इंसानियत की असली कहानी

बरसात की रातें अक्सर अपने साथ कहानियाँ लेकर आती हैं। किसी के लिए यह ठंडी हवा और यादें होती हैं, तो किसी के लिए इम्तिहान। उस रात मुंबई की सड़कों पर मूसलाधार बारिश हो रही थी। गाड़ियों के हॉर्न, पानी से भरे गड्ढों की छपाक, और भीगते हुए लोग अपने-अपने छातों तले भाग रहे थे।

इसी भीड़ में एक पुरानी-सी टैक्सी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। उसका ड्राइवर राजेश था—सिर्फ 35 साल का, चेहरे पर थकान और कपड़ों पर बारिश की नमी, मगर आंखों में ईमानदारी की चमक। पूरा दिन सवारी ढोते-ढोते थक चुका था और अब घर लौट रहा था। जेब में बस कुछ नोट और सिक्के थे, जो अगले दिन का पेट भरने के लिए ही काफी थे।

अचानक उसकी नजर सड़क किनारे जमा भीड़ पर पड़ी। लोग छाते पकड़े, मोबाइल से वीडियो बना रहे थे। कोई सिर हिला रहा था, कोई बस तमाशा देख रहा था। राजेश ने ब्रेक मारी। उसने देखा—एक बुजुर्ग महिला, करीब 70 साल की, सड़क पर गिरी पड़ी थी। बारिश का पानी उसके चारों ओर भर चुका था और खून धीरे-धीरे बह रहा था। भीड़ थी, शोर था, लेकिन मदद के लिए कोई आगे नहीं आया।

राजेश का दिल कांप गया। उसने दौड़कर औरत को उठाया और टैक्सी की पिछली सीट पर लिटा दिया। लोग रोकने लगे—“भाई, पुलिस झंझट है, क्यों मुसीबत ले रहे हो?” लेकिन राजेश ने किसी की परवाह नहीं की और सीधे अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा।

अस्पताल पहुँचते ही उसने डॉक्टरों को आवाज दी। महिला को तुरंत स्ट्रेचर पर ले जाया गया। थोड़ी देर बाद डॉक्टर बाहर आए और बोले—“मरीज की हालत नाजुक है। खून की तुरंत जरूरत है, मगर ब्लड ग्रुप बहुत रेयर है।” राजेश ने बिना सोचे कहा—“मेरा टेस्ट कीजिए। अगर मैच हो, तो ले लीजिए।”

कुछ ही देर में रिपोर्ट आई—मैच परफेक्ट। राजेश ने बिना झिझक खून दिया। लेटा-लेटा वह बस यही सोच रहा था—“पता नहीं यह औरत कौन है, कहां की है। लेकिन अगर मेरे खून से इसकी जान बचती है, तो यही मेरी सबसे बड़ी कमाई होगी।”

रात भर अस्पताल के बेंच पर बैठा राजेश दुआ करता रहा। सुबह खबर आई—“मरीज होश में आ गई है।” राजेश तुरंत कमरे में पहुँचा। बुजुर्ग महिला ने कांपती आवाज़ में कहा—“बेटा, तुमने मेरी जान बचाई। अगर तुम न होते, तो मैं आज जिंदा न होती।”

राजेश ने हाथ जोड़ते हुए जवाब दिया—“माँ जी, मैंने कुछ नहीं किया, बस इंसानियत निभाई।” महिला की आंखों में आँसू आ गए।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। कुछ देर बाद अस्पताल के कमरे में अधिकारी, सुरक्षाकर्मी और मीडिया आ पहुँचे। महिला ने हाथ उठाकर सबको शांत किया और बोलीं—“यह वही शख्स है, जिसने कल रात मेरी जान बचाई।” फिर अपना परिचय दिया—“मैं सावित्री देवी हूँ, सावित्री फाउंडेशन की चेयरपर्सन। यह शहर की सबसे बड़ी चैरिटी संस्था है।”

पूरा कमरा सन्न रह गया। पत्रकारों के कैमरे चमकने लगे। कल तक जिसे लोग सड़क पर तड़पता देख तमाशा बना रहे थे, वही महिला असल में एक बड़ी हस्ती निकली। सावित्री देवी ने कहा—“कई करोड़ों की दौलत होने के बावजूद अगर कल यह गरीब टैक्सी ड्राइवर ना होता, तो आज मैं जिंदा न होती। असली हीरो यही है।”

राजेश चुप खड़ा था, फटे कुर्ते और पुराने जूतों में। पत्रकारों ने माइक उसके सामने किया—“कैसा लग रहा है आपको?” राजेश ने शांत स्वर में कहा—“मुझे तो इतना भी नहीं पता था कि यह कौन हैं। मेरे लिए तो यह बस एक इंसान थीं। इंसानियत यही सिखाती है कि किसी की जान बचाना सबसे बड़ा धर्म है।”

भीड़ में वही लोग खड़े थे, जिन्होंने कल रात उसे रोकने की कोशिश की थी। अब किसी की हिम्मत नहीं थी उसकी आंखों में देखने की।

और तभी सावित्री देवी ने एक घोषणा की—एक ऐसी घोषणा जो न सिर्फ राजेश की जिंदगी बदलने वाली थी, बल्कि पूरे शहर को इंसानियत का सबक सिखाने वाली थी…