रामकिशन बाबा का ढाबा: इंसानियत की मिसाल

कहते हैं ना, जिंदगी में कुछ जगहें सिर्फ भूख मिटाने का जरिया नहीं होतीं, बल्कि वहां का हर कौर इंसान के दिल को तृप्त कर देता है। ऐसी ही एक जगह थी हाईवे पर एक छोटा सा ढाबा, जिसका मालिक था रामकिशन बाबा।

बाबा की उम्र लगभग 70 साल थी। चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ, सफेद धोती-कुर्ता, सिर पर मुरझाई हुई पगड़ी। आंखों में थकान जरूर थी, लेकिन उनमें एक अजीब सी चमक थी। जैसे उन आंखों ने बहुत कुछ देखा हो, और फिर भी उम्मीद कभी नहीं छोड़ी।

ढाबा बेहद साधारण था—छत पर टीन की चादरें, लकड़ी की पुरानी बेंचें, मिट्टी के चूल्हे से उठती खुशबू और धुएं की लहरें। राह चलते ट्रक ड्राइवर और गांव वाले अक्सर यहां आकर खाना खा लेते थे। लेकिन बाबा का दिल सबसे ज्यादा खुश तब होता, जब सड़क पर कहीं से वर्दी पहने जवान वहां रुक जाते।

उस शाम भी सड़क पर धूल उड़ रही थी और सूरज ढलने को था। तभी कुछ थके-हारे फौजी ट्रक से उतर कर ढाबे की तरफ आए। उनकी वर्दियां धूल से सनी थीं, चेहरे पसीने से भीगे हुए। उनमें से एक मुस्कुरा कर बोला—
“बाबा, कुछ खाने को मिलेगा?”
बाबा का चेहरा खिल उठा—“आओ बेटा, आओ। यहां तुम्हारे लिए हमेशा जगह है।”

बाबा ने अपनी बूढ़ी टांगों को घसीटते हुए आटा बेलना शुरू किया। चूल्हे पर रोटियां सिकने लगीं। दाल की खुशबू हवा में फैल गई। कुछ ही देर में मिट्टी के कुल्हड़ों में चाय, प्याज और हरी मिर्च के साथ गरमागरम खाना परोस दिया गया। जवान भूख से टूट पड़े।

खाते-खाते एक ने पैसे बढ़ाए और पूछा—“बाबा, कितना हुआ?”
बाबा ने दोनों हाथ जोड़ लिए—“बेटा, तुम्हारे लिए पैसे मांगना मेरी बेइज्जती होगी। तुम लोग अपनी जान दांव पर लगाते हो, यह खाना मेरी तरफ से है। एक पिता का अपने बेटों के लिए।”
उनकी बात सुनकर जवान खड़े हो गए। सब ने मिलकर बाबा को सलाम ठोका—“जय हिंद बाबा!”
उस पल बाबा की आंखें नम थीं, मगर चेहरे पर संतोष की मुस्कान थी।

दिन ऐसे ही गुजरते रहे। जवान अपनी ड्यूटी पर लौट गए और बाबा अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लग गए। लेकिन उनके उस छोटे से काम ने जवानों के दिल में एक अटूट जगह बना ली थी।
किसी को क्या पता था कि आने वाले दिनों में यही रिश्ता, यही अपनापन बाबा की जिंदगी को बचाएगा।

रात काली चादर की तरह पूरे हाईवे पर फैल चुकी थी। हवा में अजीब सी बेचैनी थी। दूर-दूर तक बस झींगरों की आवाज और कभी-कभार गुजरते ट्रकों की गड़गड़ाहट।
रामकिशन बाबा ने अपने ढाबे के बाहर मिट्टी का दिया रखा और चूल्हे की आखिरी आंच को बुझाने लगे।
तभी चार-पांच बदमाश मोटरसाइकिलों पर वहां आ धमके। उनके हाथों में डंडे और आंखों में खौफनाक नशा था।
“ओए बूढ़े, सुना है तू मुफ्त में खाना खिलाता है?” एक ने हंसते हुए कहा।
बाबा ने डरते हुए जवाब दिया—“बेटा, जवानों को खिलाना मेरे लिए इज्जत है।”
बदमाश ने गुस्से से मेज पर लात मार दी—“इज्जत दिखाने का शौक है तो हमें दिखा। निकाल पैसे वरना यह ढाबा तोड़ डालेंगे।”

बाबा कांपते हुए खड़े हो गए। उनके झुर्रीदार हाथ जुड़ गए। आंखों में आंसू छलक पड़े—“बेटा, यह छोटा सा ढाबा है। रोज की कमाई से बस गुजारा चलता है, पैसे कहां से लाऊं?”
बहुत हो गया, दूसरा बदमाश चीखा और ढाबे की कुर्सियां तोड़ने लगा। कांच के गिलास जमीन पर बिखर गए। मिट्टी का चूल्हा लात से उलट गया।
बाबा की आंखों से अब आंसू बहने लगे। वह सहमे खड़े थे, जैसे पूरी दुनिया उनके सामने ढह रही हो।

उसी समय दूर हाईवे पर अचानक तेज रोशनी चमकी। दर्जनों हेडलाइटें एक साथ जल उठीं। गड़गड़ाते हुए बड़े ट्रक और जीपें ढाबे के बाहर आकर रुकीं।
उनके दरवाजे एक साथ खुले और वही जवान बाहर निकले—वही जो कभी यहां रोटी और दाल खाकर गए थे।
उनके बूटों की आवाज रात की खामोशी को चीरती चली गई। बदमाश ठिटक गए, उनके चेहरे का रंग उड़ गया।
एक जवान ने आगे बढ़कर गरजते हुए कहा—
“जिस घर को हमने बाबा का आशियाना कहा है, उसे छूने की हिम्मत किसने की?”

