सम्मान का असली अर्थ: राम प्रसाद शर्मा की कहानी

सर्दियों की हल्की ठंड थी। सुबह का उजाला बस फैलना शुरू ही हुआ था। शहर के किनारे बसे एक पुराने मोहल्ले में एक छोटा सा घर था, जिसमें रहते थे 78 वर्षीय राम प्रसाद शर्मा, उनका बेटा मनोज और बहू सीमा। साथ में दो छोटे-छोटे पोते-पोतियाँ।

राम प्रसाद का चेहरा झुर्रियों से भरा था, लेकिन उनकी आंखों में गहरी शांति और गरिमा थी। चाल धीमी थी, मगर हर कदम में सलीका था। उनका गुजारा छोटे से पेंशन पर ही चलता था। महीने की शुरुआत में जो रकम आती, उसका एक हिस्सा वे पोते-पोतियों के लिए चॉकलेट या छोटी-छोटी चीजें खरीदने में लगा देते और बाकी घर के खर्च में दे देते। खुद के लिए बस जरूरत भर का।

लेकिन इस बार किस्मत ने अजीब मोड़ लिया। पेंशन आने की तारीख बीत गई, और रकम खाते में नहीं आई। राम प्रसाद ने सोचा, शायद एक-दो दिन में आ जाएगी। उन्होंने किसी को बताया भी नहीं। लेकिन जब सीमा को बैंक से पैसे ना मिलने की बात पता चली, तो उसके लहजे में बदलाव आने लगा।

सीमा ने ताना मारा, “सारा दिन बैठे रहते हैं। कमाते-धमाते कुछ नहीं, ऊपर से खर्चा अलग।”
उसने चाय का कप जोर से मेज पर रखा। मनोज, जो पास ही अखबार पढ़ रहा था, चुप रहा। उसने ना पिता का साथ दिया, ना पत्नी को रोका। शाम तक ताने और कड़वे शब्द बढ़ते गए। सीमा ने पोते-पोतियों के सामने कहा, “अब तो इनके आने का भी कोई मतलब नहीं। महीने की पेंशन भी नहीं आ रही, बस घर में बोझ बनकर बैठे हैं।”

राम प्रसाद चुपचाप सुनते रहे। उनके चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था, बस एक गहरी चुप्पी थी, जैसे मन में कुछ तय कर लिया हो। रात को जब सब सो चुके थे, उन्होंने अपनी पुरानी कपड़े की थैली निकाली, जिसमें बस दो-तीन जोड़ी कपड़े, एक पुराना रजाई का कवर और एक छोटा फोटो एल्बम था। पोते की पुरानी ड्राइंग कॉपी भी उसमें रखी थी, जिसमें बच्चे ने लिखा था—”मैं तुमसे प्यार करता हूँ दादा जी।”
उन्होंने थैली कंधे पर डाली, दरवाजा खोला और बाहर निकल गए। ठंडी हवा चली, लेकिन उनके कदम स्थिर थे।

सुबह तक किसी ने ध्यान नहीं दिया। जब सीमा ने देखा कि राम प्रसाद बिस्तर पर नहीं हैं, तो उसने मनोज से कहा, “कहीं अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चले गए होंगे, अच्छा ही है, थोड़ी राहत मिल जाएगी।”
मनोज बस चुपचाप सिर झुका कर बैठा रहा।

बहू ने बुजुर्ग को पेंशन न मिलने पर घर से निकाला... अगले ही दिन बुर्जुग ने  जो किया #socialstory

लेकिन अगली सुबह मोहल्ले की गली में अचानक अफरातफरी मच गई। दूर से गाड़ियों के हॉर्न सुनाई देने लगे। पड़ोसी खिड़कियों से झांकने लगे। देखते ही देखते गली में एक लंबा सरकारी काफिला दाखिल हुआ। काले रंग की एसी गाड़ी, दो पुलिस जीप और पीछे मीडिया वैन। गाड़ियाँ घर के सामने आकर रुकीं। पुलिस अफसरों ने चारों तरफ घेरा बना लिया।

दरवाजा खुला और पहले बाहर उतरे दो सफेद शर्ट और काले कोट पहने अधिकारी। उनके पीछे राम प्रसाद शर्मा। मगर यह वही साधारण कपड़ों में झुके कंधों वाले बुजुर्ग नहीं थे। आज उन्होंने ग्रे रंग का सिलवाया हुआ सूट पहना था। गले में नेशनल सर्विस का बैज चमक रहा था। जूतों में चमक थी और चाल सीधी, आत्मविश्वास से भरी हुई।

सीमा के हाथ से चाय का कप गिर गया। मनोज दरवाजे पर जम सा गया। पड़ोसी काफूसी करने लगे, “अरे, यह तो बड़े अफसर लग रहे हैं। क्या यह वही शर्मा जी हैं जो यहाँ चुपचाप रहते थे?”

