बरसात की शाम – हरिशंकर वर्मा की कहानी
सुबह की हल्की बूंदा-बांदी अब दोपहर तक घने बादलों में बदल चुकी थी। खिड़की के बाहर पेड़ों की टहनियाँ हवा में झूम रही थीं, और हर थोड़ी देर में बिजली की चमक के साथ बादल गरजते। अंदर, एक छोटे से ड्राइंग रूम में एक वृद्ध व्यक्ति, करीब 70-72 साल के, धीरे-धीरे अपने पुराने चप्पल पहन रहे थे। उनके कपड़े साफ थे, पर पुराने। कुर्ता थोड़ा सा धुला हुआ, पायजामा घुटनों तक चढ़ा हुआ।
“बेटा, अगर एक छाता मिल जाए तो बाहर बारिश बहुत है,” उन्होंने धीमी आवाज में कहा।
डाइनिंग टेबल पर बैठा उनका बेटा रजत, 35 साल का, मोबाइल में व्यस्त था। उसकी पत्नी नीता रसोई में थी। रजत ने बिना ऊपर देखे कहा,
“पापा, रोज कुछ ना कुछ चाहिए आपको। अब छाता कहाँ से लाएँ अचानक? थोड़ी देर इंतजार कर लीजिए।”
पापा चुप हो गए। न झल्लाए, न दोबारा कुछ कहा। बस एक कमजोर सी मुस्कान दी और दीवार से टिक कर धीरे-धीरे चलने लगे। नीता ने हल्की आवाज में कहा,
“पानी तो गिर ही रहा है, अकेले क्यों जा रहे हैं बाजार? बस दूध और कुछ दवाई लेनी है, मैं जल्दी लौट आऊँगा।”
उनकी आवाज में कोई शिकायत नहीं थी, बस एक आदत थी – सब सुन लेने की।
भीगते हुए, पुराने चप्पल घिसटते, वे दरवाजे से बाहर निकल गए। बेटे ने एक बार खिड़की से झाँका, फिर सिर घुमा लिया – “बारिश में भी जिद पकड़े बैठे हैं।”
बारिश तेज हो चुकी थी। सड़कें खाली थीं, दुकानें आधी बंद। आसमान में घना कोहरा था। वृद्ध व्यक्ति का पूरा बदन भीग चुका था, लेकिन वे रुकते नहीं। धीरे-धीरे चलते गए। एक हाथ में प्लास्टिक की थैली थी, जिसमें दवाई और दो ब्रेड के पैकेट थे। लेकिन उनका ध्यान बार-बार बाईं ओर मुड़ती एक झाड़ी की तरफ जा रहा था। वहाँ कुछ हलचल थी।
उन्होंने कदम बढ़ाया और देखा – एक नन्हा पिल्ला काँपता हुआ भीग रहा था। उसके पैर से खून टपक रहा था, शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मारी थी। वे वहीं बैठ गए – कीचड़ में, बारिश में, और उस थैली को धीरे से पिल्ले पर ढक दिया। खुद पूरी तरह भीगते रहे। कोई इंसान पास नहीं था, लेकिन वे वहाँ से उठे नहीं।
उधर शाम हो चुकी थी। घर में बेचैनी फैल गई थी। नीता ने कहा,
“रजत, पापा अभी तक लौटे नहीं। फोन भी नहीं है उनके पास। अब तो बारिश भी बहुत तेज हो चुकी है।”
रजत ने घड़ी देखी – शाम के 7 बजे थे। “इतनी देर? चलो, चल कर देखते हैं।”
तभी एक अनजान नंबर से कॉल आया –
“क्या आप रजत बोल रहे हैं?”
“हाँ, आप कौन?”
“मैं राहुल बोल रहा हूँ। यहाँ सिविल रोड के पास एक बुजुर्ग व्यक्ति को देखा है। लगता है बीमार हैं या ठंड से काँप रहे हैं। आप इन्हें पहचान सकते हैं शायद।”
रजत का चेहरा एक पल में सन्न पड़ गया। वो बिना कुछ कहे बाहर भागा। रजत और नीता दोनों छतरी लिए भागते-भागते सड़क तक आए। आसमान और ज्यादा डरावना हो गया था। बारिश की धारें उनके कपड़ों को भिगो चुकी थीं, और सड़क किनारे हल्की रोशनी में कुछ भी साफ नजर नहीं आ रहा था।
“किधर बताया था?”
