सम्मान का असली मतलब

सुबह के करीब 9:30 बजे थे। शहर के सबसे बड़े और नामी प्राइवेट अस्पताल ‘वारदान केयर इंस्टिट्यूट’ की लॉबी रोज की तरह भीड़ से भरी थी। रिसेप्शन पर मरीजों की लंबी कतार थी। एयर कंडीशनिंग चालू थी, दीवारों पर लगे टीवी स्क्रीन पर हेल्थ टिप्स चल रहे थे।

इन्हीं सफेद दीवारों और चमचमाते फर्शों के बीच दरवाजे से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने प्रवेश किया। उसकी शक्ल सादगी नहीं, बेचारगी से भरी थी। झुकी कमर, झुर्रियों से भरा चेहरा, धूल से सने सफेद कपड़े जैसे महीनों से धुले नहीं हो। पैरों में घिसी हुई चप्पलें और हाथ में एक पुरानी छड़ी। लेकिन सबसे अलग थी उसकी आंखें, जो कमजोर शरीर के बावजूद गहराई से देख रही थीं।

वह धीरे-धीरे रिसेप्शन की तरफ बढ़ा। “बेटा, मैं चीफ मेडिकल ऑफिसर से मिलना चाहता हूं।”
रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने बिना देखे कहा, “नाम?”
“डॉक्टर देव।”
लड़की हंस पड़ी। “डॉक्टर? आप? पास खड़ा सिक्योरिटी गार्ड भी मुस्कुराया—बाबा, लाइन उधर है, फ्री हेल्थ कैंप वहां लग रहा है। डॉक्टर्स वहां नहीं मिलते।”

बुजुर्ग ने कुछ नहीं कहा, बस एक वाक्य दोहराया, “डॉ देव आए हैं, डॉक्टर अहूजा को बता दीजिए।”
अब तक वहां खड़ी एक नर्स बोल पड़ी, “अरे सर, शायद वार्ड बॉय रहे होंगे कभी, भूल गए हैं अब।”

तभी एक युवा डॉक्टर, फॉर्मल कोट में, फाइलों के ढेर से निकलता हुआ तेजी से लॉबी में आया। उसकी नजर बुजुर्ग पर पड़ी। “आप यहां क्या कर रहे हैं? यह कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं है, बाहर जाइए। पेशेंट्स की लाइन बिगड़ रही है।”
बुजुर्ग ने सिर झुका लिया, कोई बहस नहीं की। बस मुस्कुरा कर कहा, “बस इतना कह दो, डॉ अहूजा को डॉक्टर देव आए हैं।”
डॉक्टर चिढ़ गया, “नाम बताना बंद कीजिए, निकलिए यहां से!” और उसने हल्के से धक्का दे दिया। वो आदमी लड़खड़ा गया लेकिन संभला। गार्ड ने उसे धीरे से बाहर निकाल दिया।

कोई नहीं जानता था उस धूल से सने चेहरे के पीछे कौन छुपा था। बाहर सड़क पर खड़ा होकर वो बुजुर्ग पलभर को अस्पताल को देखता रहा, फिर बिना कुछ कहे अपनी छड़ी थामे आगे बढ़ गया।

उस शाम किसी को अंदेशा भी नहीं था कि अगला दिन उनकी दुनिया बदल देगा।
रात को अस्पताल के डायरेक्टर को एक हाई प्रोफाइल कॉल आया—”सेंट्रल हेल्थ इंस्पेक्शन टीम आ रही है कल, पूरा स्टाफ ऑन ड्यूटी रखें।”

अगली सुबह अस्पताल में सब कुछ बदला-बदला सा था। मुख्य प्रवेश द्वार पर कालीन बिछाए जा रहे थे। स्टाफ को काले सूट और सफेद कोट में तैनात कर दिया गया था। हर फ्लोर पर सफाई कर्मियों की टीम एक्टिव थी। रेजिडेंट डॉक्टर्स की मीटिंग बुलाई जा चुकी थी। कोई भी कमी नहीं दिखनी चाहिए—मिनिस्टर आ रहे हैं।
मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ अहूजा लगातार फोन पर थे। चिंता उनके चेहरे पर साफ थी।

