बद्रीनाथ की सीढ़ियों पर छोड़े गए माता-पिता की कहानी

शांति देवी और मोहनलाल ने अपनी पूरी जिंदगी बेटे विक्रम के लिए कुर्बान कर दी थी। खेतों में मजदूरी की, अपनी भूख, नींद और सपनों को त्याग दिया, ताकि विक्रम का हर सपना पूरा हो सके। जेवर बेचकर उसकी फीस भरी, खुद फटे कपड़े पहनकर उसे अच्छे कपड़े दिलाए। उनका बस एक सपना था—मेरा बेटा बड़ा आदमी बने। वक्त बीता, विक्रम बड़ा हुआ, खूब पैसा और शोहरत मिली। लेकिन माता-पिता उसके लिए बोझ बनते गए।

शहर में रहने वाली पत्नी प्रिया अक्सर ताना देती—घर छोटा है, खर्चा बड़ा है। कब तक मां-पिताजी को ढोते रहेंगे? विक्रम कभी चुप रह जाता, कभी हल्के गुस्से में कह देता—मां-पिताजी, संभलकर रहा करो, क्यों बार-बार बीमार पड़ जाते हो? माता-पिता सब सुनते, लेकिन शिकायत कभी नहीं करते। उनके लिए तो बेटे का घर ही मंदिर था।

धीरे-धीरे प्रिया के तानों ने विक्रम के मन में जगह बना ली। उसने सोचा, सही कहती है प्रिया, मां-पिताजी अब बोझ बन गए हैं। अगर ये ना रहें, तो घर में शांति रहे। एक दिन उसने ठान लिया—माता-पिता से छुटकारा पाना है। लेकिन गांव के माता-पिता को सीधे बाहर निकालना ठीक नहीं लगता। उसने एक योजना बनाई।

विक्रम ने माता-पिता से कहा, “मां-पिताजी, आपकी बरसों की तमन्ना पूरी करने का समय आ गया है। मैं आपको बद्रीनाथ धाम के दर्शन कराने ले चलूंगा।” शांति देवी और मोहनलाल की आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने बेटे को आशीर्वाद दिया—भोलेनाथ तुझे लंबी उम्र दे बेटा। रातभर उन्होंने सबसे अच्छी साड़ी, धोती निकाली, पोटली में बेलपत्र, चावल और वह माला रखी जो बरसों से भगवान को अर्पित करने का सपना था।

सुबह कार में बैठते हुए शांति देवी ने आसमान की ओर देखा—धन्यवाद भोले, तूने हमारी सुन ली। रास्ते भर खुश होकर बेटे से बातें करती रहीं। “बचपन में जब तुझे तेज बुखार आया था, मैंने मनौती मानी थी, तुझे ठीक कर दे तो बद्रीनाथ ले जाऊंगी।” विक्रम बस मुस्कुराता रहा, उसे पता था कि माता-पिता की खुशी बस क्षणिक है।

बद्रीनाथ पहुंचते ही माहौल बदल गया। मंदिर की घंटियों की गूंज, दुकानों पर बेलपत्र, प्रसाद की कतारें। शांति देवी और मोहनलाल की आंखें भर आईं। “बद्रीनाथ, आज हमारी तपस्या पूरी हुई।” लेकिन उन्हें क्या पता था, यही यात्रा उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा दर्द बनने वाली थी।

मंदिर परिसर में पहुंचकर विक्रम ने कहा, “मां-पिताजी, आप यहीं विश्रामालय की सीढ़ियों पर बैठिए। मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेकर आता हूं।” माता-पिता ने बेटे की बात पर आंख बंद कर भरोसा किया। दोनों हाथ जोड़कर मंदिर की ओर देखने लगे। “बाबा, जब तक बेटा लौटे, मैं तेरा नाम जपती रहूंगी।”

समय बीतता गया—आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे। सूरज ढलने लगा, विक्रम लौटकर नहीं आया। शांति देवी और मोहनलाल बेचैन होकर हर आते-जाते चेहरे में बेटे का चेहरा ढूंढते। धीरे-धीरे दिल में शक की चिंगारी उठी—कहीं विक्रम छोड़कर तो नहीं चला गया? लेकिन अगले ही पल खुद को समझाया—नहीं, हमारा बेटा ऐसा नहीं कर सकता।