राम प्रसाद ने ऊपर देखा। घर की बालकनी में सीमा खड़ी थी, चेहरा पीला पड़ चुका था। मनोज ने नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं की। भीड़ की फुसफुसाहट और कैमरों की फ्लैश के बीच राम प्रसाद ने गहरी सांस ली। अब उनकी कहानी, उनका सच और उनकी चुप्पी टूटने वाली थी।

गली में हलचल बढ़ चुकी थी। पत्रकार माइक्रोफोन लेकर आगे बढ़े। कैमरे चालू हो गए। लोग अपने घरों से निकल कर देखने लगे, आखिर यह माजरा क्या है?

राम प्रसाद ने बिना किसी जल्दबाजी के घर के दरवाजे की ओर कदम बढ़ाए। उनके पीछे एक सीनियर पुलिस अफसर चल रहा था, जो बार-बार झुककर उनसे कुछ कह रहा था। सीमा दरवाजे पर खड़ी थी, हाथ कांप रहे थे।
“अरे बाबूजी आप…” उसके शब्द जैसे गले में अटक गए।
मनोज भी पीछे आ गया, चेहरा शर्म से झुका हुआ।
राम प्रसाद ने उसे देखा, लेकिन कुछ बोले नहीं। सीधे घर के आंगन में आए, कुर्सी पर बैठ गए। उनके बैठते ही दो अधिकारी ने फाइलें और दस्तावेज उनके सामने रख दिए, मानो कोई मीटिंग चल रही हो।

गली के लोग अब आपस में बातें करने लगे, “यह तो बहुत बड़े अफसर निकले। किसी ने बताया था यह रिटायर हो चुके हैं, लेकिन इतने बड़े पद से। लगता है यहाँ छुपकर रह रहे थे।”

सीमा के दिमाग में कल रात के सारे ताने और गुस्से के लम्हे घूमने लगे। उसे याद आया कैसे उसने उनके लिए खाना तक नहीं रखा, कैसे बच्चों के सामने उन्हें बोझ कहा था।

राम प्रसाद ने चुप्पी तोड़ी, “मनोज, पता है मैं कल रात कहाँ था?”
मनोज ने धीमे स्वर में कहा, “नहीं बाबूजी।”
“मैं गया था जिला कलेक्टर के दफ्तर। पेंशन रुकी क्यों, यह देखने। वहाँ पता चला कि विभाग में रिश्वतखोरी हो रही है। पैसे देने वालों की फाइलें पहले पास होती हैं, बाकियों को महीनों लटकाया जाता है।”
उनकी आवाज स्थिर थी, लेकिन हर शब्द में एक ठंडा गुस्सा था। भीड़ खामोश होकर सुन रही थी।

“मैंने खुद जाकर सबूत इकट्ठा किए और फिर आज सुबह मुख्य सचिव और मीडिया को बुलाकर यहाँ लाया, ताकि उन्हें दिखा सकूं कि जो इंसान पेंशन के लिए भटक रहा था, वह कोई मजबूर बुजुर्ग नहीं, बल्कि वही अफसर है जिसने इस राज्य की कई योजनाएँ शुरू की थीं।”

सीमा के पैर कांप गए।
“बाबूजी, मैंने तो…”
“हाँ, तुमने बहुत कुछ कहा कल,” राम प्रसाद ने उसकी तरफ सीधे देखते हुए कहा, “लेकिन जो सबसे बड़ा घाव दिया, वह यह था कि तुमने मुझे बच्चों की नजरों में गिरा दिया।”

उनके शब्द तीर की तरह चुभे। पत्रकारों ने सवाल करने शुरू किए, “सर, क्या आप कार्यवाही करवाएंगे? क्या आप भ्रष्ट अफसरों को सस्पेंड कराएंगे?”
राम प्रसाद ने बस इतना कहा, “न्याय जरूर होगा और शुरुआत मैं अपने ही घर से करूंगा। क्योंकि सम्मान की शिक्षा घर से मिलती है, और अगर घर में ही बुजुर्गों का अपमान हो, तो समाज में क्या उम्मीद करेंगे?”

यह सुनते ही भीड़ में हलचल मच गई। सीमा के आंसू निकल पड़े, लेकिन इस बार राम प्रसाद का चेहरा कठोर था। उन्होंने पुलिस अफसर की ओर इशारा किया, “चलो, अब दफ्तर चलते हैं। रिपोर्ट दर्ज करनी है।”

राम प्रसाद खड़े हुए और जैसे ही बाहर निकले, कैमरों की फ्लैश फिर से चमक उठी। गली में हर कोई सोच रहा था, इस आदमी ने कल तक चुपचाप अपमान सहा और आज पूरे सिस्टम को हिला दिया। लेकिन असली सच अभी बाकी था। आखिर उन्होंने यह साधारण जिंदगी क्यों चुनी थी, जब उनके पास सब कुछ था? यह जवाब राम प्रसाद सिर्फ सही वक्त पर देने वाले थे।

