पिता की अंतिम यात्रा में बेटा नहीं आया – एक भावुक कहानी
जिंदगी की तेज रफ्तार दौड़ में इंसान अक्सर भूल जाता है कि उसकी असली पूंजी क्या है। पैसे, शोहरत और सपनों के पीछे भागते-भागते हम उन हाथों को भूल जाते हैं जिन्होंने हमें चलना सिखाया था। यह कहानी एक छोटे से गांव के साधारण किसान रामदयाल की है, जिसकी उम्र ढल चुकी थी लेकिन चेहरा मेहनत और सच्चाई से चमकता था। उसकी पत्नी शांति देवी घर-आंगन संभालती थी, और दोनों ने अपने बेटे सुरेश और बेटी रीना के लिए कभी समझौता नहीं किया।
रीना छोटी थी लेकिन हर वक्त मां का हाथ बंटाती और पापा से बहुत जुड़ी हुई थी। हर शाम जब रामदयाल खेत से लौटते, रीना दौड़कर पानी का गिलास लाती और पूछती, “पापा, आज कितनी देर खेत में काम किया?” रामदयाल मुस्कुराकर कहते, “बेटा, खेत ही तो हमारी सांस है। इन्हें छोड़ दें तो जीना मुश्किल हो जाएगा।”
सुरेश पढ़ाई में अच्छा था। गांव के स्कूल से पढ़कर शहर के कॉलेज चला गया। शुरुआत में वह हर महीने गांव आता, मां-बाप से मिलता। लेकिन धीरे-धीरे शहर की चकाचौंध और नौकरी की दौड़ में उसका लौटना कम होता गया। पहले महीने में एक बार, फिर तीन-चार महीने में, और फिर सालों तक उसका आना टलता चला गया। शांति देवी उम्मीद करती थी कि बेटा एक दिन लौटेगा, लेकिन त्यौहारों और खुशियों में भी सुरेश सिर्फ फोन पर आवाज भेजता, “मां, इस बार नहीं आ पाऊंगा। काम बहुत है।”

रीना शादी के बाद भी मायके आती, मां-बाप को संभालती। लेकिन मां की नजरें हमेशा गली के उस मोड़ पर टिकी रहती थीं जहां से बेटा आता था। हर आहट पर लगता शायद सुरेश आ रहा है, लेकिन निराशा बार-बार उन्हें घेर लेती। रामदयाल कभी शिकायत नहीं करते, हमेशा गर्व से कहते, “हमारा बेटा बड़ा आदमी बनेगा, शहर में नाम कमाएगा।”
लेकिन किस्मत का खेल अजीब होता है। साल दर साल मेहनत करते-करते अब रामदयाल का शरीर जवाब देने लगा। कमर झुक गई, आंखों में धुंधलापन आ गया, खेत पर जाते-जाते थक कर मेड पर बैठ जाते। शांति देवी कहती, “अब छोड़ भी दो यह सब, थोड़ा आराम करो।” लेकिन रामदयाल हंसकर कहते, “जब तक सांस है, काम करते रहना चाहिए। यही तो हमारी पहचान है।”
एक दिन रामदयाल की हालत अचानक बिगड़ गई। रीना मायके आई हुई थी, दौड़कर पानी लाई। गांव के वैद्य ने भी कहा, “अब इनकी हालत बिगड़ रही है, शहर ले जाइए तो शायद राहत मिले, लेकिन यह उम्र अब इलाज नहीं मांगती, दुआ मांगती है।” शांति देवी ने सुरेश को फोन किया, “बेटा जल्दी आजा, तेरे पिताजी की हालत खराब है।” सुरेश बोला, “मां, आप घबराओ मत, मैं पैसे भेज रहा हूं, अच्छे डॉक्टर को दिखा लो। अभी ऑफिस से छुट्टी मिलना मुश्किल है।” मां का दिल बैठ गया, “बेटा, हमें पैसों की नहीं, तेरी जरूरत है।” लेकिन सुरेश ने जल्दबाजी में फोन काट दिया।
दिन बीते, रामदयाल की हालत और बिगड़ गई। रात को वे खांसते हुए कहते, “शांति, क्या हमारा बेटा आएगा? मैं उसे आखिरी बार देखना चाहता हूं।” शांति देवी दिल पर पत्थर रखकर कहती, “हां, जरूर आएगा।” लेकिन मन जानता था कि बेटा अब नहीं आएगा।
एक रात रामदयाल ने अपनी आखिरी सांसें लीं। उनके चेहरे पर अजीब सी शांति थी। शांति देवी रोती-रोती उनके पास गिरी। रीना ने चिल्लाकर कहा, “मां, पापा चले गए।” पूरा गांव शोक में डूब गया। अगले दिन उनकी अंतिम यात्रा की तैयारी हुई। औरतें आंगन में बैठकर सिर पीट रही थीं, पुरुष चिता की तैयारी कर रहे थे। लेकिन सबसे बड़ा दर्द यह था कि बेटा कहीं नजर नहीं आ रहा था।
