एक नई सुबह: शिव नारायण की कहानी
भोर का उजाला जैसे अभी-अभी आंखें मलकर उठा था। छोटे से कस्बे रामपुर घाट की संकरी सड़कों पर ठंडी हवा बह रही थी। बिजली के तारों पर फंसी पन्नियों की खड़खड़ाहट, चाय भट्टी की पहली उबाल, और रोजाना की तरह काम पर निकलते थके-हारे चेहरे – सब कुछ जैसा हर रोज होता है।
इसी भीड़ के किनारे, सफेद धोती-कुर्ता पहने, कंधे पर फीका सा झोला लटकाए, चेहरे पर गहरी शांति लिए एक बुजुर्ग खड़े थे– उनका नाम था शिव नारायण। उनके कदम धीमे जरूर थे, लेकिन रुके हुए नहीं। आंखों में जीवन का अनुभव, चेहरे पर दया और मुस्कान।
बस स्टैंड अभी पूरी तरह जागा भी नहीं था। अनाउंसमेंट हुआ – शहर जाने वाली बस 10 मिनट में आ जाएगी। भीड़ में शिव नारायण ने जेब से मुड़ा-तुड़ा नोट निकाला और टिकट की लाइन में लग गए। उनके आगे खड़ा एक युवा, गले में बड़ा ब्रांडेड लोगो वाली टीशर्ट, बालों में ज्यादा जेल लगाए हुए, मुड़कर बुजुर्ग पर ताना मारने लगा – ‘‘बाबा, आपकी वजह से भीड़ लग रही है, जल्दी किया करो।’’ शिव नारायण ने बड़ी विनम्रता से सिर झुका लिया, ‘‘हां बेटा, कोशिश करूंगा।’’
टिकट लेने के बाद वे बस के प्लेटफार्म पर पत्थर की उस पुरानी बेंच पर जा बैठे, जो सालों से धूल, पसीने और इंतजार की गवाह रही थी। उनके झोले में एक पुराना फाइल कवर था, जिसके भीतर कुछ कागज बड़ी सलीके से लगे हुए थे। उनकी नजरें कभी फाइल और कभी भीड़ पर टिक जाती, जैसे हर अनजान चेहरा किसी पुराने रिश्ते की तरह महसूस होता हो।
बस आई – पीली लाल पट्टियों वाली, भीड़-शोर के साथ। धक्का-मुक्की में किसी ने शिव नारायण को किनारे कर दिया, वे गिरते-गिरते बचे। खुद को संभालते हुए धीरे-धीरे बस में चढ़े। कंडक्टर ने पूछा, ‘‘बाबा, जल्दी करो, जगह नहीं है।’’ ‘‘टिकट है बेटा… बस जरा धीरे चलता हूं।’’
भीतर जगह नहीं मिली, एक सज्जन ने अपनी सीट पर बैग फैला दिया था। शिव नारायण मुस्कुराते हुए किनारे खड़े हो गए। खिड़की से आती हवा में बचपन की यादें उतर आईं– धान की खुशबू, मिट्टी की सौंधी महक, मां के हाथों की रोटी, पिता की खांसियों में छुपा प्यार…
अचानक बस रुकती है। कंडक्टर हड़बड़ी में उनका टिकट झपट लेता है – ‘‘अरे, ये तो आधे रूट का टिकट है।’’ शिव नारायण ने कहा, ‘‘बेटा, मैंने तो खिड़की पर शहर का टिकट मांगा था।’’ कंडक्टर और यात्री ताने मारने लगे कि ‘‘ये लोग आदत से मजबूर हैं, टिकट का पैसा बचाने के लिए बहाने बनाते हैं।’’
शिव नारायण ने जेब से कुछ सिक्के निकाले, ‘‘गलती हो गई हो तो ठीक कर दो बेटा, १४ की जगह ४० ही ले लो, मुझे देर हो जाएगी।’’ लेकिन कंडक्टर ने उतार दिया– ‘‘नियम है, गलत टिकट पर सफर नहीं।’’
बस से उतरे, फाइल का कागज नीचे गिर गया, सारी धूप-धूल में बिखर गया। कोई मदद को नहीं आया, सिवाय एक छोटे बच्चे के, जिसने दो कागज उठाकर दिए – ‘‘दादाजी, ये लो।’’
एक चाय वाले ने पूछा – ‘‘बाबा, क्या हुआ?’’ शिव नारायण ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘कुछ नहीं बेटा, बस टिकट की गलती हो गई।’’ चायवाले ने कहा, ‘‘चाय पियो, पैसा मत दो। आप जैसे बुजुर्ग का आशीर्वाद बहुत है।’’
बारिश होने लगी। सिर पर फाइल को संभालते हुए वे छाजन के नीचे जा खड़े हुए। उन्हें जल्द ही शहर के ‘आश्रय समूह’ के दफ्तर पहुंचना था, जहाँ उनकी जिंदगी के सबसे पुराने संघर्ष का फैसला होना था।
फ्लैशबैक: कभी वे फैक्ट्री के इज्जतदार सुपरवाइजर थे। एक बड़े हादसे के बाद सबके लिए संपत्ति, वक्त और मेहनत लगा दिए। कुछ ने धोखा दिया, लेकिन वे पीछे नहीं हटे। ‘आश्रय समूह’ शुरू किया – बेघरों और मजदूरों के लिए।
आज उसी ट्रस्ट की मीटिंग थी, कुछ लोग आश्रय को बेच देना चाहते थे।
शहर में एक पुराने साथी इस्माइल से मिला– जिससे पता चला विवाद हो रहा है। ‘‘जब तक सांस है किसी का आश्रय बिकने नहीं दूंगा।’’
ऑफिस में सुरक्षा गार्ड ने बुजुर्ग को रोकना चाहा, रिसेप्शन पर वही युवक बैठा था जिसने सुबह बस में शर्मिंदा किया था, लेकिन अब वह शर्मिंदा था, पहचान नहीं पाया। मीटिंग में शिव नारायण ने फाइल से कागज निकाला, जिसमें लिखा था कि आश्रय की जमीन और इमारत उनकी संपत्ति थी, पर ट्रस्ट हित के लिए नामांतरण कर गए थे। उन्होंने कभी मालिकाना लाभ नहीं लिया।
अंत में दो नंबर के लोग बेनकाब हुए। कठोर इंसाफ के साथ मानवीय समाधान भी हुआ– दोषियों पर कार्रवाई, लेकिन उनके परिवार के पुनर्वास का प्रावधान। वहीं, जो युवक बस में अपमानित कर रहा था, उसे आश्रय का यंग कोऑर्डिनेटर बना दिया गया।
शिव नारायण ने कहा– ‘‘जहाँ अपमान हुआ, वहीं करुणा लौटनी चाहिए।’’
अब बस स्टैंड पर “शिव नारायण केंद्र” नाम से वरिष्ठ नागरिकों के लिए सीट, छाया और पानी की व्यवस्था शुरू हुई।
कहानी का सन्देश यही हैं – आत्मसम्मान, दया व संघर्ष की मिसाल शिव नारायण जैसे लोग समाज की असली पूँजी हैं।
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