दफ्तर पहुंचते ही मीडिया और अफसर पीछे हट गए। अब कमरे में बस राम प्रसाद, कलेक्टर और कुछ भरोसेमंद अधिकारी बैठे थे।
कलेक्टर ने धीरे से कहा, “सर, आप चाहे तो इन मामलों को सीधा मंत्रालय भेज सकते हैं, आपके पास सबूत भी हैं और अधिकार भी।”
राम प्रसाद ने कुर्सी पर टिकते हुए गहरी सांस ली, “मुझे पता है, लेकिन यह सिर्फ कागज का मामला नहीं है। यह इंसानियत का मामला है। जिस विभाग का काम बुजुर्गों की सेवा करना है, वहीं अगर उनका शोषण हो, तो यह मेरी आत्मा को चोट पहुंचाता है।”

कलेक्टर चुप हो गए। थोड़ी देर की खामोशी के बाद उनके एक पुराने साथी शर्मा जी धीरे से बोले, “राम प्रसाद जी, अब तो आप रिटायर हो चुके हैं। इतनी मेहनत, इतनी गुप्त जांच… आखिर क्यों?”

राम प्रसाद ने उनकी ओर देखा और आवाज धीमी कर दी, “क्योंकि मैंने अपनी मां को इसी सिस्टम के हाथों मरते देखा है।”
कमरे का माहौल ठंडा पड़ गया।
“मेरी मां विधवा थी। पेंशन उनका हक थी, लेकिन महीनों तक उन्हें सिर्फ टालमटोल और बेइज्जती मिली। उन्होंने कभी रिश्वत नहीं दी, और एक दिन लाइनों में खड़े-खड़े धूप में गिर पड़ीं। फिर कभी उठीं ही नहीं। उसी दिन मैंने कसम खाई थी कि अपने पद का इस्तेमाल सिर्फ कागजी आदेशों के लिए नहीं करूंगा, बल्कि इस सिस्टम को इंसानियत सिखाने के लिए करूंगा।”

कलेक्टर की आंखें भर आईं। शर्मा जी ने धीमे स्वर में कहा, “तो इसलिए आप रिटायर होने के बाद भी साधारण कपड़ों में छोटे से घर में चुपचाप रह रहे थे?”
राम प्रसाद ने सिर हिलाया, “हाँ। असली चेहरा तभी दिखता है जब सामने वाला सोचता है कि तुम बेबस हो। मैं जानबूझकर साधारण जीवन जीता रहा, ताकि देख सकूं आज भी इस देश में इंसानियत बची है या नहीं।”

इसी दौरान बाहर से एक कांस्टेबल आया, “सर, घर से मैडम और उनके पति आए हैं। मिलने की इजाजत चाहिए।”
राम प्रसाद ने गहरी सांस ली, “बुला लो।”

दरवाजा खुला और सीमा अंदर आई, पीछे-पीछे मनोज। दोनों के चेहरे पर शर्म और पछतावा साफ था। सीमा ने आते ही पैरों में गिरते हुए कहा, “बाबूजी, मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। मुझे माफ कर दीजिए। उस वक्त बस गुस्से में मैं नहीं समझ पाई कि आपने हमारे लिए कितनी कुर्बानियां दी हैं।”

राम प्रसाद ने उसे उठाया, लेकिन चेहरे पर सख्ती बरकरार थी, “सीमा, गलती इंसान से होती है, लेकिन बुजुर्ग का अपमान गलती नहीं, चरित्र का आईना होता है। मैंने जो सिखाना था, वह आज तुम्हें और इस पूरे मोहल्ले को सिखा दिया है।”

मनोज की आंखें झुकी थीं। उसने धीमे स्वर में कहा, “बाबूजी, मैं आपका बेटा होकर भी आपके साथ खड़ा नहीं हुआ। आज जिंदगी भर उस शर्म के साथ जीना पड़ेगा।”
राम प्रसाद ने बस इतना कहा, “अगर सच में शर्म है तो इसे बदल दो। अपने घर से, अपने बच्चों से शुरू करो, ताकि अगली पीढ़ी सीख सके—बुजुर्ग बोझ नहीं होते, वरदान होते हैं।”

सीमा और मनोज चुपचाप सिर हिलाते रहे।
जाते-जाते राम प्रसाद ने कलेक्टर से कहा, “इन अफसरों पर सख्त कार्रवाई करो। और हां, पेंशन विभाग में एक नया नियम लागू करना—जो भी बुजुर्ग पेंशन के लिए आए, उसे बैठाकर चाय पिलाओ। यह कानून से बड़ा आदेश होगा—इंसानियत का आदेश।”

कमरे में सन्नाटा था, लेकिन उस सन्नाटे में एक अजीब सी गरिमा थी।
राम प्रसाद उठकर बाहर निकले। बाहर बारिश रुक चुकी थी और गली के लोग उनके लिए ताली बजा रहे थे।
लेकिन उनके कदम भारी थे, क्योंकि वह जानते थे—असली लड़ाई अभी भी जारी है।

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