अर्जुन और उसके दादा-दादी की कहानी
अर्जुन एक नवयुवक था, जो विदेश में रहकर डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह अपने देश लौटा, तो एक बड़े होटल में खाना खाने गया। जैसे ही उसने होटल में कदम रखा, उसकी नजर एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी जो फर्श पर पोछा लगा रही थी। उस महिला का चेहरा, उसकी आंखें, उसकी झुर्रियों भरी शक्ल सब कुछ उसकी दादी से इतना मिलता-जुलता था कि वह एक पल के लिए सन्न रह गया।
वह पास जाकर गौर से देखने लगा और उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। कांपती आवाज में पुकारा, ‘‘दादी!’’
बुजुर्ग महिला एकदम रुक गई और अर्जुन की तरफ देखते ही पोछा फेंककर लड़खड़ाते कदमों से उसके पास आई और उसे अपनी बूढ़ी बाहों में भर लिया। वह जोर-जोर से फूट-फूट कर रोने लगी, जैसे सालों का दर्द उस एक पल में बाहर आ गया हो। अर्जुन भी रो पड़ा।
**कहानी की शुरुआत**
यह सच्ची कहानी उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले की है। रामेश्वर प्रसाद और सावित्री देवी अब उम्र के उस पड़ाव पर थे, जहां उनके हाथ-पैर कांपते थे। उनकी आंखों की रोशनी धीरे-धीरे कम हो रही थी और हर कदम पर उन्हें किसी के सहारे की जरूरत थी। उनके साथ उनका बेटा संजय, बहू पूजा और इकलौता पोता अर्जुन रहता था। अर्जुन विदेश में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। वह अपने दादा-दादी का सबसे प्यारा लाडला था और जब तक वह गांव में था, घर में खुशियों का माहौल रहता था।
रामेश्वर जी और सावित्री देवी को लगता था कि उनकी यह छोटी सी दुनिया हमेशा ऐसी ही रहेगी। लेकिन वक्त ने पलटी मारी। जैसे ही अर्जुन विदेश गया, इस घर में सब कुछ बदल गया। उम्र बढ़ने के साथ-साथ रामेश्वर जी और सावित्री देवी की ताकत कम होने लगी। उनका शरीर कमजोर पड़ने लगा और बीमारियां उनके दरवाजे पर दस्तक देने लगीं। कभी रामेश्वर जी का बीपी बढ़ जाता, कभी सावित्री देवी को शुगर की शिकायत हो जाती।
लेकिन उनकी सबसे बड़ी तकलीफ उनकी बीमारी नहीं थी, बल्कि उनके बेटे संजय और बहू पूजा का व्यवहार था। संजय अब अपने माता-पिता की कोई फिक्र नहीं करता था। वह दिन-रात अपने काम में डूबा रहता और पूजा को सिर्फ अपने सुख और आराम से मतलब था। रामेश्वर जी और सावित्री देवी अपने ही घर में पराए हो गए थे। पूजा अक्सर उन्हें बासी खाना परोस देती थी।
जिन माता-पिता ने अपने बच्चों के लिए अपनी नींदें कुर्बान कीं, आज वही माता-पिता बासी रोटियां खाने को मजबूर थे। जब रामेश्वर जी इसकी शिकायत संजय से करते तो वह उल्टा उन पर ही भड़क जाता। ‘‘अब तुम लोग क्या काम करते हो? जो हर बार ताजा खाना चाहिए। जो मिल रहा है, चुपचाप खा लो। मेरे पास तुम्हारी फालतू बातों के लिए वक्त नहीं है।’’
रामेश्वर जी और सावित्री देवी का दिल टूट जाता। वे अपने छोटे से कमरे में चले जाते, दरवाजा बंद करते और एक दूसरे का हाथ थामकर फूट-फूट कर रोते। वे अपने पुराने दिनों को याद करते जब उनका बेटा उनकी हर बात मानता था, जब घर में प्यार और सम्मान का माहौल था।
जब तक अर्जुन गांव में था तब तक उनकी जिंदगी में थोड़ी सी रोशनी थी। अर्जुन अपने दादा-दादी से बेइंतहा मोहब्बत करता था, उनकी हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख्याल रखता था। कभी बाजार से दवाइयां लाता, कभी अपनी पॉकेट मनी से फल खरीदता। वह अपने माता-पिता को भी समझाता – ‘‘मम्मी-पापा, दादा-दादी अब बूढ़े हो गए हैं, इनका ध्यान रखो, अच्छा खाना दो, इनकी सेहत का ख्याल रखो।’’
