दो बेटियों का पिता: अभिषेक सूद की कहानी
कभी-कभी ज़िंदगी हमें वहाँ रुला देती है, जहाँ हम सबसे कम उम्मीद करते हैं। लेकिन उसी जगह कोई ऐसी मुस्कान मिल जाती है, जो हमारे अंदर का इंसान जगा देती है। भगवान सीधे नहीं आते, वो छोटे-छोटे रूपों में हमें राह दिखाते हैं। कई बार वो रूप हमें स्टेशन की भीड़ में भी मिल जाता है।
यह कहानी है लखनऊ के मशहूर उद्योगपति अभिषेक सूद की। उम्र पचास के करीब, करोड़ों की संपत्ति, आलीशान बंगला, गाड़ियाँ, शोहरत—सब कुछ था उसके पास। लेकिन अकेलापन उसकी सबसे बड़ी दौलत बन चुका था। पाँच साल पहले उसकी पत्नी आर्या का निधन हो गया था। कोई संतान नहीं थी। दिन-रात काम के बीच अब मुस्कुराने की वजह भी खो गई थी।
एक शाम, बिजनेस मीटिंग के बाद अभिषेक स्टेशन पर उतर रहा था। बारिश हो रही थी। लोग भाग रहे थे। तभी दो छोटी बच्चियाँ उसके पास आईं। गीले कपड़े, नंगे पैर, कांपते हाथों से एक ने उसका कोट पकड़ा और मासूम आवाज़ में कहा, “पापा, हमें भूख लगी है, खाना खिला दो।”
अभिषेक ठिठक गया। दिल एक पल के लिए रुक सा गया। उसकी आँखें उन दोनों के चेहरे पर टिक गईं। दोनों जुड़वा थीं—एक जैसी आँखें, एक जैसी मुस्कान। और अजीब बात, दोनों की आँखों में वही चमक थी जो कभी उसकी पत्नी आर्या की आँखों में हुआ करती थी।

भीड़ के बीच वो कुछ सेकंड तक खड़ा रहा। फिर झुककर उन दोनों को गोद में उठा लिया। शायद उसे भी नहीं पता था कि वह क्यों रो रहा था। जब उन बच्चियों ने पहली बार मुस्कुरा कर कहा “धन्यवाद, पापा”, तो उसके अंदर जैसे कोई खालीपन भर गया। उस दिन स्टेशन पर जो हुआ, वो ऊपर वाले का लिखा हुआ चमत्कार था जिसने एक करोड़पति को फिर से पिता बना दिया।
अभिषेक उन्हें पास के ढाबे में ले गया। उनके लिए गर्म खाना मंगवाया। उस रात जब वह बच्चियों को घर ले जा रहा था, बारिश अब भी हो रही थी। लेकिन इस बार वह बारिश ठंडी नहीं लगी, उसमें एक अजीब सी गर्माहट थी।
अगले दिन सुबह अभिषेक की आँख खुली, तो उसने देखा वही दो नन्ही बच्चियाँ ड्राइंग रूम के फर्श पर बैठी थीं। खिलखिलाकर हँस रही थीं। एक गुड़िया के बाल संवार रही थी, दूसरी उसे खाना खिलाने का नाटक कर रही थी। उनके चेहरों पर मासूम मुस्कान थी जो घर की दीवारों को भी जीवंत कर रही थी।
अभिषेक ने धीरे से पूछा, “बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?” बड़ी बच्ची बोली, “मैं आर्या हूँ।” छोटी ने कहा, “मैं अनवी।” अभिषेक के दिल में बिजली सी दौड़ गई। उसकी दिवंगत पत्नी का नाम भी आर्या ही था। उसने मुस्कुराकर कहा, “बहुत सुंदर नाम है तुम्हारे।” दोनों बच्चियाँ उसकी गोद में चढ़ गईं और वह पहली बार पिता की तरह मुस्कुराया।
दिन गुजरते गए, अभिषेक ने उन दोनों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लिया। स्कूल में दाखिला करवाया, कपड़े, किताबें, और एक रंगीन नर्सरी रूम बनवाया। अब हर सुबह जब वह काम पर जाता, दोनों गले लगाकर कहतीं, “पापा जल्दी लौट आना।” उसके लिए यह तीन शब्द अब सबसे कीमती आवाज़ बन चुके थे।
पर उसके मन में एक सवाल था—ये दोनों बच्चियाँ कौन हैं? उनका परिवार कहाँ है? जब भी वह यह बात पूछता, दोनों चुप हो जातीं। एक दिन उसने स्टेशन के आसपास जाकर लोगों से पूछा। एक बुजुर्ग ने बताया, “कुछ महीने पहले यहाँ ट्रेन में आग लग गई थी। कई लोग मारे गए। शायद वही बच्चियाँ बची होंगी।”
अभिषेक को एहसास हुआ कि शायद इन बच्चियों के सिर पर अब कोई नहीं है। उस रात उसने भगवान के आगे सिर झुकाया, “अगर इन बच्चियों की तकदीर में कोई नहीं, तो मुझे इनका सहारा बना दे।” अगले ही दिन उसने दोनों के नाम पर दत्तक प्रक्रिया शुरू की। कोर्ट में उसने कहा, “मैं इन्हें सिर्फ गोद नहीं ले रहा, इन्हें अपना जीवन दे रहा हूँ।”