10:30 बजे सायरन की आवाजें पास आने लगीं। वीआईपी काफिला अस्पताल गेट पर रुका। काले शीशों वाली एसयूवी, लाल बत्ती, स्पेशल सिक्योरिटी। दरवाजा खुला और बाहर निकले भारत सरकार के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री। भीड़ और मीडिया एक्टिव हो गई। लेकिन उनके पीछे जो व्यक्ति निकला, उसे देखकर सभी के चेहरे सफेद पड़ गए।
वो वही बुजुर्ग थे। अब बदले हुए—साफ-सुथरा ब्लैक सूट, हल्का स्टील फ्रेम चश्मा, माथे पर गंभीरता, चाल में गरिमा, पद्मश्री का बैज उनकी जेब पर चमक रहा था।

स्टाफ में सन्नाटा छा गया। वही रिसेप्शनिस्ट, वही नर्स, और सबसे आगे वही युवा डॉक्टर—सब उसे देख रहे थे।
मंत्री ने अस्पताल के गेट पर ही सबको संबोधित किया, “आज हमारे साथ हैं भारत के गौरव, डॉ देवनंद राव। देश के पहले आपातकालीन हृदय शल्य चिकित्सा प्रोटोकॉल के निर्माता, जिन्होंने हजारों जिंदगियां बचाई हैं। आज वे हमारे साथ विशेष निरीक्षण पर हैं।”

भीड़ में फुसफुसाहट शुरू हो चुकी थी—”वो वही हैं, जिन्हें कल बाहर निकाला गया था।”
“ओ भगवान, हमने तो समझा कोई भिखारी!”

डॉक्टर अहूजा खुद आगे आए, “सर, बहुत खेद है, अगर हमें पता होता…”
डॉ देव ने मुस्कुरा कर कहा, “तभी तो नहीं बताया।”

वो सीधे उसी लॉबी में पहुंचे, जहां कल अपमान सहा था। उनकी आवाज धीमी लेकिन ठोस थी, “कपड़ों से इंसान को मत मापो—डॉक्टरों को नहीं। कल जब मैंने कहा कि डॉ देव आया है, किसी ने नहीं सुना। क्यों? क्योंकि मैंने कोट नहीं पहना था।”

वह डॉक्टर, जिसने कल उन्हें धक्का देकर बाहर भेजा था, अब सबसे पीछे खड़ा था, कांपते हुए। डॉ देव उसकी ओर मुड़े, “तुम्हारा नाम क्या है?”
“सर, डॉक्टर तिवारी,” उसकी आवाज फंसी हुई थी।

डॉ देव कुछ पल उसकी ओर देखते रहे, फिर मुस्कुरा कर बोले, “डर मत, सजा नहीं सिखाने आया हूं।”
फिर जो हुआ, वो किसी ने सोचा भी नहीं था। डॉ देव ने उसी अस्पताल में एक इमरजेंसी ट्रेनिंग वर्कशॉप शुरू की। यंग डॉक्टर्स की टीम को लाइव केस स्टडीज दिखाई, रेयर बाईपास टेक्निक समझाई। एक केस स्टडी के दौरान कहा, “हर मरीज सबसे पहले एक इंसान होता है। उम्र, कपड़े, भाषा—कुछ मायने नहीं रखते।”

शाम होते-होते पूरा अस्पताल बदल चुका था। मंत्री ने सार्वजनिक रूप से दो कर्मचारियों को सस्पेंड करने की घोषणा की—वही डॉक्टर और वही रिसेप्शनिस्ट।
एक नया बोर्ड लगाया गया अस्पताल की लॉबी में—”रिस्पेक्ट फर्स्ट, ऑलवेज। यहाँ हर आवाज सुनी जाएगी, हर व्यक्ति सम्मान पाएगा।”

रात को प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब एक पत्रकार ने पूछा, “डॉक्टर देव, आपने माफ कर दिया?”
उन्होंने बस एक वाक्य कहा, “मैंने नहीं, मेरी ट्रेनिंग ने सिखाया है कि इंसान को ठीक किया जा सकता है—चाहे शरीर हो या सोच।”

अस्पताल के ऑडिटोरियम में जैसे इतिहास दोहराया जा रहा था। डॉक्टर देवनंद राव, जिन्हें कभी मेडिकल बाइबल कहा जाता था, अब एक-एक जूनियर डॉक्टर को सिखा रहे थे कि आपातकालीन सर्जरी में सबसे पहली चीज क्या होती है—ना मशीन, ना स्किल, पहले होता है इंसान।

