माँ का सम्मान

लखनऊ के एक सरकारी अस्पताल का इमरजेंसी वार्ड। बाहर लंबी कतारें, अंदर अफरातफरी। कहीं मरीजों की कराहट, कहीं दवा की गंध, सीलन भरी दीवारें और पंखों से टपकता पानी। इस शोरगुल और अव्यवस्था के बीच, एक पुरानी सी स्ट्रेचर पर 68 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला लेटी थीं। उनके बाल पूरी तरह सफेद हो चुके थे, चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ और आँखों में बेचैनी। कपड़े पुराने, जगह-जगह से फटे। सांसें टूटी-टूटी और अधरों पर सिर्फ एक शब्द—
“मेरा बेटा… मेरा बेटा… उसे बुला दो।”

पास खड़ी नर्स ने डॉक्टर से कहा—“मैडम, यह बार-बार अपने बेटे का नाम ले रही हैं।”
डॉक्टर ने भीड़ और फाइलों के बीच कंधे उचकाकर अनदेखा कर दिया।

कुछ ही देर में तेज़ कदमों से एक नौजवान भीतर आया। उम्र करीब 35 साल, नीली शर्ट, महंगे जूते और हाथ में चमकता स्मार्टफोन। आते ही गुस्से में बोला—
“कहाँ है? जल्दी बताओ, मेरे पास टाइम नहीं है।”

नर्स ने इशारे से स्ट्रेचर दिखाया। मां ने जैसे ही बेटे को देखा, आँखों में हल्की चमक और होठों पर अधूरी मुस्कान उभरी—
“आ गया मेरा बेटा…”