रात उतर आई थी। मंदिर के शिखर पर दीप जल उठे। श्रद्धालु लौटने लगे। शांति देवी और मोहनलाल थककर वहीं सीढ़ियों पर बैठे थे। भूख से पेट जल रहा था, पांव शून्य हो रहे थे। लेकिन दिल में बस एक ही बात—हमारा बेटा आएगा, जरूर आएगा। किसी ने आकर पूछा, “माई, बाबूजी, कहां से आए हो? अकेले क्यों बैठे हो?” शांति देवी ने कांपती आवाज में कहा, “मेरा बेटा गया है प्रसाद लेने। अभी आता ही होगा।” पर उस रात वह बेटा कभी नहीं आया।

भीड़ छंट गई, मंदिर के बाहर सन्नाटा छा गया। शांति देवी और मोहनलाल समझ गए—बेटा छोड़कर चला गया है। लेकिन मां-बाप का दिल अजीब होता है। धोखा साफ दिखते हुए भी बेटे के लिए दुआ ही करते हैं—”बद्रीनाथ, हमारा विक्रम जहां भी रहे, सुखी रहे।”

रात के तीसरे पहर अचानक किसी ने उनके आंचल को छुआ—माई, बाबूजी, आप यहां अकेले क्यों बैठे हैं? यह आवाज मंदिर के पुजारी की थी। शांति देवी ने कांपते हुए कहा, “हमारा बेटा प्रसाद लेने गया है। अभी आएगा।” पुजारी ने उनकी हालत देखी, समझ गया कि यह साधारण स्थिति नहीं है।

पास ही समाजसेवी मीरा भी थी। उसने बूढ़े माता-पिता की आंखों के आंसू, कांपते हाथ देखे। मीरा ने उनके कंधे पर हाथ रखा—”मां-बाप, चिंता मत कीजिए, यहां कोई किसी को अकेला नहीं छोड़ता। बाबा बद्रीनाथ की नगरी में इंसानियत जिंदा है।” शांति देवी और मोहनलाल फूट-फूट कर रो पड़े। पहली बार लगा कि अजनबियों में भी कोई अपना हो सकता है।

मीरा उन्हें सहारा देकर अपने घर ले गई। खाना-पानी दिया। शांति देवी हर कौर खाते हुए रो पड़ती—”आज तक बेटे को खिलाकर ही संतुष्ट होती थी, आज पहली बार अजनबी मुझे खिला रहे हैं।” उस रात करवटें बदलते सोचती रहीं—जिस बेटे के लिए जिंदगी खपा दी, उसी ने छोड़ दिया। लेकिन शायद भगवान यही चाहते थे—अब अपने पैरों पर खड़े हो।

सुबह की पहली किरण में शांति देवी और मोहनलाल मीरा के आंगन में बैठे थे। रात की थकान, आंसुओं ने आंखें लाल कर दी थीं, पर दिल में नया संकल्प था। मीरा ने कहा, “मां-बाप, जिंदगी किसी एक इंसान के सहारे नहीं रुकती। जिसे अपना सब कुछ मानते थे, उसने ही छोड़ दिया। अब भगवान ने तुम्हें दूसरा रास्ता दिखाने के लिए यहां भेजा है।”

शांति देवी बोली, “बेटी, सच कहूं तो अब हम किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते। अपने हाथों से कमाकर जीना चाहते हैं। बस भगवान का नाम साथ रहे।” यहीं से उनकी नई यात्रा शुरू हुई। मीरा और पुजारी ने मंदिर के बाहर फूल बेचने की छोटी सी जगह दिला दी। पुरानी टोकरी, कुछ फूल लेकर शांति देवी और मोहनलाल ने फूल बेचने का काम शुरू किया।

पहले दिन कांपते हाथों से बेलपत्र और फूलों की माला सजाते, श्रद्धालुओं से कहते—”बाबा के लिए बेलपत्र ले लो, बाबा आशीर्वाद देंगे।” लोग उनके चेहरे की मासूमियत देख रुक जाते। धीरे-धीरे श्रद्धालुओं में बात फैल गई—माता-पिता से फूल लो, आशीर्वाद साथ मिलेगा। दुकान टोकरी से छोटी मेज, फिर दुकान तक पहुंची। अब शांति देवी और मोहनलाल हर सुबह फूल सजाते, साफ कपड़े पहनते, दुकान पर बैठते। चेहरे पर दुख की परछाई मिटने लगी।

एक दिन मीरा ने हंसकर कहा, “मां-बाप, देखो बाबा ने आपको कितना बड़ा तोहफा दिया है। जिसने आपको छोड़ा, उसने सोचा भी नहीं होगा कि आप इतने मजबूत बन जाएंगे।” शांति देवी की आंखें भर आईं—”बेटे ने हमें बोझ समझा, लेकिन बाबा ने सहारा दिया। अब यह फूल ही हमारा जीवन और पहचान है।”