पूरा हॉल उनकी बातें सुनते हुए स्तब्ध था। प्रोजेक्टर स्क्रीन पर एक असली केस चल रहा था—हार्ट अटैक के मरीज को बिना ईसीजी मशीन के कैसे स्टेबल किया जाए। डॉक्टर देव बिना किसी गर्व के, सिर्फ अनुभव और समझ से पूरी प्रक्रिया समझा रहे थे। सबकी नजरें उनकी ओर थीं।
लेकिन एक जोड़ी आंखें सबसे ज्यादा भारी थी—डॉ तिवारी की। वही डॉक्टर, जिसने उन्हें कल अपमानित किया था, अब एक कोने में बैठा था। शर्म से नजरें नहीं मिला पा रहा था, लेकिन आंखें नम थी।

एक ब्रेक के दौरान जब बाकी डॉक्टर्स कॉफी लेने निकले, वह धीमे-धीमे उनके पास आया। डॉ देव अब भी अपनी डायरी में कुछ लिख रहे थे।
“सर, मैं माफी के काबिल नहीं हूं। मैंने आपको पहचाना नहीं और व्यवहार उससे भी खराब था।”
डॉ देव ने डायरी बंद की। उसकी आंखों में कोई क्रोध नहीं था, बस शांति थी।
“माफी की जरूरत तब पड़ती है, जब तुम दिल से गलती को महसूस करो। और मैं देख रहा हूं, तुम्हारे अंदर कुछ बदला है।”
तिवारी की आंखें भर आईं, “मैं सिर्फ एक अच्छा डॉक्टर बनना चाहता था, पर अहंकार कब आ गया पता ही नहीं चला।”
देव मुस्कुराए, “अहंकार डॉक्टर की सबसे धीमी बीमारी है। असर देर से होता है, लेकिन एक दिन तुम्हें खुद से दूर कर देता है।”

कुछ पल दोनों चुप रहे। फिर डॉ देव ने अपनी घड़ी देखी, “चलो, एक सर्जरी रिव्यू दिखाता हूं। लेकिन इस बार मैं नहीं, तुम समझाओगे बाकियों को और बताओगे कि एक बुजुर्ग मरीज को देखकर तुम्हें सबसे पहले क्या सोचना चाहिए।”
डॉ तिवारी की आंखों में नई जिम्मेदारी की चमक थी, “अब मैं कभी किसी के कपड़ों से इंसान नहीं तोलूंगा, सर। वादा है।”

दोपहर बाद हॉस्पिटल की लॉबी में एक अजीब सा दृश्य था। कुछ वरिष्ठ डॉक्टरों ने स्वयं आकर देव से आशीर्वाद मांगा। एक सीनियर नर्स ने हाथ जोड़कर कहा, “सर, हम तो आपकी किताबों से सीखे हैं, लेकिन असली पाठ आज आपने सिखाया।”

बाहर मीडिया अब भी इंतजार कर रही थी। डॉ देव बाहर आए, लेकिन इस बार अकेले नहीं। उनके साथ थे पांच युवा डॉक्टर और वही तिवारी, जो अब सिर ऊंचा करके चल रहा था—शर्म के बाद सीख का गर्व लिए।

पत्रकारों ने घेर लिया, “सर, आपने क्या साबित किया? क्या आपने इंस्पेक्शन के लिए यह प्लान पहले से बनाया था?”
डॉ देव रुके और बोले, “मैं कुछ साबित करने नहीं आया था। बस देखने आया था कि आज के डॉक्टर इंसान को पहले देखते हैं या पेशेंट आईडी को। अस्पताल इलाज करता है, पर आदर देता है या नहीं—यह असली जांच थी।”

शाम होते ही अस्पताल की डायरेक्ट कमेटी ने एक नया प्रस्ताव पास किया—’डॉ देवनंद राव ह्यूमेनिटी ट्रेनिंग सेंटर’, जहां हर रेजिडेंट डॉक्टर को अब केवल मेडिकल नहीं, व्यवहार और करुणा की शिक्षा भी दी जाएगी।

एक नई सुबह। सूरज की किरणें अस्पताल की दीवार से टकरा रही हैं। एक बुजुर्ग आदमी हॉस्पिटल के बाहर बैठा है। झुर्रियां हैं, कपड़े सादे हैं, आंखों में थकान है। वही गार्ड, जो कभी डॉ देव को बाहर निकाल चुका था, इस बार उस बुजुर्ग के पास आता है, “बाबा, चाय पिएंगे? मैं डॉक्टर से कह के लाता हूं, आपको वीआईपी वेटिंग में बैठाते हैं।”
बुजुर्ग मुस्कुराता है, “ना बेटा, आज इज्जत मिल गई, चाय बाद में पी लेंगे।”