एक पाव रोटी की कीमत: इंसानियत को जगा देने वाली बुंलदशहर की कहानी
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक सुबह का वक्त था। शहर के एक पुराने चाय और ब्रेड पकोड़े की दुकान के कोने में आठ साल का एक बच्चा अकेला बैठा था। उसके कपड़े धूल-मिट्टी में सने थे, चेहरे पर मासूमियत और आंखों में उदासी सा कोई गहरा राज़ था। दुकानदार कहीं बाहर गया हुआ था।
तभी एक सफेद कार रुकी और उससे उतरा सजे-धजे, सादगी से भरा एक नौजवान—आनंद कश्यप, उम्र करीब 26 साल। वह हमेशा छोटे दुकानदारों से ही खाना पसंद करता था, क्योंकि उनका मानना था कि छोटे दुकानों से खरीदना, सिर्फ खाना खरीदना नहीं बल्कि किसी की उम्मीद और रोज़गार को बचाना है।
आनंद ने दुकानदार को आवाज़ दी। जबाब में बच्चा बोला, “अंकल, वो कुछ सामान लेने गए हैं, आप चाहें तो इंतजार कर लीजिए।” आनंद मुस्कुराया और बोला, “बेटा, मुझे बहुत भूख लगी है। ब्रेड पकोड़े मिल सकते हैं?” बच्चा कुछ पल चुप रहा, फिर धीमी आवाज़ में बोला, “साहब, मत खाइए, ये आपके लिए नहीं हैं।”
आनंद हैरान हुआ और उसके पास जमीन पर बैठकर नरमी से बोला, “क्या बात है बेटा, इनमें कुछ खराब है?” बच्चा नम आंखों से बोला, “नहीं साहब, खराब तो नहीं हैं, लेकिन अगर आपने खा लिए तो आज मैं और मेरी छोटी बहन शायद भूखे सोएंगे।”
आनंद यह सुनकर सन्न रह गया। उसने बच्चे से पूछताछ की तो पता चला, उसकी मम्मी का एक साल पहले कैंसर से निधन हो गया था, पापा शराबी हो गए हैं और कई-कई दिन तक घर नहीं आते। वह और छोटी बहन सृष्टि इस दुकान से मिलने वाले बचे-खुचे खाने पर जी रहे हैं, स्कूल भी छूट गया है।
आनंद ने कहा, “पहले ये पकोड़े तुम और तुम्हारी बहन खाओ, दुकानदार आएगा तो मैं पैसे दे दूंगा।” इतने में सृष्टि भी आई, और दोनों बहन-भाई ने खुश होकर ब्रेड पकोड़े खाए। दुकानदार अशोक जी जब लौटे तो आनंद ने उनके सामने पैसे रख दिए और कहा, “ये सिर्फ इन बच्चों के नहीं, बल्कि हर उस भूखे के लिए हैं, जो बोल नहीं पाता।”
फिर आनंद ने अशोक जी से बच्चों के घर चलने को कहा। तीनों एक तंग गली की ओर बढ़े, जहाँ टूटी-फूटी झोपड़ी में बच्चे रहते थे। घर के अंदर बस एक बोरी बिछी थी, दो खाली प्लेट, और एक कोने में कुछ पुरानी किताबें। आनंद का दिल भर आया।
पास ही रहने वाली एक बूढ़ी अम्मा बाहर आई। आनंद ने उनसे कहा, “क्या आप इन बच्चों का ध्यान रख सकती हैं? मैं हर जरूरी मदद दूँगा।” अम्मा की आंखों में आंसू आगए, बोलीं,“ ममता की कोई कीमत नहीं। मैं इन्हें अपने पोते-पोती जैसा पाल लुंगी।” आनंद ने ₹5000 दिए, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, खाने और स्कूल की जिम्मेदारी ले ली।
आनंद ने उसी दिन दोनों बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया। अब उनकी जिंदगी में उम्मीद की रोशनी लौट आई। तीन दिन बाद, पिता किशन लौटे, घर बदला-बदला सा देखा तो रो पड़े। उन्होंने गलती मानी, शराब छोड़कर मेहनत-मजदूरी करने लगे, और सच में पिता बनने की कोशिश करने लगे।
वक़्त के साथ बच्चे स्कूल जाने लगे, पिता दिन में कमाने और शाम को बच्चों के लिए छोटा सा तोहफा लाते। आनंद लगातार सबकी मदद करता रहा। सालों बाद, स्कूल के एक कार्यक्रम में रोहन ने सबके सामने अपनी कहानी सुनाई, “मैं वही बच्चा हूँ, जो पकोड़े की दुकान पर बैठा था। मुझ पर जब दुख और भूख हावी थी, तो भगवान ने एक फरिश्ते को हमारी जिंदगी में भेजा।” हॉल तालियों से गूंज उठा।
इस सच्ची कहानी से यही संदेश मिलता है—गरीबी सिर्फ पैसों की नहीं, बल्कि हालात और समाज की बेरुखी की भी होती है। एक छोटा सा नेक काम किसी की पूरी जिंदगी बदल सकता है। क्या आप भी इंसानियत का फरिश्ता बनना चाहेंगे?
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