लेकिन अब अर्जुन विदेश में था। संजय और पूजा का व्यवहार दिन प्रतिदिन और भी सख्त और बेरहम होता गया। वे दोनों रामेश्वर जी और सावित्री देवी को बोझ समझने लगे। उनकी छोटी-छोटी जरूरतें भी अब उनके लिए परेशानी बन गई थीं। अगर रामेश्वर जी को दवाई चाहिए होती तो पूजा ताने मारती – ‘‘हर बार दवाई चाहिए, पता नहीं कितना खर्च करवाओगे।’’
अगर सावित्री देवी कुछ कहती तो संजय की बेरुखी भरी बातें उन्हें चुप करा देती थीं। इसी तरह उनके दुख भरे दिन कट रहे थे। एक दिन सुबह-सुबह रामेश्वर जी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई। उनकी सांसें तेज-तेज चल रही थीं, सीने में दर्द हो रहा था और शरीर में इतनी कमजोरी थी कि वे बिस्तर से उठ भी नहीं पा रहे थे। सावित्री देवी डर गईं। उन्होंने कांपते पैरों से संजय के पास जाकर कहा – ‘‘बेटा, तेरे पिताजी की हालत बहुत खराब है, उन्हें जल्दी अस्पताल ले चलो वरना कुछ अनहोनी हो जाएगी।’’
लेकिन संजय ने उनकी बात को हल्के में लिया। ‘‘मुझे बस यही काम बचा है क्या? दिनभर काम करता हूं, थक कर चूर हो जाता हूं, और तुम लोग हर बार नई मुसीबत लेकर आते हो। अस्पताल ले जाऊंगा तो मेरा पूरा दिन बर्बाद हो जाएगा। जो करना है खुद कर लो।’’
ना तो उसने अपने पिता का हाल पूछा, ना ही मदद की। रामेश्वर जी बिस्तर पर पड़े कराह रहे थे और सावित्री देवी उनकी हालत देखकर रो रही थीं। दोनों एक दूसरे को देखते रहे – उनकी आंखों में लाचारी थी, दर्द था और एक सवाल था – ‘‘क्या हमारा बेटा सच में इतना बदल गया है?’’
लेकिन सावित्री देवी ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने कांपते हाथों से रामेश्वर जी को सहारा दिया और बोलीं – ‘‘चलो, मैं तुम्हें खुद अस्पताल ले जाऊंगी। हमारा बेटा भले हमें छोड़ दे, लेकिन मैं तुम्हें नहीं छोड़ूंगी।’’
दोनों किसी तरह तैयार हुए। सावित्री देवी ने अपनी पुरानी साड़ी के पल्लू में कुछ पैसे बांधे रखे थे, जो उन्होंने सालों से जोड़े थे। उसी से उन्होंने एक ऑटो लिया और रामेश्वर जी को लेकर गांव के पास के सरकारी अस्पताल पहुंचीं। डॉक्टर ने देखा और कहा – ‘‘इनका बीपी बहुत ज्यादा बढ़ गया है और शुगर भी कंट्रोल से बाहर है। इन्हें तुरंत दवाइयां शुरू करनी होंगी और पूरा आराम करना होगा।’’
सावित्री देवी ने कांपते हाथों से दवाइयां लीं और रामेश्वर जी को लेकर घर लौटने लगीं। लेकिन उस दिन किस्मत भी उनके साथ नहीं थी। रास्ते में अचानक तेज बारिश शुरू हो गई। ऑटो वाला बोला – ‘‘यहां से उतर जाइए, मेरा ऑटो आगे नहीं जाएगा।’’ मजबूरन दोनों उस तेज बारिश में ऑटो से उतर गए। सावित्री देवी ने रामेश्वर जी का हाथ थामा, अपनी साड़ी का पल्लू उनके सिर पर रखा ताकि वे कम भीगें और कीचड़ भरे रास्ते पर धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ने लगीं।
रामेश्वर जी का शरीर कमजोर था, पैर लड़खड़ा रहे थे, लेकिन सावित्री देवी ने उन्हें हर कदम पर संभाला। बारिश की बूंदें उनके चेहरे पर गिर रही थीं और उनके आंसू उस पानी में मिल गए थे। तभी संजय और पूजा घर से बाहर निकले और यह नजारा देख लिया। पूजा ने ताने मारे – ‘‘देखो इन लोगों ने तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी। इस उम्र में भी शर्म नहीं है।’’
संजय का गुस्सा सातवें आसमान पर – ‘‘तुम लोगों को बुढ़ापे में यह सब करना सूझ रहा है? कुछ तो शर्म करो।’’
सावित्री देवी ने रोते हुए जवाब दिया – ‘‘तेरे पिताजी की तबीयत खराब थी, तूने अस्पताल ले जाने से मना कर दिया था। बारिश में अगर मैं उन्हें ना संभालती तो वे कीचड़ में गिर जाते। क्या मैं उन्हें ऐसे छोड़ देती?’’
