सुबह का समय था। शहर के बड़े रेलवे स्टेशन पर हमेशा की तरह शोरगुल और अफरातफरी थी। कोई ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रहा था, कोई टिकट खिड़की पर लाइन में खड़ा था तो कोई अपने परिजनों को विदा कर रहा था। प्लेटफार्म पर चाय वालों की आवाजें गूंज रही थीं—”चाय, चाय, गरम चाय!”
इसी भीड़ में एक चार साल का बच्चा, आदित्य, अपनी मां का हाथ छुड़ाकर पटरी की ओर निकल गया। आदित्य ने फटी हुई लाल निक्कर और धूल में सनी शर्ट पहन रखी थी। उसके पैर नंगे थे, लेकिन चेहरे पर मासूम मुस्कान थी। वह पटरी पर पड़े पत्थरों को उठाकर खेल रहा था। उसकी दुनिया वही खेल थी। उसकी मां टिकट लेने में व्यस्त थी। कुछ लोगों ने बच्चे को पटरी की ओर जाते देखा, पर किसी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की। एक बूढ़ा आदमी बुदबुदाया, “अरे देखो, बच्चा पटरी पर चला गया है।” दूसरा बोला, “मां-बाप का ध्यान नहीं है तो हम क्यों चिंता करें?” भीड़ अपने-अपने काम में लगी रही।
तभी अचानक स्टेशन पर जोरदार सीटी गूंजी। सूचना हुई कि एक्सप्रेस ट्रेन आने वाली है। लोग किनारे खड़े हो गए, लेकिन आदित्य अब भी पटरी पर खेल रहा था। दूर से ट्रेन की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। इंजन की आवाज पूरे प्लेटफार्म को हिला रही थी। रोशनी की दो बड़ी किरणें जैसे मौत के पंजे फैलाए आगे बढ़ रही थीं। “अरे बच्चा पटरी पर है!” एक महिला चीख पड़ी। अब पूरे प्लेटफार्म पर अफरातफरी मच गई। लोग चिल्लाने लगे, “उसे हटाओ! कोई जाकर उठाओ बच्चे को!” लेकिन भीड़ वही कर रही थी जो अक्सर करती है—तमाशा देखना। कुछ लोग मोबाइल निकालकर वीडियो बनाने लगे, कुछ ने डर से मुंह फेर लिया।
आदित्य की मां टिकट खिड़की से पागल होकर दौड़ी। उसने पटरी की ओर बढ़ने की कोशिश की, लेकिन भीड़ ने उसे पकड़ लिया। “अरे पगली, ट्रेन आ रही है, मर जाएगी!” मां चीख-चीख कर रो रही थी, “मेरा बच्चा, मेरा बच्चा, बचा लो!” ट्रेन बस कुछ ही सेकंड दूर थी। पटरी पर खेलता आदित्य अपनी मासूमियत में खतरे से अनजान था।
भीड़ से थोड़ी दूर, प्लेटफार्म के कोने में एक आदमी बैठा था। उसके सामने टूटा हुआ कटोरा रखा था, जिसमें कुछ सिक्के पड़े थे। फटे कंबल में लिपटा, झाड़ीदार दाढ़ी और बिखरे बाल। लोग उसे भिखारी कहते थे। उसका नाम था रामलाल, 55 साल। रामलाल कई सालों से इसी स्टेशन पर रह रहा था। लोग उसे दुत्कारते, गालियां देते, कभी-कभी सिक्के फेंक देते। लेकिन जब उसने पटरी पर खड़े बच्चे को देखा, उसकी आंखों में अजीब सी चमक आई। उसे अपनी छोटी बेटी गौरी की याद आ गई, जो सालों पहले बीमारी के कारण चल बसी थी। पैसे और इलाज की कमी ने उसकी जान ले ली थी। उसी दिन से रामलाल की दुनिया उजड़ गई।
अब पटरी पर खड़ा मासूम आदित्य उसे अपनी बेटी जैसा लगा। भीड़ चिल्ला रही थी, मां तड़प रही थी, ट्रेन बस तीन-चार सेकंड दूर थी। रामलाल अचानक उठ खड़ा हुआ। उसने बिना सोचे-समझे पटरी की ओर छलांग लगा दी। भीड़ हक्काबक्का रह गई—”अरे, यह भिखारी क्या करने जा रहा है?” रामलाल ने दौड़कर आदित्य को अपनी बाहों में भर लिया। ट्रेन की आवाज कान फाड़ देने वाली थी। इंजन अब बस कुछ ही कदम की दूरी पर था। रामलाल ने पूरी ताकत से बच्चे को सीने से चिपकाया और पटरी से बाहर की ओर छलांग लगाई। इंजन उनके ठीक सामने से गुजर गया। हवा का दबाव इतना तेज था कि दोनों जमीन पर गिर पड़े। लेकिन चमत्कार हो चुका था—आदित्य सुरक्षित था।
