शहर का बस स्टॉप – इंसानियत का आईना
शाम का वक्त था। शहर की सड़कें दफ्तर से लौटते लोगों की भीड़ से भरी हुई थीं। बस स्टॉप पर लंबी लाइन लगी थी। लोग अपने-अपने फोन में व्यस्त थे, कोई जल्दी में था, कोई थकान से चिड़चिड़ा। उसी भीड़ में एक बुजुर्ग आदमी धीरे-धीरे अपनी लाठी के सहारे बस की ओर बढ़ रहा था। उम्र लगभग सत्तर के पार होगी। झुर्रियों से भरा चेहरा, कांपते हाथ, बदन पर हल्का सा सूती कुर्ता जो अब पुराना और घिस चुका था। पैरों में टूटी-फूटी चप्पलें और कंधे पर एक छोटा सा कपड़े का थैला।
बस में चढ़ते वक्त उसका कदम लड़खड़ा गया। पीछे खड़े कुछ लोग हंस पड़े।
“अरे बाबा, घर पर बैठो ना। क्यों सड़क पर बोझ बने हो?”
“हां चलो, जल्दी करो। सबको जाना है।”
कंडक्टर ने भी झुंझलाकर चिल्लाया, “अबे बूढ़े, चल फुर्ती से। टाइम नहीं है। पूरा दिन नहीं है मेरे पास।”
बुजुर्ग ने कुछ कहा नहीं। धीरे-धीरे हिम्मत जुटाई और पहला पायदान चढ़ने ही वाला था कि अचानक कंडक्टर ने गुस्से में उसे धक्का दे दिया।
“चल हट! तेरे जैसे बुजुर्गों को घर पर रहना चाहिए।”
वो धक्का इतना तेज था कि बुजुर्ग सड़क पर बुरी तरह गिर पड़े। लाठी एक तरफ, थैला दूसरी तरफ और उनका शरीर सड़क पर लुढ़कता चला गया। घुटनों से खून निकल आया। बस बिना रुके आगे बढ़ गई। खिड़की से कुछ लोग झांकते रहे, कुछ मुस्कुराए, कुछ ने नजरें फेर ली। बस स्टॉप पर खड़े लोग भी चुप थे। किसी ने आगे बढ़कर हाथ नहीं बढ़ाया। बस एक महिला ने धीमी आवाज में कहा, “अरे बाप रे। बेचारे बूढ़े को बहुत चोट लगी।” लेकिन फिर वह भी आगे बढ़ गई।
बुजुर्ग वहीं फुटपाथ के किनारे बैठ गए। उनके चेहरे पर अपमान का बोझ किसी भी चोट से ज्यादा भारी था। आंखों से आंसू गिरने लगे। लेकिन उन्होंने आवाज नहीं निकाली। होठों से बस एक नाम बार-बार फुसफुसा रहे थे – “राघव… राघव…” वो उनका बेटा था। कुछ लोग रुक कर देखते, फिर अपने रास्ते चल देते। शहर की भीड़ में एक गिरे हुए इंसान का दर्द किसे दिखाई देता है? सब अपने-अपने काम और परेशानियों में डूबे हुए थे।
बुजुर्ग धीरे से उठने की कोशिश करते, लेकिन घुटनों का दर्द और अपमान की चुभन उन्हें वहीं बैठा देती। उनका कांपता हाथ अपनी लाठी की ओर बढ़ा, लेकिन पकड़ न पाए। राह चलते एक लड़के ने उनकी लाठी उठाकर उनके पास रख दी। लड़का कुछ कहना चाहता था, मगर अपने दोस्तों की हंसी सुनकर चुप हो गया और चला गया।
शाम गहराती गई। स्ट्रीट लाइट्स जल उठीं। भीड़ धीरे-धीरे कम हो गई। लेकिन वह बुजुर्ग अब भी वहीं बैठे थे। उनकी आंखें खाली सी थीं, चेहरा थका हुआ और आत्मा अपमान से टूटी हुई। वो बार-बार अपने बेटे का नाम बुदबुदाते रहे – “राघव बेटा…” पास खड़े किसी ने सुना और फुसफुसाया, “राघव… कहीं पुलिस कमिश्नर राघव तो नहीं?” यह नाम सुनते ही आसपास खड़े कुछ लोगों ने एक दूसरे की ओर देखा, लेकिन तुरंत किसी ने कुछ नहीं कहा। सब बस अपने-अपने रास्ते चले गए।
रात ढल चुकी थी। बुजुर्ग बड़ी मुश्किल से अपने थैले को उठाकर पास की बेंच पर लेट गए। उनके घुटनों से खून अब भी रिस रहा था। शहर का शोर उनके लिए अब सिर्फ दूर की गूंज बन चुका था। लेकिन आने वाली सुबह इस शहर के लिए सब कुछ बदल देने वाली थी।