बाबा कांपते हुए सब देख रहे थे। उनकी आंखों में राहत थी, मगर दिल में सवाल—क्या सच में उनके बेटे जैसे जवान आज उनके ढाबे की रक्षा करेंगे?
और जवाब सामने था—वर्दीधारी जवानों का घेरा, जिनकी आंखों में सिर्फ एक ही बात थी—**बाबा अब अकेले नहीं हैं।**

ढाबे के टूटे बर्तनों और बिखरी सब्जियों के बीच खड़े बदमाश अब पसीने से तर-बतर थे। उनकी मोटरसाइकिलें साइड में खड़ी थीं, लेकिन सामने खड़े जवानों की कतार देखकर उनके कदम जैसे जमीन में गढ़ गए हों।
एक जवान ने आगे बढ़कर डंडा पकड़े गुंडे के हाथ पर जोर से लात मारी। डंडा जमीन पर गिरा और आवाज गूंजी—
“यह हाथ गरीब को मारने के लिए नहीं, मेहनत करने के लिए बने हैं।”

बदमाशों ने इधर-उधर भागने की कोशिश की, लेकिन फौजियों का घेरा और तगड़ा हो गया।
एक ने गरजते हुए कहा—
“तुमने सिर्फ एक बूढ़े को नहीं छेड़ा, हमारे बाबा को छेड़ा है। और बाबा पर हाथ डालने का मतलब है, पूरी फौज से लड़ाई मोल लेना।”

बाबा यह सब देख रहे थे। उनकी आंखों में डर की जगह अब गर्व था। आंसू बह रहे थे, लेकिन वह आंसू कमजोरी के नहीं, बेटे जैसे जवानों की हिफाजत के थे।

भीड़ भी धीरे-धीरे जमा हो चुकी थी। लोग जो पहले चुपचाप तमाशा देख रहे थे, अब फौजियों की ताकत और इज्जत देखकर कांप गए।
फुसफुसाहट चारों तरफ फैल गई—“अरे, यह तो वही बूढ़ा है, जो जवानों को मुफ्त में खाना खिलाता है।”

फौजियों ने बदमाशों को पकड़ कर जमीन पर गिरा दिया। उनकी आवाजें कांप रही थीं—“माफ कर दो, दोबारा कभी ऐसा नहीं करेंगे।”
तभी एक जवान ने उनकी कॉलर पकड़ कर आंखों में आंखें डालकर कहा—
“बाबा के पसीने की गंध हमारे लिए दुआ है। अगर इनका दिल दुखाया तो समझ लो देश की आत्मा को ठेस पहुंचाई।”

बदमाशों की सारी अकड़ अब मिट चुकी थी। वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे।
बाबा वहीं खड़े थे, आंसुओं से भीगी आंखों से बोले—
“बेटा, इनसे बदला मत लो। बस इन्हें इतना सिखा दो कि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है।”

जवानों ने बाबा की तरफ सलामी दी और एक स्वर में कहा—“आपका हुक्म हमारे लिए आखिरी शब्द है।”
बदमाशों को छोड़ दिया गया। लेकिन पूरे इलाके में खबर फैल गई।
अब बाबा का ढाबा सिर्फ एक ढाबा नहीं रहा, वह फौज का अड्डा बन गया।

सुबह होते-होते खबर पूरे कस्बे में फैल चुकी थी।
कल रात फौजियों ने बाबा के ढाबे को बचाया।
लोगों की भीड़ ढाबे पर जमा होने लगी।
जो लोग कल तक बाबा को नजरअंदाज करते थे, अब वही हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े थे।

बाबा टूटी कुर्सी पर बैठे थे, आंखों में शांति और चेहरे पर हल्की मुस्कान।
फौजी जवानों ने ढाबे के बाहर एक बोर्ड टांग दिया, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—
**“यह ढाबा रुपयों से नहीं, दुआओं और बलिदान से चलता है।”**

अब जब भी जवान आते, बाबा के सामने नोट रखते ही नहीं थे।
वह कहते—“बाबा, आपके हाथ का खाना हमारे लिए प्रसाद है।”
बाबा हर जवान को अपने बेटे की तरह खाना परोसते।
रोटियां हाथ सेकते, दाल में थोड़ा ज्यादा घी डालते और कहते—
“खूब खाओ बेटा, ताकत लगती है। तुम्हें देश की रक्षा आसान नहीं होती।”

धीरे-धीरे बाबा का ढाबा एक प्रतीक बन गया।
दूर-दूर से लोग आने लगे। वहां सिर्फ खाना नहीं मिलता था, बल्कि हर किसी को एक सबक भी मिलता था कि इंसानियत, इज्जत और दुआ सबसे बड़ी दौलत होती है।

सरकारी अफसर भी आए, पत्रकार भी।
सबने मिलकर बाबा को “रेजीमेंट का बाबा” नाम दे दिया।

एक दिन बाबा की आंखें भर आईं, जब उन्होंने देखा कि जवानों ने अपने बैच की एक प्लेट बाबा के नाम कर दी थी—
“यह थाली बाबा की है, यहां से कोई जवान भूखा नहीं जाएगा।”

बाबा ने कांपते हाथों से तख्ती छुई और फुसफुसाए—
“अब मुझे और क्या चाहिए? मेरे बेटे मुझे भूखा नहीं रहने देंगे।”

ढाबे की वही टूटी लकड़ी की बेंच अब देशभक्ति का मंदिर बन चुकी थी।
जहां हर थका-हारा जवान बैठकर सिर्फ खाना नहीं खाता, बल्कि बाबा की दुआओं का हिस्सा बनता।