भीड़ से एक साथ चीख और फिर तालियां गूंज उठीं। आदित्य की मां दौड़ कर आई और अपने बच्चे को गले से लगा लिया। उसकी आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे। रामलाल जमीन पर पड़ा कराह रहा था। उसके हाथ से खून बह रहा था, लेकिन चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी। प्लेटफार्म पर सन्नाटा छा गया। भीड़ जो अब तक बस तमाशा देख रही थी, दंग रह गई। सबकी नजर उस भिखारी पर थी जिसने मौत को चुनौती देकर बच्चे की जान बचा ली थी।
रामलाल जमीन पर गिरा था। उसके हाथ-पांव छिल गए थे, माथे से खून बह रहा था, लेकिन उसकी बाहों में लिपटा छोटा आदित्य सुरक्षित था। लोग दौड़ कर आए—”अरे बाबा, उठो, तुम ठीक हो? कमाल कर दिया!” आदित्य की मां अपने बेटे को गले लगाकर रो रही थी। उसके आंसू रामलाल के पैरों पर गिर रहे थे। “बाबा, आपने तो मेरी दुनिया लौटा दी, आप हमारे लिए भगवान हो।” रामलाल ने उसकी ओर देखा और थकी हुई आवाज में कहा, “बिटिया, बच्चा भगवान का दिया होता है, उसे बचाना मेरा फर्ज था।”
भीड़ भावुक हो उठी। लोग दबी आवाज में कहने लगे, “आज इस भिखारी ने हमें सिखा दिया कि इंसानियत क्या होती है।” थोड़ी ही देर में स्टेशन मास्टर और पुलिस वाले भी वहां पहुंच गए। “क्या हंगामा है? किसने पटरी पर छलांग लगाई?” पुलिस वाले ने सख्ती से पूछा। भीड़ से आवाज आई, “यही भिखारी, इसने बच्चे को बचाया।” पुलिस वाला चौंक गया, उसने पहले शक की नजर से रामलाल को देखा। “तुझे पता है ट्रैक पर जाना जुर्म है? जान देने चला था क्या?” तभी आदित्य की मां चीख उठी, “साहब, डांटिए मत। अगर यह बाबा ना होते तो मेरा बच्चा आज जिंदा ना होता। इन्होंने मेरी गोद सुनी होने से बचा ली।” भीड़ ने भी गवाही दी, “हां साहब, सच यही है। इसने अपनी जान दांव पर लगाई।” पुलिस वाले का चेहरा नरम हो गया। उसने पानी मंगवाया और रामलाल को पिलाया। इसी बीच कुछ लोग पैसे देने लगे—”बाबा, यह लो, तुम हीरो हो।” लेकिन रामलाल ने हाथ जोड़कर मना कर दिया, “मुझे पैसे नहीं चाहिए। बस इतना याद रखना, जब किसी की जान पर बन आए तो तमाशा मत देखना।”
भीड़ उसके शब्द सुनकर सन्न रह गई। रामलाल धीरे-धीरे उठकर भीड़ से दूर जाने लगा। उसकी चाल डगमगा रही थी, लेकिन आंखों में संतोष था। आदित्य की मां दौड़ी और उसका हाथ पकड़ लिया, “बाबा, आप कहां जा रहे हैं? आप तो मेरे बेटे के रक्षक हैं। मैं आपको अकेला कैसे जाने दूं?” रामलाल ने आंखों में आंसू लिए कहा, “बिटिया, मैं भिखारी हूं। लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं। मेरा नाम किसी कहानी में नहीं लिखा जाएगा।” भीड़ में से किसी ने कहा, “नहीं बाबा, आज से आप भिखारी नहीं, हीरो हैं।” दूसरे ने कहा, “अगर आप ना होते तो आज अखबार में खबर छपती—बच्चा ट्रेन के नीचे कुचला गया। लेकिन अब छपेगा—भिखारी ने मौत को हराया।” रामलाल ने हल्की मुस्कान दी, “नाम और शोहरत मेरे लिए नहीं है, मैंने बस वही किया जो इंसानियत ने मुझसे करवाया।” इतना कहकर वह भीड़ से निकलकर स्टेशन के अंधेरे कोने में चला गया। भीड़ उसे जाते हुए देखती रही। कुछ लोगों ने उसके लिए दुआएं की, कुछ ने तालियां बजाई और कुछ अब भी सोच रहे थे—कैसे एक भिखारी ने सबको इंसानियत का सबक सिखा दिया।