सुबह का समय था। शहर की भीड़ फिर से अपने काम पर निकल रही थी। अखबार के ठेले पर एक छोटी सी खबर छपी थी – “बुजुर्ग को बस से धक्का, सड़क पर गिरकर घायल।” लोगों ने पढ़ा, कुछ ने सिर हिलाया और आगे बढ़ गए। लेकिन यह छोटी सी खबर कुछ ही घंटों में आग की तरह फैलने लगी। पुलिस चौकी के एक कांस्टेबल ने जब अखबार उठाया तो तस्वीर देखकर चौंक पड़ा। तस्वीर में वही बुजुर्ग थे जिन्हें वह अच्छी तरह जानता था – माथे पर हल्की चोट, हाथ में पुरानी लाठी और चेहरे पर टूटा हुआ भाव।
वो तुरंत दौड़कर अपने वरिष्ठ अफसर के पास पहुंचा और धीरे से बोला, “सर, यह बुजुर्ग जिन्हें कल बस से धक्का दिया गया, यह तो कमिश्नर साहब के पिता हैं।”
यह सुनते ही कमरे में सन्नाटा छा गया। अफसर ने तुरंत फोन उठाया और सीधे कमिश्नर राघव सिंह को कॉल लगाया। फोन की घंटी बजी।
“हेलो…”
राघव की गहरी आवाज आई।
“सर, कल रात जो बस वाले ने बुजुर्ग को धक्का देकर गिराया, वो आपके पिताजी थे।”
एक पल के लिए दूसरी तरफ खामोशी छा गई। राघव की सांसे तेज हो गईं, दिल धड़कने लगा जैसे किसी ने छाती पर बोझ रख दिया हो।
“क्या?” उसने धीरे से कहा।
“जी सर, उनकी तस्वीर छपी है और लोग कह रहे हैं कि कल स्टॉप पर बहुत अपमान हुआ।”
राघव की मुट्ठियां कस गईं। आंखों के सामने पिता का चेहरा घूम गया – वो चेहरा जिसने हमेशा उसे सिखाया था कि इंसाफ सिर्फ किताबों में नहीं, जमीन पर भी होना चाहिए। उसने तुरंत आदेश दिया – “बस डिपो को सील करो। ड्राइवर और कंडक्टर को तुरंत गिरफ्तार करो और मुझे लोकेशन भेजो। मैं खुद पहुंच रहा हूं।”
फोन रखते ही राघव ने गहरी सांस ली। उसके भीतर गुस्सा और दर्द दोनों उबल रहे थे। वह अपने पिता को बहुत मजबूत समझता था, कभी नहीं सोचता था कि उनके साथ ऐसा सलूक होगा। कल रात जब पिता सड़क पर पड़े थे, वह अपने आरामदायक कमरे में था। यह सोचते ही उसका दिल जल उठा।
कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ियां पूरे शहर में दौड़ने लगीं। बस डिपो के बाहर भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया। डिपो के कर्मचारी हैरान थे – “यह अचानक इतना सब क्यों?”
सुना है किसी बुजुर्ग के साथ बुरा बर्ताव हुआ था। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि वह बुजुर्ग शहर के पुलिस कमिश्नर के पिता होंगे।
राघव खुद कुछ ही समय में डिपो पहुंचा। सफेद वर्दी में, चेहरे पर सख्त भाव, आंखों में जलती हुई आग। जैसे ही गाड़ी से उतरा, सभी पुलिसकर्मी तुरंत सलाम में खड़े हो गए। लेकिन राघव ने किसी की ओर देखा भी नहीं। उसकी निगाहें सिर्फ एक चीज ढूंढ रही थीं – वह बस और वह लोग जिन्होंने उसके पिता का अपमान किया था।
“ड्राइवर और कंडक्टर कहां हैं?”
उसकी आवाज गूंज उठी। दोनों को तुरंत पेश किया गया। उनके चेहरे पीले पड़ चुके थे। कल रात का उनका मजाक आज मौत की तरह भारी लग रहा था। भीड़ जमा हो चुकी थी। लोग फुसफुसा रहे थे – “अरे, यह तो वही मामला है। कमिश्नर साहब के पिता थे वह बुजुर्ग।”
सारा शहर अब हैरान था। जिन लोगों ने बुजुर्ग की बेइज्जती होते देखी और चुप रहे, उनके चेहरे पर अब शर्म साफ झलक रही थी। राघव ने भीड़ की ओर देखा और धीमी मगर कांपती हुई आवाज में बोला,
“कल आप सब ने देखा होगा, मेरे पिता को सड़क पर गिराया गया। आप में से कितनों ने मदद की?”
