दिल्ली मेट्रो की भीड़ – एक बुजुर्ग महिला की कहानी
शाम का वक्त था। दिल्ली मेट्रो में भीड़ अपने चरम पर थी। ट्रेन के डिब्बे में लोग इतने ठूंसे हुए थे कि सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। हर कोई या तो अपने फोन में डूबा था या थका-हारा चुपचाप खड़ा था, बस अपने स्टेशन का इंतजार कर रहा था।
डिब्बे के एक कोने में, खिड़की के पास करीब 78 साल की एक बुजुर्ग महिला खड़ी थी। हल्की झुकी हुई पीठ, पतली काया, चेहरे पर झुर्रियों की लकीरें, लेकिन आंखों में गहराई थी। उन्होंने फीकी गुलाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी, जिसकी किनारी जगह-जगह घिस चुकी थी। कंधे पर एक पुराना भूरा हैंडबैग टंगा था, जिस पर समय के दाग साफ नजर आ रहे थे।
ट्रेन एक तेज झटका लेती है और अचानक उनका हैंडबैग हाथ से छूटकर भीड़ के बीच फर्श पर गिर जाता है। कुछ लोग एक पल के लिए देखते हैं, फिर तुरंत नजरें फेर लेते हैं। किसी के कान में ईयरफोन था, कोई WhatsApp स्क्रॉल कर रहा था, कोई अपने बैग को सीने से लगाए खड़ा था। मानो उस गिरे हुए बैग से उनका कोई लेना-देना ही न हो।
बुजुर्ग महिला ने झुकने की कोशिश की, लेकिन भीड़ के धक्कों से वह और पीछे खिसक गई। उनके कांपते हाथ हवा में ही रह गए और बैग पैरों के बीच कहीं दबा पड़ा था। ट्रेन की खिड़की से बाहर शाम की लाइट्स टिमटिमा रही थीं।
मेट्रो का अगला स्टेशन आने वाला था और अगर उन्होंने अभी बैग नहीं उठाया तो शायद भीड़ के उतरने-चढ़ने में वह हमेशा के लिए खो जाएगा। उनके माथे पर पसीना आ गया, ठंड के मौसम में भी। होंठ सूख गए। उन्होंने फटी आवाज में कहा, “बेटा, जरा मेरा बैग…” लेकिन आवाज इतनी धीमी थी कि भीड़ के शोर में खो गई।
इसी बीच, डिब्बे के बीच खड़ा एक दुबला-पतला नौजवान, शायद 22-23 साल का, ध्यान से उनकी तरफ देख रहा था। उसने साधारण नीली शर्ट पहन रखी थी, जिस पर हल्के पसीने के निशान थे और कंधे पर एक छोटा सा काला बैकपैक लटका था। चेहरे पर थकान थी, लेकिन आंखों में जिज्ञासा थी।
वह भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा, झुका और एक हाथ से बैग उठाकर बुजुर्ग महिला की तरफ बढ़ाया, “मां जी, आपका बैग।” महिला के कांपते हाथ बैग को कसकर पकड़ लेते हैं, जैसे कोई अपना खोया खजाना वापस पा गया हो।
उन्होंने तुरंत बैग का चैन खोला और अंदर झांका, और उनकी आंखें भर आईं। अंदर ना कोई पर्स था, ना पैसे – सिर्फ एक पुरानी काली-सफेद फोटो, एक पीला पड़ा बस का टिकट और एक छोटा सा सीलबंद लिफाफा था।
लड़का यह देख चुपचाप खड़ा रहा। उसने कुछ पूछना चाहा, लेकिन रुक गया। फिर धीरे से बोला, “सब ठीक है ना मां जी?” महिला ने पल भर उसकी तरफ देखा, फिर नजरें झुका लीं। उनकी आंखों में डर, बेचैनी और गहरी उदासी थी। “हां बेटा, बस अगर यह खो जाता तो मेरा सब कुछ खत्म हो जाता।”
भीड़ अगले स्टेशन की घोषणा सुन रही थी – “अगला स्टेशन है राजीव चौक, दरवाजे दाईं ओर खुलेंगे।” महिला का दिल तेजी से धड़क रहा था। लड़का सोच रहा था, आखिर इस पुराने बैग में ऐसा क्या है जो उनके लिए इतना अनमोल है।
ट्रेन धीरे-धीरे रुकने लगी और वह लिफाफा उनके कांपते हाथों में और कस गया, मानो उसमें उनकी पूरी जिंदगी कैद हो। ट्रेन का दरवाजा खुला, और भीड़ बाहर निकलने लगी। हर तरफ धक्कामुक्की थी। बुजुर्ग महिला अपने बैग को सीने से लगाकर भीड़ से बचते हुए धीरे-धीरे बाहर आईं। जैसे ही वह प्लेटफार्म पर कदम रखती हैं, नौजवान उनके पीछे-पीछे उतर आता है। शायद उसे खुद भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्यों उनका पीछा कर रहा है, लेकिन उसकी आंखों में उस महिला के लिए चिंता थी।
महिला प्लेटफार्म के एक कोने में जाकर रुकती हैं, दीवार के पास खड़ी होकर थोड़ी देर गहरी सांस लेती हैं। उनके चेहरे पर बारिश से भीगी बूंदे नहीं, बल्कि पसीने की नमी थी – डर और बेचैनी से निकला पसीना।
नौजवान हिचकिचाते हुए आगे बढ़ा, “मां जी, अगर बुरा ना मानें तो क्या मैं पूछ सकता हूं – यह बैग इतना जरूरी क्यों है?” महिला ने उसकी तरफ देखा, जैसे उसकी आंखें टटोल रही हों कि क्या यह लड़का सच में भरोसे लायक है। फिर धीरे से बोलीं, “बेटा, यह बैग मेरा घर है।”
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