लेकिन संजय का दिल ना पसीजा। वह उन्हें घूरता हुआ अंदर चला गया।
रामेश्वर जी और सावित्री देवी अपने कमरे में गए, गीले कपड़े बदले, एक दूसरे को देखा और फिर फूट-फूट कर रोने लगे। वे अपने पोते अर्जुन को याद करने लगे, जो उनकी हर तकलीफ में उनका सहारा बनता था। वे सोचने लगे – ‘‘काश हमारा अर्जुन यहां होता, वह हमें कभी इस हाल में ना छोड़ता।’’
**साजिश और त्याग**
शाम ढल गई और घर में सन्नाटा फैल गया। पूजा ने संजय से कहा – ‘‘इनका कुछ करना पड़ेगा, हर बार यह लोग हमें शर्मिंदा करते हैं।’’ संजय ने योजना बनाई – ‘‘चिंता मत करो, कल मैं इनका पक्का इंतजाम कर दूंगा।’’
अगले दिन सुबह संजय ने रामेश्वर जी और सावित्री देवी से बड़े प्यार से कहा – ‘‘मां-पिताजी, आपकी तबीयत हमेशा खराब रहती है। आज मैं आपको शहर के बड़े अस्पताल ले जाऊंगा। हो सकता है दो-तीन दिन रुकना पड़े, तो अपना सामान ले लो।’’
रामेश्वर जी और सावित्री देवी को थोड़ी उम्मीद हुई कि शायद बेटे को अपनी गलती का एहसास हो गया है। वे खुशी-खुशी तैयार हो गए। संजय उन्हें स्टेशन ले गया, दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठाया। रास्ते में बड़े प्यार से बातें करता रहा ताकि उन्हें कोई शक न हो।
दिल्ली पहुंचने के बाद वह उन्हें एक बड़े अस्पताल के सामने ले गया, वहां एक पुराना पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे चबूतरा बना था। संजय ने उन्हें वहां बैठाया – ‘‘मां-पिताजी, आप यहां थोड़ा आराम करो, मैं डॉक्टर से बात करके आता हूं।’’
रामेश्वर जी और सावित्री देवी वहां बैठ गए। लेकिन वो इंतजार कभी खत्म नहीं हुआ। घंटों बीत गए, शाम हो गई, अंधेरा छा गया, लेकिन संजय वापस नहीं आया। सावित्री देवी ने कांपती आवाज में कहा – ‘‘लगता है हमारा बेटा हमें यहां छोड़कर चला गया।’’
रामेश्वर जी की आंखें भर आईं – ‘‘क्या हमने अपने बेटे को इसी दिन के लिए पाला था?’’
