सेठ किशनलाल और मजदूरों की कहानी
शहर के सबसे प्रसिद्ध और अमीर बिल्डर थे सेठ किशनलाल। उनकी बनाई इमारतें, महल और बंगले शहर की शान माने जाते थे। लोग उनका नाम सम्मान से लेते थे, लेकिन यह सम्मान सिर्फ उनकी दौलत और ताकत के लिए था, उनके व्यवहार के लिए नहीं। सेठ किशनलाल बहुत कठोर, अहंकारी और स्वार्थी इंसान थे। उन्हें लगता था कि पैसा ही दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है और बाकी सब बेकार है। मजदूरों के लिए उनके मन में कोई इज्जत नहीं थी। वे उन्हें सिर्फ मशीनें समझते थे, जिनका काम बस पैसे कमाना है।
वह अक्सर मजदूरों पर चिल्लाते, उनकी मेहनत को कम आंकते और उन्हें बहुत कम मजदूरी देते थे।
एक दिन सेठ किशनलाल अपने सबसे बड़े प्रोजेक्ट की साइट पर गए। यह 50 मंजिला इमारत बनने वाली थी। वहां उन्होंने देखा कि काम धीमा चल रहा है। उन्हें लगा मजदूर जानबूझकर काम में ढील दे रहे हैं ताकि उन्हें ज्यादा मजदूरी मिल सके। गुस्से से उनका चेहरा लाल हो गया। उन्होंने सोच लिया कि अब इन मजदूरों की असलियत पता करनी है।
उन्होंने पुराने और मैले कपड़े पहने, अपनी घड़ी उतार दी, चेहरे पर नकली दाढ़ी-मूंछ लगा ली और अपना नाम बदलकर “किशन” रख लिया। अपनी कार दूर खड़ी कर दी और आम मजदूर की तरह साइट पर पहुंचे। ठेकेदार ने उन्हें नया मजदूर समझकर काम पर रख लिया।
पहली बार किशनलाल को खुद अपनी बनाई इमारत की नींव खोदने का काम मिला। उन्होंने सोचा, “कुछ ही दिनों में इन मजदूरों की पोल खोल दूंगा।” लेकिन काम शुरू करते ही उन्हें एहसास हुआ कि मजदूरी करना कितना कठिन है। तपती धूप, पसीना, दर्द, छाले—सब झेलना पड़ा। बाकी मजदूर बिना रुके तेजी से काम कर रहे थे। किसी को बात करने का भी समय नहीं।
दिन के अंत तक किशनलाल बुरी तरह थक चुके थे। उनकी कमर में दर्द था, हाथों में छाले पड़ गए थे। पहली बार उन्हें मजदूरों की मेहनत का थोड़ा सा अंदाजा हुआ।
रात को वे मजदूरों के साथ उनकी टूटी-फूटी झोपड़ियों में रहने गए। वहां उन्होंने देखा कि मजदूर अपनी जिंदगी की परेशानियां एक-दूसरे से बांट रहे थे—कोई बेटी के लिए गुड़िया खरीदने की बात कर रहा था, कोई मां के इलाज के लिए पैसे जोड़ रहा था।
इन्हीं मजदूरों में एक बूढ़े मजदूर थे—रामू काका। वे दिनभर मेहनत करते, लेकिन खाने के समय कुछ नहीं खाते, किसी से बात भी नहीं करते। किशनलाल को शक हुआ—आखिर रामू काका खाना क्यों नहीं खाते? क्या वे भूखे रहते हैं या खाना छुपाते हैं?