समय के साथ उनकी दुकान मंदिर की सबसे प्रसिद्ध फूल की दुकान बन गई। लोग दूर-दूर से फूल लेने आते। कोई कहता—”माई-बाबूजी का आशीर्वाद लगता है,” कोई कहता—”इनसे लिया फूल सीधे बाबा तक पहुंचता है।” अब सम्मान था, पैसों की कमी नहीं थी। लाखों रुपए तक कमाई होने लगी। लेकिन सबसे बड़ी खुशी थी—अब वे किसी पर निर्भर नहीं थे।

माता-पिता के चेहरे पर संतोष, आत्मविश्वास था। वे कहते—”बाबा बद्रीनाथ की नगरी में जो भी आता है, खाली हाथ नहीं जाता। बेटा छोड़ गया था, लेकिन बाबा ने नया परिवार दे दिया।” अब वे मंदिर के बाहर आत्मनिर्भर माता-पिता की पहचान बन चुके थे।

बरसों बीत गए, बद्रीनाथ की गलियों में “शांति देवी की फूलों की दुकान” हर जुबान पर थी। मंदिर आने वाला हर श्रद्धालु बिना वहां से फूल लिए दर्शन अधूरे समझता। बूढ़े शांति देवी और मोहनलाल अब सिर्फ फूल नहीं बेचते, हर फूल के साथ आशीर्वाद भी देते। जिन हाथों ने बेटे के लिए रोटियां सेकी थीं, वही हाथ अब लोगों के माथे पर दुआ के लिए उठते थे।

समय ने उनके घाव भरे नहीं, लेकिन उन्हें इतना मजबूत बना दिया कि अब वे किसी पर निर्भर नहीं रहे। चेहरे पर संतोष, आंखों में दृढ़ता, आवाज में विश्वास।

इसी बीच एक दिन मंदिर परिसर की भीड़ में विक्रम दिखा। उसका चेहरा थका हुआ था। कारोबार में भारी नुकसान, घर टूटने की कगार, पत्नी प्रिया भी छोड़ चुकी थी। वह जीवन के कठिन दौर से गुजर रहा था। फूलों की दुकान पर बैठे माता-पिता को देख कदम थम गए। वहीं पत्थर बनकर खड़ा रह गया। ये वही माता-पिता थे जिन्हें उसने बोझ समझा था। तीर्थ यात्रा के बहाने यहां छोड़ गया था। लेकिन आज वही माता-पिता सम्मान की मूरत बन चुके थे।

विक्रम दौड़कर माता-पिता के पैरों में गिर पड़ा—”मां-पिताजी, मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बड़ा पाप किया, तुम्हें धोखा दिया, छोड़ दिया। आज देखो मेरी हालत। कृपया मेरे साथ चलो, घर ले जाना चाहता हूं।”

श्रद्धालु यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गए। सबकी नजरें माता-पिता पर टिक गईं। शांति देवी ने बेटे के सिर पर हाथ रखा—”बेटा, माता-पिता अपने बच्चों को कभी श्राप नहीं देते। जिस दिन तूने हमें यहां छोड़ा था, उसी दिन तुझे माफ कर दिया था। लेकिन याद रख, इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं। तूने हमें बोझ समझा, बाबा ने हमें सहारा दिया। अब हमारा घर यही है, परिवार यही है। हम तेरे साथ नहीं जाएंगे।”

विक्रम ने सिर झुका लिया, पछतावे का बोझ और भारी हो गया। भीड़ में खड़े लोगों की आंखें नम हो गईं। किसी ने कहा—”यही भगवान का न्याय है। जिसने माता-पिता को छोड़ा, वह खाली हाथ रह गया। जिसे छोड़ा गया, वही हजारों का सहारा बन गया।”

माता-पिता ने अंतिम बार बेटे को उठाया—”अगर तुझे सच में माफी चाहिए, तो जा, अपने कर्म बदल। माता-पिता को बोझ समझना सबसे बड़ा अपराध है। भगवान तुझे सुधरने का अवसर दे, यही हमारी अंतिम दुआ है।”

विक्रम रोते-रोते वहीं बैठ गया। माता-पिता ने हाथ जोड़कर मंदिर की ओर देखा और अपनी फूलों की दुकान पर बैठ गए। अब उनके चेहरे पर दर्द नहीं, बल्कि गर्व था—जो त्याग और आत्मनिर्भरता से समाज को सिखा रहे थे कि माता-पिता को कभी बोझ मत समझो।