प्रेम: इंसानियत की कीमत
मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस स्टेशन हमेशा भीड़ से भरा रहता है। उसी भीड़ में रोज़ एक कुली प्रेम अपने फटे कपड़ों और थके चेहरे के साथ मेहनत करता था। उसकी जिंदगी आसान नहीं थी—घर में बीमार माँ पार्वती, छोटी बहन राधा, और खुद का अधूरा सपना। पिता के गुजर जाने के बाद, प्रेम ही घर का सहारा था। माँ के इलाज और बहन की पढ़ाई के लिए वह दिन-रात मेहनत करता, मगर कभी-कभी घर में सिर्फ पानी पीकर ही सो जाता।
एक दिन स्टेशन पर एक चमचमाती गाड़ी आकर रुकी। उसमें से उतरे सेठ हरदयाल—शहर के सबसे बड़े उद्योगपति। उनके साथ दो बॉडीगार्ड्स भी थे। अचानक भीड़ में धक्का-मुक्की हुई और सेठ हरदयाल गिर पड़े। उनके सिर से खून बहने लगा। प्रेम दौड़कर उनकी मदद करने गया, लेकिन सेठ ने उसे झिड़क दिया, “दूर हटो मुझसे! तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से देश बर्बाद है।”

प्रेम चुपचाप पीछे हट गया। लेकिन तभी सेठ को दिल का दौरा पड़ा। बॉडीगार्ड्स घबरा गए, कोई मदद नहीं कर पाया। प्रेम की इंसानियत जागी—वह दौड़कर टैक्सी लाया, सेठ को अस्पताल पहुंचाया। डॉक्टर ने दवाइयों के लिए 3000 रुपए मांगे, लेकिन प्रेम के पास सिर्फ 500 रुपए थे। उसने अपनी पिता की घड़ी मेडिकल स्टोर पर गिरवी रख दी और पैसे लेकर दवाइयां खरीद लीं।
सेठ का इलाज शुरू हुआ और उनकी जान बच गई। प्रेम चुपचाप अस्पताल से निकल गया। अगली सुबह जब प्रेम अपने घर पर था, दरवाजे पर दस्तक हुई। सेठ हरदयाल का मैनेजर आया और प्रेम को एक बड़ा पार्सल और लिफाफा दिया। लिफाफे में नोटों की गड्डियां थीं, पार्सल में बहन की किताबें और माँ की दवाइयाँ। सेठ ने प्रेम को अपने ऑफिस बुलाया।
प्रेम घबराते हुए ऑफिस पहुंचा। सेठ ने कहा, “तुम्हारी ईमानदारी और इंसानियत ने मुझे बदल दिया। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी फैक्ट्री में सुपरवाइजर बनो। तुम्हारे परिवार के लिए क्वार्टर मिलेगा, बहन की पढ़ाई का खर्चा मैं उठाऊँगा।”
प्रेम की दुनिया बदल गई। वह मेहनत से आगे बढ़ा, कुछ ही सालों में मैनेजर बन गया। उसकी बहन डॉक्टर बनी, माँ स्वस्थ हो गई। प्रेम ने बस्ती के बच्चों के लिए स्कूल भी खोला। सेठ हरदयाल के लिए वह अब बेटे जैसा था। प्रेम की अच्छाई ने सेठ के दिल को बदल दिया।
एक दिन प्रेम ने स्टेशन के बाहर एक लड़के को घायल कबूतर को पानी पिलाते देखा। मुस्कराकर उसके कंधे पर हाथ रखा, “बेटा, बहुत नेक काम कर रहे हो। ऊपर वाला तुम्हारी हर मुराद पूरी करेगा।”
यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत और ईमानदारी का फल जरूर मिलता है। देर से सही, लेकिन जब मिलता है तो ज़िंदगी बदल जाती है।
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