सर्दी की एक शाम और फुटपाथ पर लेटा हीरो
सर्दी की एक ठंडी शाम थी। लखनऊ की गलियों में लोग जल्दी-जल्दी अपने घरों की ओर भाग रहे थे। ठंडी हवा चुभ रही थी, हर कोई अपनी जैकेट और कॉफी में गर्मी ढूंढ रहा था। लेकिन एक मोड़ पर फुटपाथ के कोने में एक बुजुर्ग चुपचाप लेटा था। सिर्फ एक फटी हुई शॉल ओढ़े, साथ में एक पुराना थैला। उम्र करीब 80 साल, चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ, लंबी सफेद दाढ़ी और सुनी आँखें।
कोई नहीं रुक रहा था। कुछ लोग उसे देखकर रास्ता बदल लेते, कुछ फोन में व्यस्त थे। किसी के लिए वह सिर्फ एक और भिखारी था। तभी चार कॉलेज के लड़के वहां से गुजरे। तेज म्यूजिक, हंसी-ठिठोली और मोबाइल कैमरे हाथ में। उनमें से एक रोनित, सोशल मीडिया का दीवाना, हर चीज़ को कंटेंट समझता था। वह बुजुर्ग को देखकर हंस पड़ा, “देख कितना सिनेमैटिक लग रहा है यह। चल एक रील बनाते हैं।” दूसरा लड़का बोला, “भाई सिंपैथी वाला एंगल दे, व्यूज आएंगे।”
रोनित कैमरा ऑन करता है। बुजुर्ग की तरफ जाकर उसे हल्का सा धक्का देता है ताकि वह दूसरी तरफ मुड़ जाए। “थोड़ा नजारा बनाओ ना बाबा, एक्टिंग तो करो।” बुजुर्ग कुछ नहीं बोलता, बस अपनी आंखें बंद कर लेता है और मुंह दूसरी ओर घुमा लेता है। शायद जमाने से नहीं, इस अपमान से मुंह मोड़ता है। रोनित फोटो लेता है, पोज करता है और कहता है, “कैप्शन डालूंगा—लिविंग लेजेंड्स ऑफ द स्ट्रीट।” बाकी लड़के हंसते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
रात में Instagram पर वह पोस्ट अपलोड होती है। मजाकिया कैप्शन के साथ—सर्दियों की सच्चाई, फुटपाथ वाले बाबा और मैं, कौन ज्यादा ठंडा दिखता है। शुरुआत में कुछ लाइक्स, कुछ कमेंट्स आते हैं। लेकिन सुबह तक मामला पलट जाता है। एक यूजर ने उस बुजुर्ग को पहचान लिया। वह लिखता है, “क्या तुम जानते हो यह कौन हैं? यह मेरे दादा के साथ सेना में थे। यह कर्नल रणविजय सिंह हैं। 1971 युद्ध के वीर और पद्मश्री सम्मानित। पिछले छह दिन से लापता हैं, अल्जाइमर से पीड़ित हैं। पुलिस रिपोर्ट दर्ज है। और तुमने इन्हें ऐसे बेइज्जत किया।”
वह कमेंट आग की तरह फैलता है। शेयर पर शेयर, कमेंट पर कमेंट, लोगों का गुस्सा फूट पड़ता है। “यह बुजुर्ग देश के सम्मान हैं और तुमने इन्हें कंटेंट बना दिया। अब इस लड़के को कॉलेज से निकालो।” रोनित की प्रोफाइल पर गाली ही गाली, उसका कॉलेज नाम लेकर ट्रेंड कर रहा है। पुलिस नोटिस भेज चुकी है। मीडिया रिपोर्टर घर पहुंच गए हैं और वह बुजुर्ग अभी भी वहीं है—चुप, शांत, बिना किसी शिकायत के।
