राधिका ने चुपचाप सिर झुका लिया और कमलेश जी की आँखों में अब सिर्फ आँसू थे।
कमरे में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया।
सिर्फ दीवार घड़ी की टिक-टिक और बाहर से आती कुत्तों की आवाज गूंज रही थी।

कमलेश जी ने गहरी सांस भरी, लेकिन इस बार उनकी आँखों में डर नहीं था, सिर्फ गुस्सा था।
उन्होंने दवाइयों की थैली जमीन पर रख दी और जोर से बोले —
“जतिन, बस अब और बकवास मत कर। तेरी माँ की तबीयत खराब है और तू मुझे फिजूल खर्ची का पाठ पढ़ा रहा है। क्या तू भूल गया कि मैंने भी ये घर चलाया है? तेरी पढ़ाई, तेरी शादी, सब कुछ इसी दुकान से हुआ है। और आज तू हमें ही पैसों के लिए तरसा रहा है।”

जतिन ने तुनकते हुए कहा —
“बाबूजी, दुकान से उतनी कमाई होती ही कहाँ है? मैं ही सब देखता हूँ, मैं ही सब संभालता हूँ। और अगर आपने किसी से उधार ले लिया तो चुकाना तो मुझे ही पड़ेगा ना।”

कमलेश जी की आँखें लाल हो गईं। उन्होंने गुस्से में कहा —
“चुप कर जा। तेरे बिना भी मैंने इस दुकान को चलाया था। आज भी मैं अकेला हूँ तो दुकान संभाल सकता हूँ। अगर तुझे इतनी तकलीफ है, तो निकल जा इस घर से। जा जिस मल्टीनेशनल कंपनी की बातें करता है, वहाँ जाकर कमा ले। और दुकान की चाबी मुझे दे दे। जरूरत पड़ी तो दुकान बेच दूँगा और उसके पैसों की FD करा कर अपनी बुढ़ापे की जिंदगी आराम से गुजार लूँगा। अब मैं तुझसे एक-एक पैसे के लिए भीख नहीं माँगूंगा।”

उनकी आवाज गूंज रही थी।
आराध्या जी घबरा कर बोलीं —
“इतना गुस्सा मत कीजिए जी, सेहत बिगड़ जाएगी।”

लेकिन इस बार कमलेश जी रुके नहीं।
सालों का दर्द बाहर निकल चुका था।
“गुस्सा ना करूँ तो क्या करूँ आराध्या? हमने इस लड़के के लिए अपना खून-पसीना एक किया। कभी उसे कमी महसूस नहीं होने दी। और आज यह हमें ही फिजूल खर्ची का ताना दे रहा है। जब मैं घर चलाता था, तब भी पैसे कमाते थे तो क्या तुझे या किसी और को किसी चीज के लिए तरसना पड़ा? नहीं, क्योंकि मैंने जिम्मेदारी निभाई थी। लेकिन यह अपनी माँ के इलाज को बोझ मान रहा है।”

जतिन सुन रह गया।
उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसके शांत रहने वाले पिताजी इस तरह गरज सकते हैं।
उसके हाथ काँपने लगे, माथे से पसीना टपकने लगा।
उसने घबरा कर धीरे से कहा —
“बाबूजी, मैं तो बस कहना चाहता था कि अगर मैं दूसरे शहर चला जाऊँगा तो आपको और माँ को कौन देखेगा? इसलिए मैं रुका हूँ।”

कमलेश जी ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा —
“तू यहाँ रहकर भी हमारी चिंता क्यों नहीं करता? तेरी माँ चक्कर खा रही थी, कमजोरी से गिर रही थी, तो क्या उसे डॉक्टर तक ले जाना तेरी जिम्मेदारी नहीं थी? तू बहू को भी रुपए नहीं देता, जबकि वह हर शौक को मारकर रहती है। आखिर तू किसके लिए कमा रहा है जतिन? दुकान अच्छी चल रही है, फिर भी अगर तेरे माँ-बाप और तेरी पत्नी रुपए के लिए तरसते रहे तो तेरे कमाने का फायदा ही क्या?”

जतिन का सिर झुक गया।
उसका घमंड टूट चुका था।
उसे समझ आ गया कि अगर पिताजी सच में दुकान बेच दें तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।
अब उसकी आवाज बदल चुकी थी।
धीरे से बोला —
“ठीक है बाबूजी, अब से हर महीने मैं पहले आप दोनों के लिए रुपए अलग निकाल दूंगा ताकि आपको कभी परेशानी ना हो।”

कमलेश जी ने गहरी सांस ली और बोले —
“तो सुन, हर महीने ₹5000 मेरे और तेरी माँ के लिए होंगे और ₹2000 बहू के लिए। वो चाहे तो खर्च करे या बचाए, यह उसकी मर्जी होगी। समझा? अब किसी को भी रुपए के लिए तरसना नहीं पड़ेगा।”

इतना सुनते ही राधिका की आँखों में राहत के आँसू आ गए।
आराध्या जी ने सिर झुकाकर भगवान को धन्यवाद कहा और जतिन मजबूरी में ही सही, लेकिन मान गया।
उसने पहली बार महसूस किया कि माँ-बाप की दुआएँ और पत्नी की खुशी ही असली दौलत होती है।
वरना रुपयों का क्या है, वो तो जेब में आते-जाते रहते हैं।

मित्रों, यही सच्चाई है —
माता-पिता ने पूरी उम्र मेहनत करके जो बनाया, उसका असली हकदार वही होता है जो रिश्तों की कीमत समझे।
अगर संतान ही अपने माता-पिता को पैसों के लिए तरसाए तो उसकी शिक्षा और धन किसी काम के नहीं।
घर का सुख और संतुलन तभी बना रहता है जब बच्चों में कर्तव्य और जिम्मेदारी की भावना हो और वे अपने माता-पिता और जीवन साथी की कदर करें।

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अगली बार फिर मिलेंगे एक और सच्ची और भावुक कहानी के साथ।