दोनों उस चबूतरे पर बैठे, फूट-फूट कर रोने लगे। उनके पास ना पैसे थे, ना कोई सहारा। वे उस बड़े शहर में अकेले थे।
लेकिन सावित्री देवी ने हार नहीं मानी। ‘‘हम मरेंगे नहीं, मैं कुछ काम ढूंढूंगी। हम अपने लिए रास्ता बनाएंगे।’’
वे पास के एक छोटे होटल में गईं। होटल मालिक से कहा – ‘‘मुझे कुछ काम दे दो, मैं बर्तन मांज दूंगी, झाड़ू-पोछा कर दूंगी, बदले में हमें सिर्फ खाना दे देना। मेरे पति बीमार हैं।’’
होटल मालिक ने दया दिखाकर उन्हें काम दे दिया। अब सावित्री देवी दिनभर होटल में काम करतीं, बर्तन धोतीं, फर्श साफ करतीं और जो थोड़ा-बहुत खाना बचता उसे अपने और रामेश्वर जी के लिए ले आतीं। रामेश्वर जी दिनभर होटल के कोने में कुर्सी पर बैठे रहते। रात को होटल बंद होने के बाद वे वहीं सो जाते।
हर रात वे अपने बेटे और बहू को कोसते, अपने पोते अर्जुन को याद करते और सोचते – ‘‘काश हमारा अर्जुन यहां होता।’’
**अर्जुन की वापसी**
इधर विदेश में अर्जुन का कोर्स पूरा हो गया। उसने अपने माता-पिता को फोन किया – ‘‘मम्मी-पापा, मेरा कोर्स खत्म हो गया है। मैं जल्दी ही इंडिया आ रहा हूं। मुझे दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में इंटरव्यू देना है। लेकिन पहले दादा-दादी से बात कराओ।’’
संजय ने झूठ बोला – ‘‘वे लोग तीर्थ यात्रा पर गए हैं, वहां फोन का नेटवर्क नहीं है। तू दिल्ली आजा।’’
अर्जुन इंडिया आया, दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा, अस्पताल पहुंचा, इंटरव्यू अच्छा रहा। बाहर निकलते वक्त उसे भूख लगी। पास में वही होटल था जहां सावित्री देवी काम करती थीं। अर्जुन ने सोचा – ‘‘चलो, यहां खाना खा लेता हूं।’’
होटल में घुसते ही उसकी नजर एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी जो फर्श पर पोछा लगा रही थी। शक्ल जानी-पहचानी लगी। पास जाकर देखा – ‘‘दादी!’’
सावित्री देवी ने आवाज सुनी, सिर उठाया, सामने अपने पोते अर्जुन को देखा। उनकी आंखें छलक पड़ीं। वे पोछा छोड़कर उठीं और अर्जुन से लिपट गईं। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे।
रामेश्वर जी भी पास ही कुर्सी पर बैठे थे। अर्जुन ने उनके पैर छुए – ‘‘दादाजी, आप यहां कैसे?’’
सावित्री देवी और रामेश्वर जी ने सारी कहानी सुनाई – कैसे संजय उन्हें इलाज के बहाने दिल्ली लाया और छोड़ गया, कैसे वे बेसहारा हो गए और अब होटल में काम करके गुजारा कर रहे हैं।
अर्जुन का खून खोल उठा। उसने अपने दादा-दादी को गले लगाया – ‘‘अब मैं हूं आपके साथ, आपको इस हाल में नहीं छोड़ूंगा।’’
उसने दिल्ली में किराए का घर लिया, दादा-दादी को वहां शिफ्ट किया, उनकी देखभाल के लिए दो नौकर रखे। फिर गांव लौटा।
**सबक और अंत**
संजय और पूजा ने अर्जुन को देखकर खुशी जताई। अर्जुन ने कहा – ‘‘मम्मी-पापा, मुझे विदेश में अच्छी नौकरी मिल गई है, लेकिन मैं आपको यहां अकेले नहीं छोड़ सकता। आप मेरे साथ चलो।’’
दोनों ने सामान पैक किया, दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे। अर्जुन ने कहा – ‘‘मम्मी-पापा, आप यहां थोड़ा इंतजार करो, मैं टिकट कंफर्म करवा कर आता हूं।’’
वह अंदर गया लेकिन दूसरे गेट से निकलकर दादा-दादी के पास चला गया।
संजय और पूजा घंटों इंतजार करते रहे, अर्जुन नहीं आया। उनका फोन भी स्विच ऑफ हो गया।
आखिरकार उन्हें समझ आया कि अर्जुन उन्हें छोड़कर चला गया।
इधर अर्जुन अपने दादा-दादी को लेकर फिर एयरपोर्ट पहुंचा। संजय और पूजा अभी भी वहां थे। अर्जुन बोला – ‘‘मम्मी-पापा, जो आपने दादाजी-दादी के साथ किया, वही मैंने आपके साथ किया है। अब आपको उनका दर्द समझ आया?’’
संजय और पूजा शर्मिंदा हो गए। संजय रोते हुए अपने माता-पिता के पैरों में गिर पड़ा – ‘‘मां-पिताजी, मुझे माफ कर दो, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।’’
रामेश्वर जी और सावित्री देवी ने उसे माफ कर दिया। क्योंकि लाख दुख सहने के बाद भी माता-पिता अपनी औलाद की खुशी के लिए हर दुख भूल जाते हैं।
आखिरकार पूरा परिवार फिर से एक साथ रहने लगा।
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