अब कहानी शुरू होती है। सुबह 9 बजे सोशल मीडिया पर हड़कंप मच चुका था। रोनित शर्मा नाम ट्रेंड कर रहा था, लेकिन किसी उपलब्धि की वजह से नहीं, बल्कि एक गहराई तक चुभती गलती के कारण। जो मजाक था, अब राष्ट्रीय शर्म बन चुका था। कॉलेज प्रिंसिपल का चेहरा लाल था। उनके सामने स्क्रीन पर वही वायरल पोस्ट खुली थी जिसमें रोनित एक बुजुर्ग के सामने सेल्फी लेता हुआ भद्दी हंसी के साथ खड़ा था। “सस्पेंड हिम इमीडिएटली एंड रिलीज एन अपोलॉजी टू द नेशन।”
टीवी चैनलों पर फ्लैश चल रहे थे—”पद्मश्री अवार्डी को सड़क पर अपमानित किया गया।” देश को गुस्सा आया। कर्नल रणविजय सिंह सड़क किनारे मिले। वायरल पोस्ट ने राज खोला। देश के हीरो को भिखारी समझकर अपमानित किया गया। पुलिस अब एक्टिव हो चुकी थी। कर्नल साहब की मिसिंग पर्सन एफआईआर पिछले हफ्ते दर्ज हुई थी। अब उन्हें जिंदा और सामने देखकर पूरी फोर्स हरकत में आ गई थी।
अस्पताल में एक निजी कमरे में कर्नल रणविजय सिंह शांत थे। उनकी आंखों में कोई शिकायत नहीं थी, बस थकान थी और बहुत सारी चुप्पी। डॉक्टर्स ने बताया—मेमोरी लॉस अभी भी है, लेकिन ब्लड प्रेशर स्थिर है और शरीर में थोड़ा सर्दी का असर है। उसी समय उनकी बहू आई, जो छह दिनों से ढूंढ रही थी। जैसे ही वह कमरे में आई, वो कर्नल के पास जाकर बैठ गई। उनके हाथ थामे और आंखों से आंसू बहते हुए बोली, “बाबा, हम आपको पूरे शहर में ढूंढते रहे। आप वहां थे जहां कोई देख नहीं रहा था।”
कर्नल साहब की आंखें उठी, वो मुस्कुराए धीमे थके हुए अंदाज में, “मैं खोया नहीं था बेटा, बस लोग देखना भूल गए थे।”
उसी शाम रोनित ने अपना सोशल मीडिया अकाउंट डिलीट कर दिया। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कॉलेज से सस्पेंशन लेटर आ चुका था। पुलिस पूछताछ कर रही थी। घर के बाहर मीडिया खड़ा था। वह लड़का जो कल तक व्यूज और लाइक्स गिन रहा था, आज माफी मांगने के लिए शब्द ढूंढ रहा था।
शहर के कई हिस्सों में कैंडल मार्च हुए। स्कूलों में साइलेंस रखी गई। बच्चों को बताया गया कि जो बुजुर्ग सड़क पर दिखे, हो सकता है वह किसी का इतिहास हो। एक न्यूज़ एंकर ने कहा, “हमने सिखाया कि किसी को जज मत करो।” पर सोशल मीडिया ने हमें सिखा दिया कि लाइक्स के लिए हम कितने नीचे गिर सकते हैं।
फिर एक पत्रकार ने कर्नल साहब से पूछा, “सर आपको कैसा लगा जब आपको इस तरह अपमानित किया गया?”
