एक बेटे का फर्ज़ और इंसानियत की कहानी
पत्नी बोली, “फैसला कर लो, इस घर में तेरी मां रहेगी या मैं।”
और उस बेटे के सामने खड़ी थी वह मां, जिसने अपना सब कुछ लुटाकर उसे खड़ा किया था।
आज वही मां बेटे के घर के दरवाजे पर कांप रही थी, और बेटा दो रिश्तों के बीच फंसा था।
एक ओर पत्नी का हुक्म, दूसरी ओर मां की कांपती आंखें – जिसे देखकर इंसानियत भी कांप गई।
लेकिन जो फैसला उस बेटे ने लिया, उसने आज के स्वार्थी रिश्तों को आईना दिखा दिया।
यह कहानी सिर्फ एक बेटे की नहीं है, यह उस हर इंसान की है जो रिश्तों की कीमत समझता है और आज के समाज के लिए एक आईना भी है।
कहानी की शुरुआत
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर में आज अंकित और रिया की शादी की पहली सालगिरह थी।
घर मेहमानों से भरा था, केक काटा गया, तालियां बजीं। रिया मुस्कुराई और अंकित ने केक का टुकड़ा काटकर जैसे ही उसके होठों की तरफ बढ़ाया, तभी अंकित का फोन बज उठा।
स्क्रीन पर लिखा था – “मम्मी कॉलिंग”।
अंकित की मुस्कान पल में गायब हो गई।
वह फोन रिसीव करता है – “नमस्ते मम्मी।”
मम्मी की कांपती आवाज आई – “बेटा, मुझे अपने पास बुला ले। अब नहीं रहा जाता मुझसे। तुम्हारी भाभी ने आज भी मुझे खाना नहीं दिया और तुम्हारे भाई ने मुझ पर हाथ उठाया।”
अंकित की सांसें थम गईं, उसकी आंखों में आंसू भर आए।
रिया ने पूछा – “क्या हुआ?”
अंकित ने धीरे से कहा – “मम्मी थी, कह रही हैं कि भाई-भाभी उन्हें तंग करते हैं और आज तो भाई ने हाथ भी उठा दिया।”
रिया का चेहरा सख्त हो गया – “तो तुम अब क्या सोच रहे हो?”
अंकित बोला – “मुझे लगता है, मुझे मम्मी को अपने पास बुला लेना चाहिए।”
बस यही सुनते ही रिया ने आंखों में आंखें डालकर कहा –
“अगर तुमने मम्मी को इस घर में लाने की कोशिश की तो मैं यह घर छोड़ दूंगी।”
अंकित के सामने दो रास्ते थे – एक फर्ज़ की ओर, दूसरा डर की ओर।
उसने मम्मी से कहा – “मम्मी, मैं अभी शहर से बाहर हूं, दो-तीन दिन में आता हूं फिर बात करता हूं।”
फोन कट गया, लेकिन उसकी आत्मा वहीं अटक गई।
मां की दहलीज़ पर वापसी
तीन दिन बीत गए, लेकिन अंकित ने मम्मी को दोबारा कॉल नहीं किया।
उसी शाम दरवाजे पर धीमी दस्तक हुई।
दरवाजे पर उसकी मम्मी श्रीमती लीला देवी खड़ी थीं – चेहरे पर थकान, आंखों में बेबसी, कपड़े भीगे हुए।
“बेटा, दरवाजा खोल, मैं तेरे पास आ गई हूं।”
अंकित का दिल भर आया।
वह दरवाजा खोलने ही वाला था कि पीछे से रिया की कड़कती आवाज आई –
“रुको अंकित! कौन है बाहर?”
“मम्मी है।”
“यहां क्यों आई है वह?”
“रिया, वो बीमार है। कहां जाएंगी वो?”
“जहां से आई है वहीं लौट जाए।”
“वो मेरी मम्मी है रिया।”
“और मैं तुम्हारी बीवी हूं। इस घर में मैं कोई बूढ़ा बोझ नहीं चाहती।”
अंकित का हाथ दरवाजे के हैंडल पर था, लेकिन उस पर रिया का कसता हुआ हाथ जैसे लोहे की जंजीर बन गया था।
मम्मी बारिश में कांपती दीवार के सहारे खड़ी थीं।
“बेटा, दरवाजा खोल। मुझे ठंड लग रही है।”
अंकित की आंखों से आंसू बह निकले।
“रिया, कम से कम इतनी इजाजत दे दो कि उन्हें अंदर आने दूं।”
“नहीं अंकित, यह घर तुम्हारी मम्मी के लिए नहीं है। समझ लो यह बात हमेशा के लिए। अगर तुमने दरवाजा खोला तो मैं अभी इसी वक्त इस घर को छोड़ दूंगी।”
रिया ने दरवाजा अंदर से लॉक कर दिया।
अंकित बस दीवार के सहारे बैठ गया – जैसे उसका वजूद भी उसी बारिश में भीग गया हो।
इंसानियत का फैसला
रात हुई, बिजली की आवाजें, आसमान फट पड़ा।
अंकित ने खिड़की से देखा – मम्मी दीवार के पास सिकुड़ कर बैठी थीं, दोनों हाथ सीने पर टिके हुए, आंखें बंद।
अंकित का धैर्य जवाब दे गया।
वह दौड़कर रिया के पास गया – “चाबी दो रिया, मम्मी मर जाएंगी बाहर।”
“तुम ज्यादा ड्रामा मत करो अंकित, वो सुबह तक चली जाएंगी। वैसे भी यह घर तुम्हारे बाप के लिए नहीं बना।”
अंकित ने तकिए के नीचे से चाबी छीनी और दरवाजे की ओर दौड़ पड़ा।
“रुक जाओ अंकित! अगर अब वह घर में आई तो मैं चली जाऊंगी।”
लेकिन इस बार अंकित ने किसी आवाज की परवाह नहीं की।
उसने ताला खोला, दरवाजा खोला – मम्मी जमीन पर बेहोश पड़ी थीं।
“मम्मी, आंखें खोलिए ना प्लीज। मैं आ गया।”
अंकित ने मम्मी को गोद में उठाया, अस्पताल लेकर गया।
डॉक्टरों ने कहा – “अगले 24 घंटे नाजुक हैं। कमजोर शरीर और मानसिक आघात ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया है।”
अंकित ने मम्मी का हाथ थामा – “मम्मी, मैं यहीं हूं। कहीं नहीं जाने दूंगा आपको। सब ठीक हो जाएगा।”
श्रीमती लीला देवी ने आंखें खोली, फीकी मुस्कान दी – “बेटा, अब मत छोड़ना।”
अंकित की आंखों में राहत के आंसू थे।
असली रिश्ता
कुछ दिन बाद मम्मी को डिस्चार्ज मिल गया।
घर लौटते वक्त अंकित सोच रहा था – क्या मैं फिर उसी घर लौट रहा हूं, जहां मेरी मम्मी को इंसान नहीं, बोझ समझा गया था?