भीड़ खामोश रही। कोई जवाब नहीं था। राघव की आंखें नम हो गईं। उसने आसमान की ओर देखा और सोचा – पिताजी, आपने हमेशा सिखाया था कि इंसाफ कभी देर से आ सकता है लेकिन आता जरूर है। आज आपका बेटा वही इंसाफ दिलाएगा।
उसने आदेश दिया, “ड्राइवर और कंडक्टर दोनों को तुरंत हिरासत में लो। इनकी यूनिफार्म से ज्यादा अहम इंसानियत है और यह उसे भूल चुके हैं।”
भीड़ अब और गहरी चुप्पी में डूब गई। लेकिन असली तूफान अभी आना बाकी था। बस डिपो के गेट पर अब भीड़ उमड़ आई थी। मीडिया की गाड़ियां, कैमरे और माइक सब तैनात थे। सबको खबर मिल चुकी थी कि कल जिस बुजुर्ग को धक्का देकर सड़क पर गिराया गया था, वह कोई आम इंसान नहीं बल्कि पुलिस कमिश्नर राघव सिंह के पिता थे।
कंडक्टर और ड्राइवर पुलिस की पकड़ में खड़े थे, लेकिन असली सजा अभी बाकी थी। राघव धीरे-धीरे आगे बढ़ा। चेहरा खड़ा था मगर आंखों में दर्द साफ दिख रहा था। सामने खड़ी बस देखकर उसका दिल और कस गया। उसी बस से उसके पिता को धक्का देकर उतारा गया था। भीड़ से आवाजें आने लगीं – “यह तो बड़ा शर्मनाक हुआ। किसी ने रोका क्यों नहीं? हम सब ने देखा था पर चुप रहे।”
भीड़ की चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध थी। राघव ने माइक थाम लिया। उसकी आवाज गूंज उठी –
“कल रात जब मेरे पिता को धक्का देकर सड़क पर गिराया गया, वह सिर्फ मेरे पिता का अपमान नहीं था। वो हर पिता का अपमान था। हर उस बुजुर्ग का जिसने अपनी पूरी जिंदगी हमें पालने, हमें बनाने में गुजार दी।”
सन्नाटा छा गया। वो सीधे ड्राइवर और कंडक्टर के सामने गया।
“क्यों किया तुमने ऐसा? क्या बूढ़े कपड़ों में दिखते हैं तो इंसानियत खत्म हो जाती है? क्या गरीब या कमजोर को तुम लोग धक्का दोगे?”
दोनों के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। सिर्फ कांपते हुए हाथ जोड़े खड़े थे।
तभी अचानक भीड़ से एक बुजुर्ग महिला बोल उठी –
“बेटा, कल मैंने देखा था सब कुछ। पर डर के मारे कुछ कह नहीं पाई। आज शर्म से सिर झुक रहा है।”
यह सुनते ही राघव की आंखें भर आईं। उसने गहरी सांस ली और भीड़ की ओर देखा।
“कल आप सब गवाह थे, लेकिन गवाह बनना काफी नहीं। आवाज उठाना जरूरी है। अगर आप चुप रहेंगे तो अगली बार आपके अपने मां-बाप भी ऐसे ही अपमानित होंगे।”
भीड़ में खामोशी और गहराती चली गई। कुछ लोग सिर झुका कर रोने लगे। राघव ने आदेश दिया –
“इस बस डिपो को तुरंत बंद करो। जब तक हर स्टाफ को इंसानियत और आचार की ट्रेनिंग नहीं दी जाएगी, यह डिपो दोबारा नहीं खुलेगा।”
पुलिस वालों ने “जी सर” कहते हुए कार्रवाई शुरू कर दी। मीडिया कैमरे चमकने लगे। हर चैनल पर यही खबर चलने लगी – “कमिश्नर के पिता से हुई बदसलूकी, बेटा खुद पहुंचा डिपो।”
इस पूरे माहौल में सबसे ज्यादा बेचैन वही ड्राइवर और कंडक्टर थे। दोनों बार-बार कह रहे थे –
“सर, माफ कर दीजिए। गलती हो गई। पहचान नहीं पाए।”
राघव ने शांत स्वर में कहा –
“पहचान की जरूरत इंसानियत के लिए नहीं होती। इंसान को उसके कपड़ों से मत तोलो, उसके दिल से पहचानो।”
भीड़ ने पहली बार तालियां बजाई। लेकिन तालियां भी अब शर्म से भारी लग रही थीं। राघव की आंखें अचानक नम हो गईं। वह वहीं जमीन पर बैठ गया, जहां कल उसके पिता गिरे थे। हाथों से मिट्टी उठाई और कहा –
“यहीं कल मेरे पिता का खून गिरा था। यह मिट्टी मुझे याद दिलाएगी कि इंसानियत की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।”
पूरा बस डिपो सन्नाटे में डूब गया। अब सभी जानते थे कि यह सिर्फ एक परिवार की बात नहीं थी, यह पूरे समाज का आईना था।
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