“राहुल ने कहा था बस स्टॉप से थोड़ा आगे, पुराने पीपल के पेड़ के नीचे,” नीता ने याद दिलाया। उसी दिशा में दोनों दौड़ पड़े।
कुछ ही मिनट बाद एक छोटी भीड़ लगी थी। पाँच-छह लोग छाते लेकर, कुछ मोबाइल की लाइट जलाकर नीचे देख रहे थे। रजत धड़कते दिल से भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा और फिर सब कुछ ठहर सा गया।
पीपल के पेड़ के नीचे मिट्टी और कीचड़ से भरी जमीन पर एक दुबला-पतला बुजुर्ग आदमी बैठा था। उसके कपड़े पूरी तरह भीगे थे, सफेद बाल माथे पर चिपक गए थे। लेकिन उसकी गोद में एक नन्हा पिल्ला था, जिसके ऊपर उसने प्लास्टिक की थैली फैला रखी थी। पापा के हाथ ठंड से काँप रहे थे, लेकिन चेहरा शांत था – जैसे सुकून इसी में हो कि कोई मासूम जानवर बच गया।
रजत की आँखें भर आईं। वो आगे बढ़ा, लेकिन पापा की नजर उस पर नहीं गई। वह अभी भी पिल्ले के कान सहला रहे थे।
“पापा…” रजत ने काँपती आवाज में कहा।
बुजुर्ग ने धीरे से नजर उठाई और वही पुरानी मुस्कान दी –
“तू आ गया बेटा।” आवाज बेहद धीमी थी।
“पापा, यह आपने क्या किया?” रजत के होंठ थरथरा उठे।
पास खड़ा एक राहगीर बोला,
“मैंने पूछा इनसे – बाबा खुद तो भीग रहे हैं, यह प्लास्टिक अपने ऊपर क्यों नहीं डाला?”
और फिर उसकी बात ने रजत का दिल चीर दिया। बाबा ने कहा,
“मेरे पास छाता नहीं था, लेकिन यह छोटा बच्चा भी बारिश से डर रहा था। मैं बूढ़ा हूँ, यह नया है दुनिया में।”
नीता सन्न थी। रजत फूट-फूट कर रो पड़ा। उसने पापा का हाथ पकड़ कर माथे से लगाया –
“पापा, मुझे माफ कर दो। मैंने आपको नहीं समझा। आपके हर शब्द में कितना प्यार था, मैंने देखा ही नहीं।”
पिता की आँखों में कोई शिकायत नहीं थी – सिर्फ अपनापन।
“बेटा, कभी-कभी हम बस इतना चाहते हैं कि कोई सुने। कोई माने नहीं, बस सुने।”
पुलिस वाला पास आया –
“हमें कॉल किसी राहगीर ने किया था। शुक्र है आप समय पर पहुँच गए और यह बच्चा भी अब सुरक्षित है। हम इसे एनजीओ को सौंप देंगे।”
रजत ने कहा,
“नहीं, इसे हम अपने साथ लेकर चलेंगे। पापा ने इसे बचाया है, अब यह हमारे घर का हिस्सा है।”
रात को घर में नीता ने गर्म दूध पिलाया। पापा अब कंबल में लिपटे थे, लेकिन चेहरे पर वही संतोष की झलक थी। पिल्ला सोफे के कोने में लेटा था। रजत उनकी ओर देख रहा था – अब पहले जैसा नहीं, बल्कि आँखों में श्रद्धा लिए।
रात गहराती जा रही थी। बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन घर के भीतर एक तूफान चल रहा था – पछतावे का, शर्म का और एक नई समझ का।
रजत ने पापा को सोते हुए देखा। उनका चेहरा अब भीगा था, लेकिन वह बारिश का पानी नहीं था – वह भावनाओं की नमी थी जो आँखों से बह रही थी।
सोफे पर बैठा वह नीता से बोला,
“मैंने कभी नहीं पूछा कि पापा पहले क्या करते थे, कहाँ काम किया, किसे पढ़ाया, किसे बचाया। बस समझा कि रिटायर हो गए हैं, अब घर में बैठे रहते हैं।”