अब घर की हर दीवार पर हँसी थी। हर कमरे में जीवन की आवाजें। दोनों बच्चियाँ हर सुबह उसे जगातीं, और जब वह ऑफिस से लौटता, दरवाजे पर खड़ी होकर कहतीं, “पापा आ गए!” उसकी आँखें हर बार नम हो जातीं। उसे लगता उसकी पत्नी आर्या कहीं ऊपर से इन नन्ही बेटियों के जरिए उसकी अधूरी दुनिया पूरी कर रही है।
धीरे-धीरे लखनऊ के समाज में यह बात फैल गई कि शहर का सबसे अमीर आदमी अब दो अनाथ बच्चियों का पिता बन गया है। कुछ लोगों ने सवाल उठाए, कुछ ने ताने दिए, लेकिन अभिषेक ने किसी की परवाह नहीं की। उसने कहा, “अगर इंसानियत पाप है, तो मैं इसे बार-बार करना चाहूँगा।”
अब अभिषेक की जिंदगी बदल गई थी। उसकी सुबह उन दो छोटी हँसियों से शुरू होती, रात उनके गले लगकर खत्म होती। अब वो करोड़ों का बिजनेस संभालने वाला इंसान नहीं बल्कि एक साधारण पिता था, जो अपनी बेटियों की हर छोटी इच्छा में खुशी खोजता था।
एक दिन स्कूल में पेरेंट्स डे था। आर्या और अनवी ने स्टेज पर कविता सुनाई, “पापा आप हमारी दुनिया हो।” अभिषेक की आँखें नम हो गईं। उस दिन उसे महसूस हुआ कि रिश्ते खून से नहीं, अपनाने से बनते हैं।
समय बीता, अब अभिषेक की पहचान सिर्फ एक बिजनेस टाइकून की नहीं रही। लोग उसे दो बेटियों वाला पिता कहने लगे। कई अखबारों ने उसकी कहानी छापी। लखनऊ का अरबपति जिसने दो अनाथ बच्चियों को अपनाकर अपनी जिंदगी बदल दी।
एक शाम, जब बारिश हो रही थी, अभिषेक ने बालकनी से देखा—आर्या और अनवी बारिश में भीग रही थीं, एक-दूसरे पर पानी उछाल रही थीं और हँस रही थीं। वो मुस्कुराया, उसकी आँखें भर आईं। उसने आसमान की ओर देखा और कहा, “आर्या, देखो तुम्हारे नाम वाली बेटियाँ मुझे फिर से जीना सिखा रही हैं।”
अब उसका घर सिर्फ ईंटों का नहीं, भावनाओं का किला बन चुका था। समय के साथ आर्या और अनवी बड़ी होने लगीं। आर्या डॉक्टर बनना चाहती थी, अनवी ट्रस्ट का कार्यभार संभालना चाहती थी। अभिषेक अब बूढ़ा हो चला था, लेकिन उसकी मुस्कान पहले से ज्यादा गहरी थी।
हर साल शादी की बरसी पर दोनों बेटियाँ ट्रस्ट में बच्चों के बीच खाना बाँटतीं। अभिषेक बच्चों की खिलखिलाहट सुनता और कहता, “आर्या, देखो, तुम्हारा नाम अब सिर्फ मेरी यादों में नहीं, इन मासूमों की मुस्कान में भी जिंदा है।”
कुछ वर्षों बाद जब अभिषेक की उम्र अस्सी के पार चली गई, उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। अस्पताल में भर्ती करवाया गया। वहीं दो बेटियाँ उसके पास थीं। उसने उनका हाथ थामा और धीमे स्वर में कहा, “मुझे गर्व है कि मैं तुम्हारा पिता हूँ। अगर आज भगवान मुझे बुला भी ले, तो मैं मुस्कुरा कर जाऊँगा, क्योंकि मेरी जिंदगी का हर खालीपन तुम दोनों ने भर दिया।”
अभिषेक की सांसे थम गईं। लेकिन उसके चेहरे पर वही सुकून था। उसके बाद आर्या अनवी ट्रस्ट और भी बड़ा बन गया। अब वहाँ देश भर से बच्चे आते, पढ़ते, खेलते और कहते, “यह वह जगह है जहाँ हर बच्चा किसी का बन जाता है।” ट्रस्ट की दीवारों पर उसकी तस्वीर लगी थी, जिसके नीचे लिखा था—”जिसने दो बेटियाँ पाई, उसने पूरी दुनिया पाई।”
लखनऊ के लोग अब उसे पापा अभिषेक कहकर याद करते थे। वह इंसान जिसने अकेलेपन की जगह अनगिनत बच्चों का प्यार पा लिया। उसकी कहानी अब स्कूलों में बच्चों को सिखाई जाती है—परिवार खून से नहीं, दिल से बनता है। कभी किसी को अपनाने से पहले मत सोचो कि वह तुम्हारा कौन है। क्योंकि शायद वही तुम्हें तुम्हारा असली अर्थ दे दे।
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