बलराम और सूरज: त्याग, शिक्षा और इंसानियत की कहानी
अवध क्षेत्र के सूरजपुर नामक एक छोटे, पिछड़े गांव में, जहां सरयू नदी की धारा पुरानी कहानियां गुनगुनाती थी, वहां बलराम नाम का एक गरीब किसान रहता था। उसके पास 5 बीघा उपजाऊ जमीन थी, जो उसके परिवार की विरासत थी। बलराम की पत्नी सावित्री और आठ साल की बेटी राधा उसके जीवन का आधार थीं। राधा पढ़ने में बहुत होशियार थी, लेकिन गांव में स्कूल न होने के कारण वह सिर्फ उतना ही सीख पाती जितना बलराम उसे घर पर पढ़ाता।
बलराम का दिल हमेशा इस बात से दुखी रहता कि गांव के बच्चे शिक्षा के अभाव में खेतों में मजदूरी करने लगते हैं और उनका बचपन धूल में खो जाता है। वह पंचायत में बार-बार स्कूल खोलने की बात करता, लेकिन पैसों की कमी के चलते बात हमेशा टल जाती।
एक दिन सावित्री गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। गांव में अस्पताल न होने के कारण बलराम उसे कस्बे के अस्पताल ले गया, लेकिन इलाज में देर हो गई और सावित्री चल बसी। मरते समय सावित्री ने बलराम से वादा लिया—गांव में स्कूल जरूर बनवाना, ताकि राधा और गांव के सभी बच्चे पढ़ सकें।
सावित्री के जाने के बाद बलराम पूरी तरह टूट गया, लेकिन अपनी पत्नी का अंतिम वचन उसकी जिंदगी का मकसद बन गया। उसने गांव की पंचायत बुलाकर घोषणा की—”मैं अपनी सबसे उपजाऊ 3 बीघा जमीन गांव के स्कूल के लिए दान करता हूं।”
यह सुनकर सब हैरान रह गए। साहूकार और रिश्तेदारों ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन बलराम अपने फैसले पर अटल रहा।
गांव वालों के श्रमदान और बलराम की जमा पूंजी से चार कमरों वाला “सावित्री देवी स्मारक विद्यालय” बन गया। बलराम ने शहर जाकर सरकारी मान्यता और एक मास्टर की नियुक्ति भी करवा दी। स्कूल के उद्घाटन के दिन बलराम ने राधा का हाथ पकड़कर उसे स्कूल में दाखिल कराया। उसकी आंखों में खुशी के आंसू थे।
स्कूल में दाखिला लेने वाले बच्चों में सूरज नाम का एक गरीब बच्चा भी था। उसका शरीर कमजोर था, लेकिन दिमाग तेज। बलराम ने सूरज को हमेशा प्रोत्साहित किया, किताबें दीं, अनाज दिया ताकि वह भूखा न रहे। सूरज के लिए बलराम सिर्फ एक किसान नहीं, बल्कि पिता और गुरु बन गए।
समय बीतता गया। 20 साल बाद बलराम अब बूढ़ा, थका हुआ और कर्ज में डूबा मजदूर बन गया था। उसकी बची दो बीघा जमीन भी बंजर हो चुकी थी। बेटी राधा की शादी के लिए उसे साहूकार से कर्ज लेना पड़ा। गांव वाले अब उसका मजाक उड़ाते—”देखो, बड़ा आया दानी! खुद तो भूखा मर रहा है और चला था दुनिया का भला करने।”
बलराम चुपचाप सब सहता, लेकिन अपने फैसले पर कभी पछतावा नहीं किया।
सूरज ने पढ़ाई में मेहनत की, जिले में टॉप किया, मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया और डॉक्टर बन गया। जब भी वह गांव आता, सबसे पहले बलराम के पैर छूता और कहता—”काका, आपने जो बीज बोया था, वह एक दिन पेड़ बनकर लौटेगा।”
एक दिन खेत में काम करते हुए बलराम को दिल का दौरा पड़ा। गांव के स्वास्थ्य केंद्र ने हाथ खड़े कर दिए—”दिल का बड़ा दौरा है, इन्हें शहर के बड़े अस्पताल ले जाना होगा।”
राधा रो पड़ी, उनके पास कस्बे तक जाने का किराया भी नहीं था।
तभी गांव में एक बड़ी एंबुलेंस आई, जिसमें सूरज अपने सीनियर डॉक्टर अस्थाना और मेडिकल टीम के साथ था। सूरज ने बलराम को उसी स्कूल के सबसे बड़े कमरे में लिटाया, जिसे बलराम ने बनवाया था। उस कमरे को ऑपरेशन थिएटर में बदल दिया गया और वहीं बलराम की हार्ट सर्जरी हुई।
ऑपरेशन सफल रहा। बलराम की जान बच गई।
एक महीने बाद स्कूल के आंगन में समारोह हुआ, जिसमें जिले के कलेक्टर और स्वास्थ्य मंत्री भी आए। सूरज ने मंच पर घोषणा की—”आज मैं अपनी पूरी जिंदगी और कमाई इस गांव और स्कूल के नाम करता हूं। इस स्कूल को 12वीं तक के कॉलेज में बदलूंगा, विज्ञान और मेडिकल की पढ़ाई होगी। गांव में बलराम काका और सावित्री मां के नाम पर 30 बिस्तरों वाला आधुनिक अस्पताल बनेगा, जहां हर गरीब का मुफ्त इलाज होगा। मैं अपनी दिल्ली की नौकरी छोड़कर यहां का पहला डॉक्टर बनूंगा।”
बलराम मंच पर खड़े थे, उनकी आंखों में गर्व और खुशी के आंसू थे। एक किसान ने शिक्षा का बीज बोया था, 20 साल बाद वही बीज विशाल पेड़ बनकर लौटा, जिसकी छांव में पूरा गांव महफूज़ था।
**यह कहानी हमें सिखाती है कि शिक्षा में किया गया निवेश सबसे बड़ा और सबसे फायदेमंद निवेश है। एक सच्चा शिष्य अपने गुरु के त्याग का कर्ज कभी नहीं भूलता।**
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