अगले दिन किशन ने मजदूरों के बीच पूरी तरह घुलने-मिलने का फैसला किया। उन्होंने देखा कि मजदूर कितनी कठिनाई में काम करते हैं। एक मजदूर के पैर से खून बह रहा था, लेकिन उसने पट्टी बांधकर काम जारी रखा। किशन ने पूछा, “तुम्हारे पैर से खून बह रहा है, आराम करो।” मजदूर ने मुस्कुराकर कहा, “साहब, अगर मैं आराम करूंगा तो मेरे परिवार के पेट में आग लग जाएगी। यह खून मेरे बच्चों की रोटी की कीमत है।”
किशनलाल का दिल बैठ गया। उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि उनकी दौलत इन मजदूरों के पसीने और खून से बनी है।
रात को उन्होंने मजदूरों के क्वार्टर में भी जगह ले ली। वहां का माहौल देखकर वे हैरान रह गए—टूटी-फूटी झोपड़ियां, टपकती छतें, गंदगी। मजदूर अपनी परेशानियां बांटते, कोई गांव में सूखे की बात करता तो कोई बहन की शादी के लिए पैसे जमा करने की।
रामू काका हमेशा चुप रहते, अपना काम करते। खाने का टिफिन खोलते लेकिन कभी कुछ नहीं खाते। बस टिफिन को देखते और वापस बंद कर देते। किशनलाल को यह बहुत अजीब लगा।
एक शाम जब मजदूर काम से लौट रहे थे, किशन ने देखा कि रामू काका एक पुराने कपड़े में कुछ लपेटकर सुनसान गली की ओर जा रहे हैं। किशन चुपके से उनका पीछा करने लगे। रामू काका एक टूटी झोपड़ी में गए। किशन ने झोपड़ी के छेद से झांका।
जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनका दिल दहल गया। झोपड़ी में तीन छोटे बच्चे भूखे बैठे थे। उनकी हड्डियां दिख रही थीं, आंखों में निराशा थी। वे रामू काका का इंतजार कर रहे थे। रामू काका ने अपने कपड़े में से एक रोटी निकाली और तीनों बच्चों में बांट दी। खुद एक भी टुकड़ा नहीं खाया, बस बच्चों को हंसते हुए देखते रहे।
एक बच्चा पूछता है, “बाबू, आप क्यों नहीं खाते?”
रामू काका मुस्कुराकर बोले, “बेटा, मेरा पेट भरा है। तुम्हारी भूख मेरी भूख से ज्यादा जरूरी है।”
रामू काका ने बच्चों को अपनी फटी कमीज से ढंका, कहानी सुनाई—एक राजा गरीबों की मदद करता था, उनके लिए खाना और कपड़े लाता था। कहानी सुनते-सुनते बच्चे सो गए।
यह सब देखकर किशनलाल की आंखों में आंसू आ गए। उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने मजदूरों को कितना गलत समझा था। वे सिर्फ मजदूर नहीं, एक पिता थे जो अपने बच्चों के लिए सब कुछ कुर्बान कर रहे थे।
किशनलाल को लगा कि दौलत की असली कीमत भूख और गरीबी नहीं, बल्कि वह प्यार है जो अपने बच्चों के लिए होता है। उन्होंने अपनी क्रूरता पर शर्म महसूस की।
रातभर किशनलाल सो नहीं पाए। सुबह होते ही उन्होंने अपनी असली पहचान में लौटने का फैसला किया। दाढ़ी-मूंछ उतार दी, अच्छे कपड़े पहने और सेठ किशनलाल बन गए, लेकिन अब वे बदल चुके थे।
उन्होंने ठेकेदार को बुलाया, “आज से कोई मजदूर भूखा नहीं रहेगा। मजदूरी दोगुनी होगी, बच्चों के लिए मुफ्त खाना और शिक्षा का इंतजाम होगा।”
रामू काका के बच्चों के लिए खाने-पीने का सामान, कपड़े और खिलौने भेजे। उन्होंने मजदूरों को एक बड़ा सरप्राइज देना चाहा।
अगले दिन सेठ किशनलाल चमचमाती कार में साइट पर पहुंचे। मजदूर हैरान रह गए। सेठ ने सबको इकट्ठा किया और बोले, “पिछले एक हफ्ते से मैं आपके साथ मजदूर बनकर काम कर रहा था। मेरा नाम किशन था।”
सारे मजदूर हैरान थे। सेठ किशनलाल की आंखें नम थीं। उन्होंने कहा, “मैंने आपकी मेहनत को गलत समझा। आपकी मेहनत, आपके परिवार के लिए है। मेरी दौलत आपके खून-पसीने से बनी है।”
फिर उन्होंने रामू काका को आगे बुलाया, हाथ जोड़कर बोले, “रामू काका, मैं आपसे माफी चाहता हूं। आपके बच्चों के लिए मैं शिक्षा और घर का इंतजाम करूंगा। आप सब मेरे मजदूर नहीं, मेरे परिवार हैं।”
मजदूरों की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। वे एक साथ बोले, “सेठ किशनलाल जिंदाबाद!”
यह दिन सेठ किशनलाल के लिए एक नई शुरुआत थी।
**इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि दौलत की असली कीमत रिश्तों और भावनाओं में है। कभी किसी को उसके काम या कपड़ों से मत आंकिए, क्योंकि हर इंसान के पीछे एक संघर्ष छुपा है। जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत पैसा नहीं, बल्कि किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने की ताकत है।**
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