नीता चुप थी।
तभी अलमारी में कुछ ढूँढते हुए रजत को एक पुरानी मोटी सी डायरी मिली। उस पर काले अक्षरों में नाम लिखा था – **हरिशंकर वर्मा, मेरे अनुभव, मेरी यादें।**
रजत ने धीरे से डायरी खोली।
पहला पन्ना – एक फोटो चिपकी थी।
पापा एक छोटे सरकारी अस्पताल के गेट पर, सफेद कोट में, किसी को स्ट्रेचर पर बिठाकर ले जाते हुए। नीचे लिखा था –
“जब एंबुलेंस नहीं आई, मैंने खुद मरीज को गोद में उठाकर ICU पहुँचाया। अगर देर होती, बच्चा नहीं बचता।”
दूसरा पन्ना –
“शहर की बाढ़ में जब सब डॉक्टर घरों में बंद थे, मैंने नाव से जाकर लोगों को दवाई दी। उस दिन मेरी टाँग फिसली थी, और उसी के बाद से यह छड़ी मेरी साथी बन गई।”
तीसरे पन्ने पर –
एक पुराना मुड़ा-तड़ा सर्टिफिकेट चिपका था –
“जिला प्रशासन द्वारा सेवा सम्मान, तारीख – 1998।”
रजत की आँखें भर आईं। उसने डायरी बंद की और धीरे से सिर झुकाया –
“पापा मेरे हीरो थे, और मैं कभी जान ही नहीं पाया।”
तभी नीता धीरे से पास आई –
“रजत, हमारे पास अभी भी समय है। अगर आज आपने वह कॉल नहीं उठाया होता, शायद बहुत देर हो जाती।”
रजत की मुट्ठियाँ भीग गईं –
“अब से हर बात सुनूँगा उनकी, हर सुबह, हर शाम। कोई छोटा सवाल नहीं होगा अब।”
अगली सुबह घर में हल्की धूप थी। पापा अब उठ चुके थे। पिल्ला उनकी गोद में लेटा था। रजत चाय की ट्रे लेकर आया –
“पापा, आज से हम साथ में सुबह की चाय पिएंगे। और हाँ, जो पुराना छाता स्टोर में रखा था, उसे भी साफ करवा दिया है।”
हरिशंकर जी मुस्कुराए –
“छाता तो पुराना है बेटा, लेकिन तू आज कुछ नया लग रहा है।”
तीन दिन बीत चुके थे। घर में एक नई ऊर्जा थी – सुकून, सम्मान और रिश्तों की गर्माहट से भरी। हर सुबह रजत अब चाय के दो कप बनाता – एक अपने लिए, एक पापा के लिए। पिल्ला, जिसे पापा ने बारिश में बचाया था, अब उनके पैरों के पास ही सोता – जैसे उसने पहचान लिया हो कि इंसानियत कहाँ बसती है।
एक शाम की बात है – रजत ऑफिस से लौटा, लेकिन आज उसके हाथ में कुछ खास था। एक प्रिंटेड बैनर, कुछ फोल्डर और एक छोटा कैमरा।
“पापा,” उसने धीरे से कहा, “मैंने एक फैसला किया है। आपके नाम पर ‘छाता सम्मान अभियान’ शुरू कर रहा हूँ। हर बारिश में हम उन बुजुर्गों को छाता बाँटेंगे, जिन्हें सब भूल चुके हैं। जैसे मैं आपको भूल गया था उस दिन।”
हरिशंकर जी की आँखें भर आईं –
“बेटा, लोगों को छाता देने से पहले उन्हें समझा दो कि बुजुर्ग कोई बोझ नहीं, वह हमारी छाँव हैं। छाता माँगना एक जरूरत हो सकती है, लेकिन सम्मान देना हमारा कर्तव्य है। कभी किसी बुजुर्ग की चुप्पी को हल्के में मत लो, क्योंकि उनकी खामोशी इतिहास की सबसे गहरी किताब होती है।”
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