कहानी : मेहमान दूल्हा
कभी-कभी किस्मत हमारी ज़िंदगी की किताब में ऐसा पन्ना जोड़ देती है, जिसकी कल्पना तक हमने नहीं की होती। इंसान किसी की खुशियों में शरीक होने जाता है, और लौटता है अपनी ही किस्मत का नया अध्याय लेकर—कुछ ऐसा ही हुआ था अनुज के साथ।
उत्तर प्रदेश के एक छोटे, गुमनाम से गाँव में जन्मा था अनुज। मिट्टी का कच्चा घर, दो बीघा बंजर ज़मीन, और वृद्ध माता-पिता की जिम्मेदारी—बस यही उसकी सारी पूँजी थी। उसके पिता गाँव के एक छोटे मंदिर के पुजारी थे, जिनकी मामूली कमाई से घर का चूल्हा किसी तरह जल पाता था। अनुज पढ़ाई में तेज था, मगर गरीबी के आगे उसकी पढ़ाई दसवीं के बाद ही रुक गई। वह खेतों में मजदूरी करता और उन्हीं पैसों से अपनी माँ की दवाइयाँ और घर का खर्च चलाता।
इस कठिन जीवन में भी उसके पास एक खजाना था—दोस्ती।
विक्रम उसका बचपन से जिगरी दोस्त था—गाँव के जमींदार का बेटा। दोनों की दुनिया अलग थी, पर बचपन न गरीबी पहचानता है न अमीरी। वे साथ खेलते, साथ पढ़ते और एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे। समय बदला, विक्रम शहर और फिर विदेश पढ़ने चला गया, जबकि अनुज गाँव की मिट्टी से ही जुड़ा रह गया। लेकिन उनकी दोस्ती नहीं टूटी।
सालों बाद विक्रम की शादी दिल्ली के बड़े उद्योगपति मिस्टर सरीन की बेटी प्रिया से तय हुई—एक खूबसूरत, संस्कारी और पढ़ी-लिखी लड़की। यह शादी दो प्रतिष्ठित घरानों का संगम थी। विक्रम ने खुद अनुज को फोन करके बुलाया—

“तू मेरी शादी में ज़रूर आएगा। तेरे बिना शादी अधूरी है।”
अनुज के पास न अच्छे कपड़े थे, न महँगा तोहफ़ा। उसकी माँ ने अपनी पुरानी साड़ी बेचकर उसके लिए सस्ता सा कुर्ता-पाजामा खरीदा और वह गाँव के मंदिर का प्रसाद व खुद हाथों से बनाई पुरानी लकड़ी की एक डिबिया लेकर दिल्ली पहुँच गया।
दिल्ली का भव्य फ़ार्महाउस, रौशनी, हज़ारों मेहमान—हर चीज़ उसके लिए नई दुनिया थी। लोगों की महंगी पोशाकों के बीच उसका सस्ता कुर्ता अलग ही दिख रहा था। लेकिन वह चुपचाप अपने दोस्त की खुशी देख रहा था।
संगीत की शाम को उसने पहली बार प्रिया को देखा—दुल्हन के रूप में सजी, पर आँखों में हल्की उदासी लिए हुए। अनुज समझ नहीं पाया कि इतनी खूबसूरत, सुसंस्कृत लड़की इस खुशी में भी उदास क्यों है।
शादी का दिन आया। बैंड-बाजे के साथ बारात चली। अनुज सबसे पीछे शांत भाव से चल रहा था। उसी समय अचानक पुलिस की गाड़ियाँ गेट पर आकर रुक गईं। हथियारबंद पुलिस ने मंडप को घेर लिया। सीनियर इंस्पेक्टर सीधे विक्रम तक पहुँचा—
“मिस्टर विक्रम, आपको गिरफ्तार किया जा रहा है—धोखाधड़ी और एक पुराने मर्डर केस के सबूतों के आधार पर।”
मंडप में सन्नाटा पड़ गया। प्रिया जड़ हो गई। मिस्टर सरीन का चेहरा शर्म और आक्रोश से पीला पड़ चुका था। उनकी बेटी की शादी टूट चुकी थी। बारात लौट गई, मेहमान छँटते गए।
इसी उथल-पुथल में मिस्टर सरीन की नज़र अनुज पर पड़ी—सादा, शांत, ईमानदार चेहरा। जमींदार साहब पहले ही अनुज के बारे में बता चुके थे—“लड़का गरीब है, पर हीरा है।”
अपनी इज्ज़त, अपनी बेटी का भविष्य और पूरे समाज का ताने… सब एक पल में दांव पर थे। वे काँपती आवाज़ में अनुज के पास आए—
“बेटा, क्या तुम… मेरी बेटी से शादी करोगे? अभी, इसी मंडप में?”