शाम का समय था। स्टेशन पर चहल-पहल कम हो चुकी थी। प्लेटफार्म के कोने में वही भिखारी रामलाल चुपचाप बैठा था। उसके घाव अब भी दुख रहे थे, लेकिन चेहरे पर गहरी शांति थी। तभी एक बूढ़ा कुली, दामोदर काका, उसके पास आया। “अरे लाला, तू ही है ना?” रामलाल चौंक गया, “काका, तुमने पहचान लिया?” दामोदर ने सिर हिलाया, “किसी की आंखें कभी नहीं बदलतीं। मैं तुझे पहले भी जानता था। तू रेलवे का गंगमैन था। हर सुबह झंडी लेकर पटरियों की देखभाल करता था, याद है?” रामलाल की आंखों में आंसू भर आए, “हां काका, वही था मैं। लेकिन बिटिया गौरी की मौत ने सब छीन लिया। इलाज के पैसे नहीं जुटा पाया, सब टूट गया—घर भी, नौकरी भी, जिंदगी भी। तब से यही स्टेशन मेरा घर है।”
उसी समय पास खड़ी कॉलेज की छात्रा मीरा बोली, “बाबा, मैंने आपकी वीडियो सोशल मीडिया पर डाली है। लोग आपको हीरो कह रहे हैं।” रामलाल ने उसकी ओर देखा और धीमे स्वर में कहा, “हीरो वो होता है जो किसी की जान बचाने में देर ना करे। मैं तो बस वही कर पाया जो इंसानियत ने मुझसे करवाया।” मीरा भावुक हो गई। उसने अपनी डायरी निकाली, “बाबा, मैं आपकी पूरी कहानी लिखना चाहती हूं ताकि लोग जानें कि सच्चे नायक कौन होते हैं।” रामलाल ने गहरी सांस ली, “लिख बिटिया, लेकिन मेरे नाम से नहीं, इंसानियत के नाम से।”
अगली सुबह रामलाल का वीडियो पूरे शहर में वायरल हो चुका था। हैशटैग ट्रेंड करने लगे—#प्लेटफार्महीरो #बाबाशिवदत्त। लोग दुआएं दे रहे थे। लेकिन राजनीति और संस्था वाले भी मौके पर पहुंचने लगे। एक एनजीओ वाला प्रभाकर आया, हाथ में फाइल और कैमरा लिए, “बाबा, हम आपकी डॉक्यूमेंट्री बनाएंगे। स्पॉन्सर्स आएंगे, आपको नाम मिलेगा, पैसा मिलेगा।” रामलाल ने फाइल को छुआ तक नहीं, “नाम नहीं चाहिए, काम चाहिए। स्टेशन पर बच्चों के लिए सुरक्षा रेलिंग बनवा दो, वही मेरी असली मदद होगी।” प्रभाकर झेंप गया।
उसी दिन स्थानीय नेता भी आए। माला पहनाई, फोटो खिंचवाई, नारे लगाए। लेकिन जैसे ही कैमरा बंद हुआ, वे भी चले गए। इसके बाद रामलाल ने एक अलग पहल शुरू की। उसने चाक से प्लेटफार्म पर नई लाइन खींची और बच्चों को बुलाकर कहा, “यह पीली लाइन सिर्फ रंग नहीं है, यह हमारी जिंदगी और मौत के बीच की सीमा है। इसे पार मत करना।” बच्चों ने एक साथ दोहराया—”पीली लाइन, मेरी सीमा!” लोग रुक कर देखने लगे। धीरे-धीरे यह पहल पूरे स्टेशन पर फैल गई। यात्री भी अनजाने में लाइन के पीछे खड़े होने लगे।
कुछ दिन बाद जिला मजिस्ट्रेट नंदिता सहाय ने स्टेशन पर एक विशेष लोक अदालत लगाई। विषय था—सार्वजनिक सुरक्षा और इंसानियत। उन्होंने सबके सामने कहा, “कानून कहता है कि पटरी पर उतरना अपराध है। लेकिन जब कोई अपनी जान पर खेलकर किसी और की जिंदगी बचाता है, तो वह अपराध नहीं, इंसानियत कहलाती है। ऐसे लोगों को सजा नहीं, सम्मान मिलना चाहिए।” फिर उन्होंने रामलाल को मंच पर बुलाया, “आपका नाम?”
“रामलाल। पहले गंगमैन था।”
भीड़ में सरसराहट फैल गई। दामोदर काका चिल्लाए, “हां, यही है हमारा पुराना लाला!”
नंदिता ने गंभीर आवाज में कहा, “आज से रेलवे प्रशासन आपको ‘सुरक्षा मित्र’ घोषित करता है। आप बच्चों और यात्रियों को सुरक्षा सिखाएंगे और आपकी सेवा का सम्मान किया जाएगा।” भीड़ तालियों से गूंज उठी। रामलाल की आंखों में आंसू आ गए, “मैडम, मैंने कुछ नहीं किया। मैंने बस वही किया जो एक पिता अपनी संतान के लिए करता है।”
नंदिता मुस्कुराई, “यही तो असली इंसानियत है।”
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