घर का दरवाजा खुला, सामने रिया थी – “अब इन्हें वापस क्यों लाए हो? ठीक हो गए तो भेज देते।”
अंकित ने मम्मी को अंदर बैठाया, पानी दिया।
मम्मी की आंखों में डर था – जैसे वह जान गई हों कि इस घर में वो अब भी मेहमान हैं।
तभी बड़े भाई-भाभी भी आ गए।
रिया बोली – “अब तो मम्मी ठीक है, क्यों ना आप लोग इन्हें वापस ले जाएं?”
भाभी बोली – “हम क्यों लें? यह तुम्हारे पति की मां है। हमारी जिम्मेदारी क्यों बने?”
पल भर में घर का माहौल जहरीला हो गया।
मम्मी एक कोने में चुपचाप बैठी थीं।
अंकित उठ खड़ा हुआ – “बस बहुत हो गया।”
सब चुप हो गए।
अंकित बोला – “रिया, मैंने तुम्हारी हर बात मानी। तुम्हारे हर फैसले का सम्मान किया। लेकिन आज मैं खुद से नजर नहीं मिला पा रहा क्योंकि तुम्हारे डर और घमंड के बीच मैं वह बेटा खो बैठा हूं जो अपनी मां को कभी तकलीफ में नहीं देख सकता था।”
“तुम्हारे पास तीन महीने हैं सोचने के लिए। अगर तुम्हें रिश्तों की अहमियत, बुजुर्गों का मान और इंसानियत की समझ है तो इन तीन महीनों में उसे साबित कर दो। वरना यह रिश्ता अब सिर्फ एक समझौता रह जाएगा और मैं समझौतों के सहारे जिंदगी नहीं जी सकता। मैं आज इस घर को छोड़कर जा रहा हूं।”
रिया बोली – “अंकित तुम ऐसा नहीं कर सकते। मैंने गलती की लेकिन तुम इतनी बड़ी सजा दोगे। मम्मी को यहीं रहने दो, मैं सब ठीक कर दूंगी।”
वो अंकित के पैरों में गिर पड़ी।
लेकिन इस बार अंकित की आंखों में पानी नहीं था, बस पत्थर जैसी शांति और एक साफ फैसला।
“मैं थक चुका हूं रिया। मम्मी को कोई और तकलीफ नहीं दूंगा। मैं उनका बेटा हूं और इस बार उन्हें बचाने जा रहा हूं।”
उसने मम्मी का हाथ पकड़ा, सहारा देकर उठाया और बिना पीछे देखे दरवाजे से बाहर निकल गया।
रिया वहीं जमीन पर बैठ गई, सिसकती रही। लेकिन अंकित नहीं रुका।
नई शुरुआत
अंकित ने किराए का फ्लैट ले लिया।
अब उस घर में दो इंसान रहते हैं – एक मां और एक बेटा।
घर छोटा था, लेकिन उसमें कोई ताना नहीं था, कोई अपमान नहीं था।
सिर्फ प्यार था, सेवा थी और एक बेटे का फर्ज़ था।
अंकित अब खुद खाना बनाता है, मम्मी के पैरों को दबाता है और रात को उनके बगल में बैठकर वो कहानियां सुनाता है जो कभी मम्मी ने उसे बचपन में सुनाई थीं।
मम्मी अब मुस्कुराती हैं, क्योंकि अब वह सिर्फ जिंदा नहीं हैं – वह सम्मान के साथ जी रही हैं।
अंकित को अब किसी पछतावे का डर नहीं है, क्योंकि उसने वो किया जो एक सच्चे बेटे को करना चाहिए।
सीख
दोस्तों, अगर किसी रिश्ते में सिर्फ शब्द रह जाएं और आत्मा मर जाए तो उसे निभाना नहीं चाहिए, उसे छोड़ देना चाहिए।
कभी-कभी इंसान को अपना सम्मान बचाने के लिए सबसे करीब के रिश्तों से भी दूर जाना पड़ता है।
क्योंकि जहां सम्मान नहीं, वहां संबंध भी नहीं टिकते।
अब एक सवाल आप सभी से –
अगर आप अंकित की जगह होते, क्या आप भी वही करते या पत्नी के डर, घमंड और पैसे की वजह से अपनी मां को अपमान के बीच जीने के लिए मजबूर कर देते?
कमेंट करके जरूर बताइए।
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मिलते हैं अगले वीडियो में।
तब तक खुश रहिए, अपनों के साथ रहिए और रिश्तों की कीमत समझिए।
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