कर्नल रणविजय सिंह थोड़ी देर चुप रहे। फिर बहुत धीमे बोले, “मैंने देश की सेवा की थी, याद रखे जाने के लिए नहीं, बल्कि यह याद दिलाने के लिए कि इंसान को कैसे देखा जाना चाहिए।” उनकी आंखों में कोई गुस्सा नहीं था, कोई बदला नहीं, कोई शिकवा नहीं। बस एक गहराई थी। वह गहराई जो किसी सम्मान में नहीं बल्कि अपमान सहकर भी मुस्कुराने में होती है।
अगले दिन देश भर की सुर्खियों में अब एक ही चेहरा था—कर्नल रणविजय सिंह। टीवी चैनलों पर उनके पुराने इंटरव्यू, 1971 की फोटो, सीमा पर ली गई तस्वीरें और वह सम्मान समारोह जहां उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री दिया गया था। लोगों के बीच बस एक ही बात हो रही थी—जिसे कल तक सबने भिखारी समझा, वो देश का सबसे वीर बेटा निकला।
रोनित का चेहरा अब हर न्यूज़ चैनल पर था, लेकिन सम्मान के साथ नहीं। उसकी हर हरकत डिसेक्ट हो रही थी। किस मानसिकता में पले-बढ़े ऐसे युवा? क्या यह सोशल मीडिया की गलती है या समाज की? कॉलेज ने उसे इनडेफिनेट सस्पेंशन दे दिया। उनके बयान में लिखा था, “हम ऐसी सोच का समर्थन नहीं करते जो अपमान को मनोरंजन माने।”
रोनित टूट चुका था। उसने ना मीडिया का सामना किया, ना सोशल मीडिया का। घर में बंद होकर रोता रहा। फोन, लैपटॉप सब बंद। उसकी मां ने धीरे से पूछा, “बेटा तूने ऐसा क्यों किया?”
रोनित कुछ बोल नहीं पाया। बस फूट-फूट कर रो पड़ा। “मां, मुझे लगा बस मजाक है, कंटेंट है। पर मैंने किसी की इज्जत छीन ली।”
अस्पताल में कर्नल रणविजय सिंह थोड़ा बेहतर हो चुके थे। उन्हें अब अपनी बहू, अपने पुराने दोस्त और कुछ यादें आने लगी थी। डॉक्टर ने कहा, “यह चमत्कार है कि इतने ठंड में भी इनका हौसला टूटा नहीं। शायद आदत है सरहद से लौटने की।”
एक दिन अस्पताल के कमरे में रोनित खुद आया। बहुत धीमे कांपते कदमों से। उसके हाथ में एक चिट्ठी थी। जैसे ही उसने कर्नल साहब को देखा, उसकी आंखें भर आई। वह घुटनों पर बैठ गया। “सर, मैं माफी के लायक नहीं। मैंने आपको इंसान नहीं समझा और खुद को जानवर बना लिया।”
कर्नल साहब ने उसकी ओर देखा, बहुत शांत। उन्होंने वह चिट्ठी अपने हाथ में ली, पढ़ी, फिर बोले, “बेटा, गलती को स्वीकार करना सबसे बड़ी बहादुरी होती है। मैंने माफ किया क्योंकि देश को सिर्फ सिपाही नहीं, सुधरते नागरिक भी चाहिए।”
रोनित के आंसू थम नहीं रहे थे। वह उठा और धीरे से कर्नल साहब के पैर छूकर बाहर चला गया। पर अब वह वहीं रोनित नहीं था।
कुछ दिनों बाद एक समारोह हुआ, जहां कर्नल रणविजय सिंह को दोबारा मंच पर बुलाया गया। देश के राष्ट्रपति द्वारा उन्हें जनसम्मान दिया गया—उनके योगदान के साथ उनके धैर्य और क्षमा के लिए। स्टेज पर एक खाली कुर्सी रखी गई, जिस पर लिखा था—”यह कुर्सी उन सबके लिए है जो देखने के बावजूद नहीं देख पाते।”
इस कहानी ने देश को हिला दिया था, पर सिर्फ गुस्से से नहीं, आत्ममंथन से। कई कॉलेजों ने इज्जत प्रशिक्षण शुरू किया। स्कूलों में सांस्कृतिक मूल्य शिक्षा पर फोकस किया गया। और जब एक चैनल ने फिर पूछा, “सर, आप क्या संदेश देना चाहेंगे आज की युवा पीढ़ी को?”
कर्नल साहब ने अपनी चुप मुस्कान के साथ जवाब दिया, “कैमरे में सब कुछ आता है, पर इंसानियत तभी आती है जब आप लेंस नहीं, दिल से देखें। हर फ्रेम में सिर्फ चेहरा मत ढूंढो, कभी इंसानियत भी तलाशो। फोटो लेने से पहले देख लो कहीं आपकी इंसानियत ही तो आउट ऑफ फ्रेम नहीं।”
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