साधारण कपड़ों में छुपी असली पहचान – आचार्य शंकर नारायण की कहानी
दिल्ली का इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा – चमक-धमक, ऊँची दीवारें, महंगे ब्रांड्स, और भागती-दौड़ती भीड़। यहाँ इंसान की पहचान उसके कपड़ों, सामान और अंग्रेज़ी बोलने के तरीके से होती है। इसी दुनिया में एक 75 वर्ष के बुजुर्ग – श्री शंकर नारायण – साधारण खादी की धोती और पुराने कुर्ते में, कंधे पर झूला, पैरों में चप्पल और हाथ में लकड़ी की छड़ी लिए, बहुत धीमे-धीमे चल रहे थे। उनकी आँखों में शांति थी, लेकिन उनकी वेशभूषा एयरपोर्ट की भीड़ में सबसे अलग थी।
शंकर नारायण जी झारखंड के एक छोटे गाँव वनस्थली जा रहे थे, जहाँ उन्होंने वर्षों पहले एक स्कूल शुरू किया था। वे वहाँ स्कूल के वार्षिक उत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित थे। सिक्योरिटी चेक-इन की लाइन में उनकी सादगी ने सबका ध्यान खींचा। कुछ लोग मुस्कुरा रहे थे, कुछ घृणा से देख रहे थे। ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा अधिकारी विक्रम राठौर ने उन्हें अपराधी की तरह देखा। विक्रम को अपनी वर्दी और ताकत पर घमंड था। उसने शंकर नारायण जी से अंग्रेज़ी में सवाल किया, जवाब हिंदी में मिला – “कुछ किताबें हैं बेटा और थोड़ा सा प्रसाद।” विक्रम को यह पसंद नहीं आया, उसने उनका झोला ऐसे फेंका जैसे कचरा हो।
विक्रम ने किताबें, खिलौना और प्रसाद सब बाहर निकालकर तिरस्कार से कहा – “यह सब क्या बकवास है?” शंकर नारायण जी ने शांत स्वर में कहा – “यह किताबें मेरा ज्ञान हैं, खिलौना मेरे छात्र की निशानी है।” पीछे खड़ी ग्राउंड स्टाफ पूजा को यह सब देखकर बहुत बुरा लगा। उसने विनती की – “सर जाने दीजिए, बुजुर्ग आदमी हैं।” लेकिन विक्रम ने उसे डांट दिया।
अब विक्रम की नजर छड़ी पर गई – “यह अंदर नहीं जा सकती, यह हथियार है।” शंकर नारायण जी ने हाथ जोड़कर कहा – “यह मेरे दादाजी की निशानी है, मैं इसके बिना चल नहीं सकता।” लेकिन विक्रम नहीं माना। मामला बढ़ गया, विक्रम ने मैनेजर भाटिया को बुला लिया। भाटिया ने भी नियम का हवाला देकर छड़ी को छोड़ने को कहा। शंकर नारायण जी की आवाज़ अब दृढ़ थी – “ठीक है, तो राष्ट्रपति भवन में फोन लगाइए, कहिए शंकर नारायण बात करना चाहते हैं।” सबने उन्हें पागल समझा, हँसी उड़ाने लगे।
पूजा ने डरते-डरते सुझाव दिया – “सर, एक बार कोशिश कर लेते हैं।” भाटिया ने मजाक में राष्ट्रपति भवन का नंबर डायल कराया। जैसे ही नाम बताया, दूसरी तरफ से घबराहट भरी आवाज़ आई – “1 मिनट सर, होल्ड कीजिए।” चंद सेकंड में फोन राष्ट्रपति भवन के प्रमुख सचिव श्री अवस्थी जी को ट्रांसफर हुआ। अवस्थी जी की गंभीर आवाज़ आई – “गुरुजी, आचार्य शंकर नारायण जी, आप एयरपोर्ट पर हैं? कोई परेशान कर रहा है? मैं 5 मिनट में पहुँचता हूँ!”
सारे अधिकारी, सुरक्षा कर्मी स्तब्ध रह गए। हँसी सन्नाटे में बदल गई। विक्रम और भाटिया के चेहरे सफेद पड़ गए। कुछ ही देर में अवस्थी जी खुद एयरपोर्ट पहुँचे, भीड़ को चीरते हुए शंकर नारायण जी के पैरों में गिर पड़े – “गुरुजी, हमें क्षमा कर दीजिए। हमें आपके आने की कोई सूचना नहीं थी।” शंकर नारायण जी ने उन्हें उठाकर गले लगाया – “शांत हो जाओ, इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं।”
अवस्थी जी ने सबके सामने खुलासा किया – “यह कोई साधारण बुजुर्ग नहीं हैं। यह पद्म विभूषण आचार्य शंकर नारायण हैं, देश के सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी, महान दार्शनिक, लेखक, शिक्षाविद्, और हमारे राष्ट्रपति जी के निजी गुरु। राष्ट्रपति जी आज भी हर बड़े फैसले से पहले इनका आशीर्वाद लेते हैं। जिस छड़ी को तुमने हथियार समझा, वह महात्मा गांधी जी की दी हुई है।”
विक्रम और भाटिया माफी मांगने लगे, लेकिन आचार्य जी के चेहरे पर गुस्सा नहीं, दया थी। उन्होंने कहा – “इन्हें सजा मत दो, शिक्षा दो। गलती इनकी सोच की है, जो इंसान को कपड़ों से पहचानती है।” पूजा को अवस्थी जी ने आश्वासन दिया – उसकी नेकी का फल उसे मिलेगा। पूजा को आगे सरकारी स्कॉलरशिप और प्रमोशन मिला। विक्रम और भाटिया को निलंबित कर दिया गया।
आचार्य जी ने विशेष चार्टर्ड प्लेन का प्रस्ताव ठुकरा दिया – “मैं साधारण नागरिक हूँ, साधारण ही रहना चाहता हूँ। बस मेरी छड़ी वापस दिलवा दो।” उन्हें पूरे सम्मान के साथ फ्लाइट तक पहुँचाया गया। उस दिन हर किसी ने सीखा – असली पहचान कपड़ों, पद या दौलत से नहीं, इंसानियत और चरित्र से होती है।
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