मां की आंखें बार-बार दरवाजे की तरफ उठतीं, शायद अभी सुरेश आएगा। लेकिन खाली रास्ता उन्हें और तोड़ देता। रीना ने मां का हाथ पकड़कर कहा, “मां, अब हमें ही पापा को विदा करना होगा।” शांति देवी की चीख निकल गई, “नहीं, यह कैसे हो सकता है? बाप की चिता बेटा ही तो कंधा देता है। सुरेश कहां है?” मगर सुरेश नहीं आया। गांव वाले भी कहने लगे, “पिता चला गया और बेटा तक नहीं आया। यही तो जमाना बदल गया है।”
अर्थी उठी, लेकिन उस अर्थी पर बेटे का कंधा खाली था। मां के आंसुओं ने धरती को भिगो दिया और रीना का दिल भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। मजबूरी यही थी कि अंतिम यात्रा बिना बेटे के ही निकल पड़ी। गांव की गलियों में सन्नाटा था, सिर्फ मंत्रों की आवाजें गूंज रही थीं। शांति देवी का हृदय टूट चुका था। पति की अर्थी को उठते देख उनकी चीख पूरे गांव में गूंज गई। रीना ने आंसुओं के बीच मां को संभाला और मजबूरी में पिता की चिता को कंधा दिया। गांव के लोग कह रहे थे, “बेटा होते हुए भी पिता की अंतिम यात्रा में शामिल ना होना सबसे बड़ा पाप है।”
अंतिम यात्रा बिना बेटे के ही पूरी हुई। चिता जली, राख उड़कर आसमान में गई, और उसके साथ ही शांति देवी की उम्मीदें भी राख हो गईं। महीनों तक घर का आंगन सुनसान रहा। रीना बार-बार मायके आती, मां को संभालती। हर बार मां का सवाल वही होता, “क्या तुझे भैया का कुछ पता है? क्या वह अब आएगा?” रीना आंखें झुका कर कह देती, “मां, शायद अब पछता रहा होगा।”
आखिर एक दिन सुरेश गांव आया। हाथ में बैग, आंखों में थकान, चेहरे पर गहरी उदासी। गांव वाले बोले, “अब आया है, जब सब खत्म हो गया।” सुरेश ने घर में कदम रखा तो मां बरामदे में बैठी थी, सफेद साड़ी, झुर्रियों से भरा चेहरा, आंखों में अजीब सा खालीपन। सुरेश घुटनों के बल गिर पड़ा, “मां, मुझे माफ कर दो, मैं आ नहीं पाया। ऑफिस की जिम्मेदारियों में फंस गया।”
शांति देवी ने आंसू पोंछते हुए कहा, “बेटा, पैसा, नौकरी सब जिम्मेदारियां अपनी जगह हैं, लेकिन पिता की अंतिम यात्रा से बड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। तेरे पापा आखिरी वक्त तक तेरा इंतजार करते रहे, हर सांस में तेरा नाम लिया और तू नहीं आया।” सुरेश का गला सूख गया, उसने मां के पैरों को पकड़ लिया, “मां, मुझे एक और मौका दो, मैं अपनी गलती सुधारना चाहता हूं।”
शांति देवी ने भारी मन से कहा, “बेटा, जिंदगी हर गलती की माफी देती है, लेकिन मां-बाप के जाने के बाद पछतावे की कोई दवा नहीं होती।” यह सुनकर सुरेश फूट-फूट कर रो पड़ा। गांव के लोग बोले, “बेटा, जो कर गया है, उसे मिटा नहीं सकता, लेकिन अब भी रिश्तों को संभाल सकता है।”
उस दिन सुरेश ने कसम खाई कि अब कभी मां को अकेला नहीं छोड़ेगा। अब हर त्यौहार, हर खुशी और हर दुख में वह साथ रहेगा। उसने महसूस किया कि असली दौलत वही है जो आंगन में बैठी बूढ़ी मां की मुस्कान से मिलती है। शोहरत और पैसा तो फिर से कमाया जा सकता है, लेकिन मां-बाप की छांव लौटकर कभी नहीं आती।
यही इस कहानी का संदेश है – चाहे कितने भी व्यस्त हो, मां-बाप के साथ समय जरूर बिताइए। उनके जाने के बाद सिर्फ पछतावा रह जाता है, और आंसुओं से कोई भी खालीपन नहीं भरता।
अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो अपने मां-बाप को गले लगाइए, उनके साथ समय बिताइए। यही असली दौलत है, यही असली वरदान है। मां-बाप भगवान का दूसरा रूप हैं, उनका साथ छूट गया तो सब कुछ खाली हो जाता है।
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