अनुज हक्का-बक्का! वह गरीब मजदूर… और वह मंत्री की बेटी?
“नहीं साहब, यह मेरे बस की—”
“यह पाप नहीं, पुण्य होगा बेटा… तुम मेरी बेटी और मेरी इज्जत बचा लोगे।”
अनुज ने प्रिया की ओर देखा—उसकी आँखों में आँसू थे, पर उनमें एक अजीब सी उम्मीद भी थी। कुछ सोचकर उसने भारी दिल से कहा—
“अगर प्रिया जी राजी हैं… तो मैं तैयार हूँ।”
प्रिया ने हल्के से सिर हिला दिया। और उसी रात, उसी सूने मंडप में, बिना बैंड-बाजे, बिना बारात—अनुज और प्रिया की शादी हो गई।
गाँव लौटकर प्रिया ने जो कष्ट सहे, वह किसी परीक्षा से कम नहीं था—कच्चा घर, पानी-बिजली का संघर्ष, गरीबी, ताने… पर उसने कभी शिकायत नहीं की। उसने गाँव की मिट्टी, गोबर के उपले, चूल्हा-चौका सब अपना लिया। अनुज ने वादा किया—
“मैं मेहनत करूँगा प्रिया, तुम्हें कभी कमी नहीं होने दूँगा।”
और उसने सचमुच कमाल कर दिखाया।
किसानों को फसल का सही दाम दिलाने, बिचौलियों के खिलाफ खड़ा होने, और गाँव में सहकारी समिति बनाने में प्रिया उसका सबसे बड़ा सहारा बनी। पाँच साल में गाँव की तस्वीर बदल गई—पक्का घर, बिजली, सड़कें, स्कूल और एक छोटा अस्पताल। अनुज अब करोड़ों की टर्नओवर वाला कोऑपरेटिव चलाने लगा था। गाँव का हर बच्चा उसे “अनुज भैया” कहकर सम्मान देता था।
उनका एक बेटा भी था।
दोनों के बीच मजबूरी नहीं—प्यार और भरोसा पनप चुका था।
उधर, विक्रम को केस से बरी होने पर भी धोखाधड़ी के मामले में 7 साल की सज़ा मिली। जेल से बाहर निकलने पर उसके पास कुछ नहीं बचा था—जमींदार पिता मर चुके थे, दोस्त छोड़ चुके थे, जमीन बिक चुकी थी।
भटकता हुआ वह अनुज के गाँव पहुँचा। गाँव देखकर उसकी आँखें फटी रह गईं। वह बदला हुआ गाँव था—और बदला हुआ अनुज।
दरवाजे पर प्रिया मिली। कभी उसकी होने वाली दुल्हन…
आज वह अनुज की पत्नी थी—शांत, आत्मविश्वासी, सम्मान से भरी।
अंदर अनुज आया। उसके चेहरे पर न गुस्सा था, न तिरस्कार—केवल शांति।
विक्रम फफक पड़ा—
“मुझे माफ कर दो अनुज… मैं खत्म हो गया हूँ। कोई काम भी दे दोगे तो…”
अनुज मुस्कुराया—
“काम तो है। मेरे कोऑपरेटिव को शहर देखने के लिए एक मैनेजर चाहिए। करोगे?”
विक्रम अवाक रह गया।
जिसने उससे सब कुछ छीन लिया था, वही आज उसे सहारा दे रहा था।
वह समझ गया—
असली दौलत पैसे नहीं, इंसानियत और माफी होती है।
विक्रम ने मेहनत की, अपनी गलतियों से सीखा, और कुछ वर्षों में स्वयं भी एक बेहतर इंसान बन गया।
यह कहानी सिखाती है—
किस्मत कब, कहाँ बदल जाए कोई नहीं जानता।
पर इंसान का किरदार, उसकी नियत और उसकी इंसानियत ही असली अमीरी है।
अनुज मेहमान बनकर गया था—
दूल्हा बना, और अपने गाँव का हीरो बनकर उभरा।
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